06 नवंबर 2008

कैसे जोड़े जाते हैं आतंकियों के तार

ऋषि कुमार सिंह

फर्जी एनकाउन्टर जैसे अपराध में शामिल पुलिस हमेशा से शक के घेरे में रही है। पुलिस पर विश्वास न करने का सबसे बड़ा कारण अपराध प्रक्रिया संहिता में उसके बयान को न्यायिक प्रक्रिया में शामिल करने लायक न समझा जाना है। यही कारण है कि पुलिसिया गिरफ्तारी भी शक के दायरे में होती है। पुलिस पहले से यह तय लेती है कि उसे किस तरह के और कहां के लोगों को उठाना है। इस तरह की गिरफ्तारियों के लिए पुलिस पहले से ही ऐसे इलाकों और लोगों को प्रचारित भी करती है। यह काम राष्टीय स्तर से लेकर गांव तक होता है। गांव में चोरी होने पर कुछ लोग के नाम पहले से चौकियों में दर्ज होते हैं। पुलिस उन्हीं को सबसे पहले उठाकर सारा इल्जाम उसके सर पर मढ़ कर अपनी सक्रियता साबित कर देती है। दिल्ली के चर्चित एनकाउंटर को लें,जिससे जुड़े कई प्रश्नों के जवाब अभी बाकी है। लेकिन पुलिस के पक्ष में बोलने वालों का कहना है कि बटला हाउस में केवल उन्हीं लड़कों को क्यों मारा गया। जाहिर सी बात है वे लड़के बाहरी थे और दिल्ली में रहते हुए ज्यादा दिन भी नहीं हुआ था। ऐसे में उन्हें निशाना बनाना ज्यादा आसान था। खास जगह और लोगों को निशाना बनाने के ताजा उदाहरणों में उत्तर प्रदेश की घटना सामने हैं। 23 अक्टूबर की रात को लखनऊ चारबाग स्टेशन पर एसटीएफ ने कैफियत ट्रेन में सफर कर रहे राशिद और असफर जमाल को परेशान किया जाता है। कैफियत ट्रेन की एस टू बोगी की सीट 41 और 44 पर सफर कर रहे राशिद और असफर जमाल से सीट खाली करने के लिए कहा गया। इसके बाद नाम जानने की कोशिश की जाती है। नाम का पता चलते ही फोटो खींची जाती है और तलाशी ली जाती है। यह सब कुछ करते समय लगातार किसी को फोन पर यह जानकारी भी दी जा रही होती है। हालांकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की सक्रियता के चलते पुलिस इन्हें उठा नहीं पाती है। जिसका बदला लेने के लिए एसटीएफ 24 अक्टूबर की सुबह पीयूएचआर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं विनोद यादव,सरफराज को दो अन्य लोगों के साथ उठा लेती है। इन्हें उठाने का सीधा मकसद मानवाधिकार संगठन के अन्य सदस्यों को डराना के सिवाय और कुछ भी नहीं। गौरतलब है कि पीयूएचआर(पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स) के चलते उत्तर प्रदेश की एसटीएफ को मनमर्जी से गिरफ्तारी करने में लगातार दिक्कतें आ रही थी। चारबाग से उठाए गए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को 80 घण्टे बाद में आलमबाग थाने की पुलिस ने जालसाजी के मामले में कोर्ट में पेश किया। 24 तारीख को इन कार्यकर्ताओं से जुड़ी मिसिंग की सूचना 100 नंबर पर दी जा चुकी थी और लखनऊ के एसएसपी, एसपी सिटी और आजमगढ़ के डीआईजी,डीएम सभी इस तरह की गिरफ्तारी से लगातार इंकार करते रहे। यह वादा भी करते रहे कि इनका पता लगते ही बता दिया जाएगा। बात मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उठाने तक सीमित नहीं रहती है। 24 अक्टूबर की रात को मऊ के नुरूल इस्लाम हज से जुड़े कागजात को दुरूस्त करवाने लखनऊ आते हैं। जिन्हें सुबह साढ़े चार के आस पास आलमबाग बस स्टेशन से उठा लिया जाता है। दो दिन तक जम कर मारा पीटा जाता है और धमाकों की जिम्मेदारी लेने के लिए दबाव बनाया जाता है। सफलता न मिलते देख बेहोशी की हालत में आलमबाग बस स्टेशन के पास फेंक दिया जाता है। नुरूल इस्लाम किसी तरह घर पहुंचते हैं जहां करीब दो दिन के इलाज के बाद उनके मुंह से आवाज निकल पाती है। यह सिलसिला थमता नहीं है बल्कि दिल्ली में भी ऐसी घटना को अंजाम दिया जाता है। 31 अक्टूबर (शुक्रवार) की रात ग्यारह बजे के आसपास विप्रों के एक इंजीनियर मुनीद को दिल्ली में उनके ऑफिस से उठा लिया जाता है। थोड़ी ही देर में मुनीद का मोबाईल फोन स्विच ऑफ बताने लगता है,जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता विनोद यादव और अन्य साथियों के मोबाईल फोन स्विच ऑफ बताने लगे थे। जिस ऑफीसर ने मुनीद को उठाया था,जिसे फोन (9871401234) करने पर वह किसी भी जानकारी से इंकार कर देता है। इस गिरफ्तारी के बारे में ओखला पुलिस स्टेशन सहित स्पेशल सेल तक किसी भी तरह की जानकारी से इंकार कर देती है। खास है कि मुनीद इलाहाबाद का रहने वाला है और इस समय बटला हाउस इलाके में कमरा लेकर रह रहा है।
अब यहां भी वही बात आती है कि इन्हें ही क्यों परेशान किया गया। ये सभी लोग आजमगढ़ के या फिर उसके आस पास इलाके के हैं। जबकि इन इलाकों को अपराधियों और आतंकियों का गढ़ के बतौर प्रचारित किया जा चुका है। राशिद और असफर जमाल आजमगढ़ खास शहर के रहने वाले थे,जिनका दिल्ली जाने के लिए रिजर्वेशन था। जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता पुलिसिया साजिश को बेनकाब करने के चलते निशाने पर थे। नुरूल इस्लाम को उठाने में पूर्वांचल और आजमगढ़ फैक्टर ही काम कर रहा था। नुरूल इस्लाम को उठाने के बाद 10-12 मिनट में एक कमरे में पहुंचा दिया गया जाता है। बाकायदा उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर कर। एसटीएफ का यह तरीका संगठित गिरोह के जैसा है। नुरूल इस्लाम से की गई पूछताछ से साफ-साफ पता चलता है कि पुलिस या विशेषाधिकार संपन्न पुलिस कैसे आतंकियों के तार जोड़ती है। नुरूल इस्लाम से कहां कहां विस्फोटों को अंजाम दिया है,आजमगढ़ में रिश्तेदारी है कि नहीं,खास कर सरायमीर,सज्जन पुर कभी जाना हुआ है या नहीं,वहां पर किसी को जानते हैं या नहीं जैसी पूछताछ की गई। इस पूछताछ से साफ पता चलता है कि एसटीएफ पहले से ही कुछ इलाके को निशाने पर लेकर चलती है। इस मामले में नुरूल को पहले आजमगढ़ और फिर आतंकवादी घटनाओं से जोड़ने की कोशिश कहा जा सकता है। खैर इस दौरान लोगों के गायब होने में एसटीएफ पर संदेह किए जाने की खबरें मीडिया में आ चुकी थी और इसी दबाव के चलते एसटीएफ को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि नुरूल इस्लाम को एसटीएफ ने साफतौर पर यह धमकी दी थी कि अगर मीडिया को कुछ भी बताया तो घर का पता मालूम है और उठवा लेंगें। इसके बाद की घटना दिल्ली में मुनीद की है,जिन्हें बटला हाउस में रहने और इलाहाबाद से जुड़े होने के कारण एसटीएफ ने उठाया था। हालांकि मुनीद को पुलिस ने छोड़ दिया। बताया कि मुनीद से दो महीने पहले लखनऊ से कुछ लड़के मिलने आए थे,उन्हीं के बारे में जानकारी लेने के लिए उठाया गया था। जो लड़के मुनीद से मिलने आए थे,वे किसी अपराध में शामिल हैं या नहीं इस बारे पुलिस के पास कोई जानकारी नहीं है। इस तरह पिछले हफ्ते की सारी बातें पुलिसिया वारदात के बतौर एक दूसरे से जुड़कर सामने आ जाती हैं।
इसके अलावा खुफिया एजेंसियां कुछ प्लान पहले से तैयार करके मीडिया के माध्यम से प्रचारित कर देती है। जैसे देश भर की सारी आतंकवादी घटनाओं को जोड़ने वाला- शब्द बैडमैन। इसे आतंकियों की बैडमेन(BADMAN-यानी बी से बंगलुरू,ए से अहमदाबाद,डी से दिल्ली,एम से मालेगांव, ए से असम और एन से संभावित नागपुर) थ्योरी कह कर प्रचारित किया गया है। अगर वाकई आतंकी बैडमेन थ्योरी के तहत काम कर रहें हैं तो इन आतंकी घटनाओं को पहले से रोकने के इंतजाम क्यों नहीं किए जा रहे हैं। ऐसा करने में किसी भी सुरक्षा ऐजेंसियों की कोई दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाई दे रही है,सिवाय विस्फोट होने के बाद की गिरफ्तारियां करने में। घटना होने के 24 घण्टे के भीतर पुलिस कम से कम दर्जन भर मास्टर माइंड को खोज निकालती है। चूंकि बैडमेन थ्यौरी के तहत ही सारी आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। यानि इन सारी घटनाओं में एक ही संगठन का हाथ है। जबकि मालेगांव विस्फोट में महाराष्ट्र पुलिस की एसटीएफ एक दक्षिण पंथी संगठन से जुड़ी आरोपी साध्वी प्रज्ञा को सूत्रधार मानकर जांच कर रही है। ऐसे में बैडमैम थ्यौरी एक सिरे से खारिज हो जाती है। बैडमैन थ्यौरी के एम को मेहरौली विस्फोटों से भी जोड़ा गया था। जिसके सूत्रधार का पता लगना अभी बाकी है। कहना गलत न होगा कि पुलिस की यह थ्यौरी खोखली और बेबुनियाद है । लेकिन पुलिस इस थ्यौरी का इस्तेमाल आतंकियों के तारों को एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य तक जोड़ने में बखूबी कर रही है।
जिस तरह से पुलिस कुछ विशेष जगहों और लोगों के निशाने पर लेकर गिरफ्तारियां कर रही है,उससे समाज में एक विशेष तरीके का विभाजन पैदा हो रहा है। कभी आजमगढ़,उत्तर प्रदेश तो कभी समुदाय के नाम पर सामाजिक विरोध किए जाने का माहौल बनाया जा रहा है। और असर होने लगा है। विस्फोटों के सिलसिले में पूछ ताछ के लिए हिरासत में लिए गए लोगों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। विस्फोटों के बाद गिरफ्तार किए गए आरोपियों को अपने मुकदमें के लिए वकील नहीं मिल रहे हैं। इनकी पैरवी करने की हिम्मत करने वाले वकीलों पर कचहरियों में हमले किए जा रहे हैं। लखनऊ के वकील मों. शोएब पर हमला किया गया क्योंकि उन्होंने लखनऊ कचहरी ब्लास्ट के सिलसिले बार काउंसिल के फरमान को मानने से साफ इंकार कर दिया था। बार काउंसिल ने कचहरी ब्लॉस्ट आरोपियों का केस न लड़ने का ऐलान किया था। यह सीधे तौर न्यायिक प्रक्रिया को रोकने का प्रयास था। इस फरमान में यह घोषणा छिपी हुई थी कि पुलिस गलती से भी किसी निर्दोष को निशाना नहीं बनाती है । खेदजनक है न्यायपालिका भी बार काउंसिलों के समय समय पर आए वहिष्कारों को लेकर मौन है जबकि मजदूरों की हड़ताल को आर्थिक नुकसान से जोड़ते हुए इस पर रोक लगा रखी है। दो अक्टूबर को हरियाणा में जिस युवक का एनकाउन्टर किया गया था,पुलिस अब उसे अपनी गलती मान रही है। इससे मुठभेड़ों का सच और पुख्ता हो जाता है।
कुल मिलाकर जिस तरह से आतंकवाद से निपटने का दावा किया जा रहा है,असल में वह राज्य प्रायोजित आतंकवाद के अलावा कुछ और नहीं। जिसमें राजनीतिक मर्यादा के गिरने का दंश साफ तौर पर झलकता है। अगर राजनीति सत्ता के मोह अंधी न हुई होती तो पुलिस इतनी अलोकतांत्रिक तरीके से पेश नहीं आ रही होती।
- ऋषि कुमार सिंह 9911848941

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