22 मई 2009

कहां है आम आदमी



-राघवेंद्र प्रताप सिंह

वर्तमान समय में पूरे भारत में लोकतंत्र का महासमर चल रहा है। इस लोकतांत्रिक महासमर में एक आश्चर्यजनक बदलाव दिखाई पड़ा है वह है जनता से जुड़े मुद्दे। मुद्दे भी ऐसे कि जिनसे जनता को भटकाया जा सके। मगर फिर भी जनता भटकी नहीं। जनता की निगाहें गिद्ध की तरह मुद््दों से ही जुड़ी रहीं। जन मुद्दों को उठाने में समाज कार्य कर रहीं संस्थाएं व प्रगतिशील मोर्चे ही सामने आते हैं। स्थानीय स्तर पर ही सही मगर तीन तरह के मसले उठे हैं। पहला मसला यह कि सरकार को ज्यादा जवाबदेह बनाया जाए। दूसरा मसला यह कि हमारे पास घर रोजगार और आवश्यक जनसुविधाएं हों और तीसरा मसला है अगर जनप्रतिनिधि बेकार हों तो उन्हें वापस बुलाया जाए।
वास्तव में एक तार्किक और सारगभिüत बहस समाज में छिड़ी। सही अर्थों में एक स्वस्थ्य लोकतंत्र की आधार शिला भी ऐसे ही रखी जा सकती है। हमने धीरे-धीरे ही सही आजादी के बाद से आधी सदी गुजार दी है। हमें जहां दुनिया में तेजी से आगे बढ़ रहे देशों से कम समय मिला है वहीं पर एक समृद्ध इतिहास भी मिला है। मगर हमारे भारतीय राजनीतिक विशारद केवल कम समय का रोना रोते हैं। परंतु यह कोई तर्क नहीं है। हमारा देश उत्तम प्राकृतिक संसाधनों व बेहतर श्रम शçक्त के साथ दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। यह देश हमेशा की तरह अपनी गलतियों से सीखने वाला नहीं वरन उसको दोहराने वाला बना है। इसके कई उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं। पहला सत्ता मोह में भारत-पाक विभाजन, दूसरा 1971 में आपातकाल की घोषणा, तीसरा 1992 में बाबरी मçस्जद विध्वंस और इसके बीच में भारत-चीन युद्ध, भारत-पाक युद्ध, करगिल युद्ध और 1991 के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था पर बढ़ता विश्वास। घटनाओं के इर्दगिर्द भारतीय राजनीति सरपट दौड़ लगा रही है। यदि भारत-पाक विभाजन न हुआ होता तो हमारे देश की अटूट साझी विरासत पर हमला न हुआ होता। यदि हमारे स बंध पड़ोसी देशों के प्रति विश्वसनीय व मित्रतापूर्ण होते तो चीन और पाकिस्तान हमारे पर परागत शत्रु न गिने जाते। आज हर भारतीय को मुसलमान और पाकिस्तान से नफरत करना सिखाया जाता है क्यों? क्योंकि भारतीय राजनीतिक पटल की बुनियाद ही विभाजन की चीख से आवाज पाती है। जब भी किसी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जनता की निगाहें टेढ़ी हुईं, वह जनता को मुद्दाविहीन बनाने की कोशिश में लग गई। 1962 में जब संविदा सरकारें बनीं तो कांग्रेस घबराई। फलस्वरूप राष्ट्रवादी झांसे में दो युद्ध थोप दिए गए। 1971 में जब इंदिरा जी की सरकार को खतरा हुआ तो आपातकाल लगा दिया गया। एक भयंकर पागलपन जिसका जवाब जनता ने दिया। गैरसरकार को अपदस्थ कर जनता ने नई सरकार चुनी। मगर इतिहास से न ही जनता ने सीखा और न ही जनता की रहनुमाई कर रहे राजनीतिक दलों ने। अभी आपातकाल झेले देश को अधिक दिन नहीं हुए थे कि पंजाबी धार्मिक भावनाएं जागृत हुईं। अलग खालिस्तान देश की मांग कुलाचे भरता गया। जिसकी गूंज में हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा जी की हत्या हुई। फिर भी हम नहीं माने और हजारों सिख मौत के घाट उतार दिए गए। अक्सर ज म जब हरे होते हैं तो उन पर मरहम लग जाने पर घाव ठीक हो जाता है। परंतु हम घाव खुला छोड़ देते हैं और सोचते हैं कि समय उनके घाव भर देता है। मगर नहीं वह नासूर बन जाता है। 1984 में जब इंदिरा जी की मृत्यु के पश्चात राजीव गांधी की सरकार बनी तो उन्होंने भी ऐतिहासिक भूल की। अपने पड़ोसी देश की समस्या समझे बिना सेना भेज दी। वह सेना तो कामयाब नहीं हुई मगर हमारे प्रधानमंत्री की श्रीलंकाई तमिल उग्रवादियों के हाथों मौत हो गई। हिंदुस्तान की राजनीति में फिर भी कोई उबाल नहीं आया।
शायद अब तक जनता को इन सब घटनाओं की आदत पड़ चुकी थी। 1988 में बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार आरक्षण मुद्दे पर घिरी नजर आई। पूरे देश में व्यापक दंगों ने और विरोध ने उन्हें अलोकप्रिय बना दिया जबकि इस सरकार ने पहली बार हि मत का काम किया था। मगर यह निर्णय तुगलक के दिल्ली से दौलताबाद जाने की याद दिलाता है। इन सब निर्णयों के पीछे चाहे शासन की जितनी भी सदइच्छाएं हों मगर वह जनता को जागरूक किए बिना कोई परिणाम नहीं निकाल सकते। एक जनप्रतिनिधि हमेशा जनता की भावना का प्रतीक नहीं होता है। जनप्रतिनिधि चयनित हो जाने के बाद अगर चाहे तो जनभावना समझे चाहे नहीं। यही कमजोरी हमारी लोकतांत्रिक पर परा के शासन को कमजोर करती है। अपनी ऐतिहासिक भूल के बावजूद लोकतांत्रिक दल बीते दो दशकों में और अराजक हो गए हैं। वह अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ तो रहे हैं मगर उनमें इतिहास की रत्ती भर जानकारी नहीं है। शायद इसीलिए 1991 में देश को बिना सशक्त व आत्मनिर्भर किए उदारवाद अपनाया गया। 1972 में हमारी एकता और साझी विरासत के प्रतीक बाबरी मçस्जद को गिराया गया। इन दो घटनाओं ने नब्बे के पहले वाली सभी घटनाओं पर पदाü डाल दिया। इनके कारण विभाजन दर विभाजन दर विस्थापन दर विस्थापन बढ़ गया है। हिंदू और मुस्लिमों के अपने-अपने दल व मुल्क बन गए हैं। शहर और गांव की सड़कें तो मिलीं मगर जीवन स्तर में ल बा फासला हो गया।
जहां गांव का व्यçक्त अब भी मिट््टी की महक बनाए रखने की कोशिश कर रहा है वहीं शहर में भागम-भाग बेहतर धन की कमाई में आम आदमी लगा हुआ है। आम आदमी की पहचान कहीं गुम हो गई है। हम दंगे में पीçड़त मुस्लिम को आम आदमी कहें, झुग्गी बस्ती में गरीबी और अत्याचार से जूझते परिवार को आम आदमी कहें या गांव में मर रहे किसान को आम आदमी कहें, एक दलित महिला जो दबंगों के बलात्कार का शिकार है उसे आम आदमी कहें। नहीं हमारा आम आदमी कहीं खो गया है। वह काफी विकृत अवस्था में है। उसका वह स्वरूप साठ सालों में किसी ने नहीं समझा जब हमारे पास रोटी की समस्या थी तो आपने हमें अनावश्यक युद्ध में उलझाया। जब हमारे पास मकान की समस्या आई तो मंदिर के नाम पर हमसे इस देश में आग लगवाई गई। जब कपड़ों की बात आई तो हाथ में कटोरा देकर भिखाई की तरह विश्व बाजार में खड़ा कर दिया गया। आपके इन मंसूबों ने अब हमारा सीना छलनी कर दिया है। अब देखते हैं कि आप उस आम आदमी के मुद््दे के साथ थे या नहीं। आप इतिहास के मंडल, कमंडल या खलमंडल के भूत से दूर भागे या नहीं। दो जून की रोटी, दवाई, रोजगार व विकास को महसूस किया या नहीं। लोकतांत्रिक महासंग्राम के बाद उन सबका स्वागत हो जो इतिहास से सीखकर वर्तमान में रहते हुए भविष्य पर निगाह टिकाए रखें। जो आम आदमी की पहचान बता सकें।

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