23 जून 2009

देश के 7 करोड़ 20 लाख बच्चे कहां हैं ?

शिरीष खरे, मुंबई से
2001 की जनगणना के आकड़ों के जोड़-घटाने से यह सवाल उभरा है। पहले आकड़े के मुताबिक 8 करोड़ 50 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते। दूसरे आकड़े में 5 से 14 साल के 1 करोड़ 30 लाख बच्चे मजदूर हैं। अगर 8 करोड़ 50 लाख में से 1 करोड़ 30 लाख घटा दो तो 7 करोड़ 20 लाख बचते हैं। यह उन बच्चों की संख्या है जो न छात्र हैं, न ही मजदूर। तो फिर यह क्या हैं, कहां हैं और कैसे हैं- इसका हिसाब भी किसी किताब या रिकार्ड में नहीं मिलता।
इस 7 करोड़ 20 लाख के आकड़े में 14 से 18 साल तक के बच्चे नहीं जोड़े गए हैं। अगर इन्हें भी जोड़ दो तो देश के बच्चों की हालत बेहद दुबली नजर आएगी। देखा जाए तो भारत में बच्चों की उम्र को लेकर अलग-अलग परिभाषाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में बच्चों की उम्र 0 से 18 साल रखी गई है। भारत में बच्चों के उम्र की सीमा 14 साल ही है। लेकिन अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र बदलती जाती है। जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए 21 साल और लड़की के लिए 18 साल की उम्र तय की गई है। खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की उम्र 18 साल है। इसी तरह शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है। इससे 6 से कम और 14 से अधिक उम्र वालों के लिए शिक्षा का बुनियादी हक नहीं मिल सकेगा।
इस तथ्य को 2001 की जनगणना के उस आकड़े से जोड़कर देखना चाहिए जिसमें 5 साल से कम उम्र के 6 लाख बच्चे घरेलू कामकाज में उलझे हुए हैं। कानून के ऐसे भेदभाव से अशिक्षा और बाल मजदूरी की समस्याएं उलझती जाती हैं। सरकारी नीति और योजनाओं में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है। 14 साल तक के बच्चे ‘युवा-कल्याण’ मंत्रालय के अधीन रहते हैं। लेकिन 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है। किशोर बच्चों की हालत भी बहुत खराब है। 2001 की जनगणना में किशोर बच्चों की संख्या 22 करोड़ 50 लाख है। यह कुल जनसंख्या का 22 प्रतिशत हिस्सा है। इसमें भी 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियां हैं। यह सिर्फ संख्या का अंतर नहीं है, असमानता और लैंगिक-भेदभाव का भी अंतर है।
2001 की जनगणना में 0 से 5 साल की उम्र वालों का लिंग-अनुपात 1000:879 है। जबकि 15 से 19 साल वालों में यह 1000:858 है। जिस उम्र में लिंग-अनुपात सबसे खराब है उसके लिए अलग से कोई रणनीति बननी थी। लेकिन उम्र की जरूरत और समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है। बात साफ है कि बच्चियां जैसे-जैसे किशोरियां बन रही हैं, उनकी हालत बद से बदतर हो रही है। देखा जाए तो बालिका शिशु बाल-विभाग, महिला व बाल-विकास के अधीन आता है। लेकिन एक किशोरी न तो बच्ची है न ही औरत। इसलिए उसके लिए कोई विभाग या मंत्रालय जिम्मेदार नहीं होता। इसलिए देश की किशोरियों को सबसे ज्यादा उपेक्षा सहनी पड़ती है।
एक किशोरी की पहचान न उभर पाने के पीछे उसकी कमजोरी नहीं बल्कि समाज में मौजूद धारणाएं हैं। लड़की के जन्म के बाद ही उसे बहिन, पत्नी और मां के दायरों से बांध दिया जाता हैं। उसे शुरूआत से ही ‘समझौते’ की शिक्षा दी जाने लगती है। किशोरियों को घरेलू काम, कम उम्र में शादी और मां बनने की जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। इसलिए 6 से 14 साल के सभी बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाने के बावजूद 51 प्रतिशत लड़कियां आठवीं तक पढ़ाई छोड़ देती हैं। ‘लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए’- इस तरह की बातें उसके जीने, सुरक्षा, विकास और भागीदारिता की राह में बाधा पैदा करती हैं। इस उपेक्षित समूह को उनकी मनमर्जी से जीने की आजादी का इंतजार है। इससे उनके जीवन में स्थायी बदलाव आ सकेगा। फिलहाल ऐसे लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।
उपेक्षित समूहों के साथ होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए दोहरे मापदण्डों से बचना होगा। इसके लिए शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की परिभाषा 0 से 18 साल तक की जाए। हरेक बच्चे के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का हक मिले। सरकार को बच्चों के स्वास्थ्य की जवाबदारी भी लेनी होगी। इसके लिए वह बच्चों की शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 7 प्रतिशत खर्च करे। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के मुताबिक बाल अधिकारों का दायरा बढ़ाया जाए। बाल-मजदूरी अधिनियम, 1986 को संशोधित करते हुए बच्चों को खतरनाक और गैर-खतरनाक कामों से रोकना होगा। योजनाएं बनाते समय बच्चों की उम्र, लिंग और वर्ग का ध्यान भी रखा जाए। राष्ट्रीय नीति के बुनियादी सिद्धांत में बराबरी की गांरटी हो। बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से बनाये गए मंत्रालयों के पास काम की स्पष्ट रुपरेखा हो।
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