22 जून 2009

पत्रकारिता और मोनालिसा !

शाहनवाज आलम

वह बलिया का ऐतिहासिक बापू भवन था। वहीं पर १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जब बलिया चित्तू पांण्डेय के नेतृत्व में १४ दिनों के लिए आजाद हुआ था, उसकी घोषण हुयी थी। आज इसकी दिवारों पर उस दौर के सभी बड़े नेताओं जैसे महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राजेन्द्र प्रसाद आदि की तस्वीरें लगी हैं। इसलिए बापू भवन में होने वाले हर कार्यक्रम को उसका आयोजक ऐतिहासिक ही बताता है। फिर वो चाहे निरहुआ और मनोज तिवारी के द्विअर्थी गानांे का कार्यक्रम ही क्यों न हो। दरअसल ऐतिहासिक महापुरूषों के फोटो के नीचे कोई भी धतकरम करिए इतना संदेह का लाभ तो मिल ही जाता है।
पिछले दिनों मुझे भी एक ऐसे ही ’ऐतिहासिक कार्यक्रम’ का चश्मदीद गवाह बनने का मौका मिला। जब हिन्दी के पहले अखबार उदान्ड मार्तंड की जयंती पर प्रेस क्लब की तरफ से एक गोष्ठी आयोजित हुई। गोष्ठी के विधिवत शुरुआत से पहले संचालक महोदय ने आयोजन के ऐतिहासिकता के प्रमाण गिनाए। उनके मुताबिक मंच पर उपस्थित सारे लोग जिनमें जिले के डीएम, एसपी, सांसद और पत्रकार आदि थे, उनमंे दीवारों पर टंगे महापुरुषों के असली वारिस होने के गुणों को देखते हुए ही गोष्ठी का आयोजन इस ऐतिहासिक भवन में किया जा रहा था। चूंकि हमारे यहां इतिहास पर भी कोई सार्थक और गम्भीर बहस के बजाए उसे एक त्योहार के बतौर मनाने की परम्परा है इसलिए वक्ताओं ने एक दूसरे पर जश्न के अबीर गुलाल उड़ाते हुए कार्यक्रम को शुरू किया।
माइक पर आने वाले हर वक्ता ने सबसे पहले एसपी और सांसद को हाजि+र नाजि+र मान कर अपने पूर्ववर्ती वक्ताओं- शर्मा जी, पाण्डेय जी, तिवारी जी की महानता के चूटकुले सुनाए और अपने बाद आने वालों के ऐतिहासिक और महान प्रवित्तियों के ट्रेलर दिखाए। हालांकि अवसर, उसकी ऐतिहासिकता और पत्रकारिता के प्रति अपनी ‘आस्था’ के चलते उन्होंने अपने ‘उद्गारों’ को पत्रकारिता दिवस जिंदाबाद और पत्रकारिता अमर रहे जैसे भावों वाले जुमलों के साथ समाप्त किया। ऐसा लग रहा था जैसे पत्रकारिता नाम के किसी महान विभूति जिन्होंने बहुत कुछ करना चाहा था लेकिन जिनकी अकाल मृत्यु हो गई थी उनकी पुण्य तिथि मनाई जा रही है। मैं सोच रहा था कि इस पूरे प्रकरण पर आनंदित हुआ जाय या निराश। क्योंकि मेरे पास दोनों के ही तर्क थे। पहले के लिए ये कि इस भयंकर गर्मी में टीवी पर मनोरंजननुमा खबरें सुनने से तो यह ज्यादा मजेदार है ही। दूसरी ओर पत्रकारिता के गलीज में तब्दील होने पर दुख भी हो रहा था। तय नहीं कर पा रहा था कि मन को किस पाले में रखूं।
बहरहाल, उस हाल में तीव्र गति से बह रही इतिहास की धारा में अचानक एक चट्टान के आ जाने से स्थिरता आ गई। हालांकि यह स्थिरता भी वहां घट रही ऐतिहासिक घटनाओं का ही एक हिस्सा थी। हुआ यूं कि हाल में अचानक लगभग सवा-डेढ़ कुंतल के एक सफेद पोश आदमी का आगमन हुआ जिसे चारों तरफ से कुछ ; उसकी तुलना मेंद्ध कुपोषित युवक घेरे हुए थे। जो संभवत: उसके चेले-चपाटे थे। वे आए और अग्रिम पंक्ति में बैठ गए। संचालक ने, जिनके बारे में मैं अन्य वक्ताओं से जान चुका था कि वे ‘प्रखर’ पत्रकार हैं, घोषणा की कि ‘अभी तक इंसानों ने ही मंचासीनों को माला पहनाया लेकिन इस ऐतिहासिक भवन में अब हम एक जानवर से माल्यार्पण कराने जा रहे हैं।’ संचालक महोदय की इस बात से सन्नाटा और कौतूहल का माहौल बन ही रहा था कि उसे चीरते हुए अचानक वह व्यक्ति उठा और मंच पर बैठे लोगों को माला पहनाते और मुस्कुराते हुए तस्वीरें खिचवाने लगा। बगल में बैठे लोगों से पता चला कि वे पड़ोसी जिले गाजीपुर के भूमाफिया हैं और उनका उपनाम टाइगर है। जो गाजीपुर के दो विधानसभा क्षेत्रों के अब बलिया सदर लोकसभा सीट का हिस्सा बन जाने से इधर भी पाए जाने लगे हैं। किसी नए क्षेत्र में अपनी राजनैतिक उपस्थिति दर्ज कराने के लिए उन्हें शायद पत्रकारिता दिवस से ज्यादा सटीक और कोई मौका नहीं लगा होगा।
गोष्ठी अपने चरम की ओर अग्रसर थी। जिसे स्थानीय एसपी साहब ने भी संबोधित किया। जिन्होंने कुल जमा बस यही उपदेसियाया कि समाचार का संधि विच्छेद सम धन आचरण होता है। इसलिए जो सम धन आचरण करता है वही पत्रकार है। उनके श्रीमुख से निकले इन आप्त वचनों ने तालियों की गड़गड़ाहट शुरु कर दी। उन्होंने माइक का गला छोड़ने से पहले पत्रकारों को हर तरह से सहयोग देने का वादा करते हुए अपनी वाणी को विराम दिया। इसके बाद बारी थी शहर के वर्तमान ‘गौरव’ और सांसद की जो कुछ दिनों पहले ही यहां के पूर्व ‘गौरव’ और सांसद पिता के दिवंगत होने के बाद उनके स्थानापन्न बने। उन्होंने भी पता नहीं क्या छोड़ा लेकिन खूब तालियां पायीं।
बहरहाल इस ऐतिहासिक गोष्ठी की समाप्ति के बाद मैं फिर उसी सवाल पर लौट आया कि मुझे हंसना चाहिए या रोना। लेकिन बहुत माथा-पच्ची के बाद मुझे लगा कि पत्रकारिता की मौजूदा हालत पर मोनालिसा की आधी रोती-आधी मुस्कुराती मुद्रा ही अख्तियार करना ज्यादा बेहतर होगा।
(जनसत्ता में प्रकाशित)

7 टिप्‍पणियां:

Omprakash pal ने कहा…

Mjboori ka nam Mahatma Gandhi to suna tha,lekin aaj pta chla ki aise anirnay ki pristhiti me "Monalissa" se bhi kam chlaya ja skta hai.
kehan aisi gosthiyon ke chakkr me fs jate ho tum.

aaj-kl baliya me hi ho kya ?

anurag shukla ने कहा…

bahut badiya

राजेश अग्रवाल ने कहा…

अक्सर अफ़सरों की मौज़ूदगी में ऐसे कार्यक्रमों की मैंने भी आपकी तरह शोभा बढ़ाई है. साफ बात की है. बधाई.
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राजेश अग्रवाल

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