03 जुलाई 2009

ऐसे तो नहीं आयेगी लैंगिग समानता

शाहनवाज आलम

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्देश में बोर्ड से सम्बद्ध शहरी स्कूलों में सहशिक्षा पर रोक लगा दिया है। हालांकि उसने गांव में जहां लड़कियों के स्कूल आठ किलो मीटर से अधिक दूर हंै वहां सहशिक्षा की छूट दी है। इसके पीछे उसका तर्क है कि अगर शहरों में तत्काल प्रभाव से सहशिक्षा पर रोक नहीं लगाई गयी तो भविष्य में इससे गंभीर संकट उत्पन्न हो सकते हैं। इस फैसले ने जहां एक ओर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड जैसे सरकारी संस्थाओं के वैचारिक दिवालियेपन को उजागर कर दिया है तो वहीं इसके चलते लैंगिक समानता वाले समाज निर्माण के संवैधानिक उद्देश्य को भी पलीता लगा दिया है।
गौरतलब है कि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का सहशिक्षा के प्रति यह रवैया नया नहीं है और उसने पहले भी इस मुद्दे पर अपनी कूपमंडूकता प्रदर्शित की है। खास तौर पर 1997 में जब सूबे में भाजपा का शासन था, तब उसने ऐसा ही तुगलकी फरमान जारी कर सहशिक्षा पर रोक लगायी थी। लेकिन उस समय इसे संघ परिवार के सांस्कृतिक एजेंडे के बतौर ही देखा गया और यह उम्मीद जतायी गयी की आने वाली गैर भाजपाई सरकारें इस संघी करतूत पर रोक लगा देंगी। लेकिन इस बार प्रदेश में एक महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद अगर बोर्ड ऐसे फैसले लेता है तो सरकार के नजरिये पर भी सवालिया निशान उठना लाजिमी है।
बहरहाल, इस पूरे मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू इस फरमान के पीछे का यह तर्क है कि अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो सामाजिक संकट उत्पन्न हो जाएगा। यहां यह समझना मुश्किल नहीं है कि माध्यमिक बोर्ड यहां आए दिन होने वाली छेड़खानी और बलात्कार जैसी घटनाओं को गंभीर संकट मान रहा है। जो बिल्कुल ठीक भी है। लेकिन बोर्ड जिस तरह इस समस्या के इलाज के लिए सहशिक्षा पर प्रतिबंध लगा रहा है उससे यह समस्या हल नहीं हो सकती। बल्कि बीमारी और बढ़ेगी ही। क्योंकि छेड़खानी और बलात्कार जैसी घटनाएं अधिकतर इस वजह से ही होती हैं कि हमारे यहां लड़के-लड़कियों के बीच स्वस्थ और स्वाभाविक सम्बंध नहीं है। जिसके चलते वे एक दूसरे कोे सीधे जानने-समझने के बजाय अप्रत्यक्ष माध्यमों जैसे फिल्मों या सुनी-सुनायी बातों से समझते हैं। अब हमारे यहां फिल्में लड़के-लड़कियों को विपरीत सेक्स के प्रति किस नजरियेे से देखने के लिए उकसाती हैं यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिए महिलाओं के प्रति यौन हिंसा को रोकने का सबसे वैज्ञानिक और स्वाभाविक तरीका उन्हें एक दूसरे के नजदीक लाना ही हो सकता है, दूर करना नहीं। दो सामाजिक समूहों को एक दूसरे से दूर करने से उत्पन्न मनोवृत्ति कितनी घातक होती है इसे हम दूसरे संदर्भों खासकर सांप्रदायिक दंगों के मामलों से समझ सकते हैं। जिसमें अक्सर हिंसा एक दूसरे के प्रति निराधार कल्पनाओं की बुनियाद पर ही शुरु होती है।
इस मामले को एक दूसरे नजरिये से भी देखना चाहिए। जब आप लड़के और लड़कियों के सहशिक्षा पर रोक लगातें हैं तो इसका अप्रत्यक्ष नुकसान लड़कियों को ही उठाना पड़ता है। क्योंकि इस रोक के चलते एक ही परिवार के भाई-बहन अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने को मजबूर होते हैं। जिसके चलते लड़कों को तो अच्छे स्कूलों में दाखिला मिल जाता है लेकिन लड़कियों के स्कूलों की संख्या काफी कम होने या लड़कों के स्कूलों की अपेक्षा गुणवत्ताविहीन होने के चलते लड़कियां बेहतर शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। जिसके चलते उनमें धीरे-धीरे अवसाद और अपने ही घर में रहने वाले अपने भाई जिससे वो कहीं से भी कम नहीं होती के मुकाबले छले जाने की स्वाभाविक कुंठा पनपने लगती है। चूंकी शहरों में कैरियर का सपना और कम्पटीशन का दबाव बहुत ज्यादा होता है इसलिए लड़कियों की यह कुंठा कई बार आत्मघाती भी हो जाती है।
अक्सर तो यह भी देखने को मिलता है कि यदि बहन लड़कियों के स्कूल में अच्छे नंबर पाती है और भाई लड़कों के स्कूल में दूसरों से कम नंबर पाता है तो भी भाई को ही बहन की अपेक्षा पढ़ाकू और तेज मानकर उसे ही आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। क्योंकि लड़कियों की प्रतिभा को लड़कों के बरअक्स ही मापने की हमारे यहां परंपरा है। इस प्रतिबंध से यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही। इसलिए माध्यमिक बोर्ड के इस फैसले का हमारे सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं और उसमें एक लड़की की हैसियत पर नकारात्मक असर पड़ना तय है।
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