12 सितंबर 2009

इलाहबाद विश्वविद्यालय बना निजीकरण विरोधी छात्र आंदोलन का केंद्र

सविता वर्मा दैनिक भास्कर से
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चल रहे निजीकरण विरोधी आंदोलन पर पत्रकारों द्वारा सवाल पूछने पर कपिल सिब्बल की चुप्पी ने आंदोलन को और मुखर कर दिया है। इस आंदोलन के समर्थन में पूरे देश से समाजसेवी-बुद्धिजीवी समेत देश के कोने-कोने से छात्रों के प्रतिनिधि मंडल इलाहाबाद पहुंचने लगा हैं। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, अनिल चमड़िया, संदीप पांडे, सुभाषनी अली, सुभाष गताड़े समेत देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन का समर्थन करते हुए जल्द इलाहाबाद पहुंचने की बात कही है। तो वहीं बुंदेलखंड की गुलाबी गैंग की सम्पत पाल ने भी इस आंदोलन का समर्थन करते हुए शनिवार को विश्वविद्यालय पहुंचकर समर्थन देने का ऐलान किया है। यह आंदोलन तब भड़का जब विश्ववि़द्यालय में पत्रकारिता विभाग के समनांतर यूजीसी के मानदंडों को धता बताते हुए पत्रकारिता के एक और सेल्फ फाइनेंस कोर्स की शुरुआत कर दी गयी।

दस दिन से चल रहे इस आंदोलन ने विश्वविद्यालय प्रशासन की नींद हराम कर दी है। निजीकरण के सवाल पर बेजवाब हो चुके कुलपति प्रो0 आरजी हर्षे ने पहले तो आंदोलन को दबानेे के लिए पत्रकारिता विभाग के शिक्षक सुनील उमराव जो आंदोलन में छात्रों के हमकदम हैं को नोटिस जारी किया। पर कभी गुलाब के फूल बांट कर तो कभी गुब्बारे लेकर चल रहे रचनात्मक आंदोलन की लोकप्रियता के चलते जब विश्वविद्यालय प्रशासन आंदोलन को रोक नहीं पाया तो उसने इस आंदोलन से उपजे छात्रसंघ की मांग करने वाले आंदोलन का दमन कर पूरे कैंपस को संगीनों की छावनी में तब्दील कर दिया। पिछले तीन दिनों से जहां भी प्रतिरोध हो रहा छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है और जेलों में ठूंसा जा रहा है। पर पत्रकारिता विभाग के छात्रों को शहर के बुद्धिजीवियों और छात्रों से मिल रहे सहयोग के कारण विश्वविद्यालय प्रशासन को उनकी आवाज दबाना महंगा लग रहा है। क्योंकि छात्र ‘सवाल पूछते रहो’ अभियान के तहत हर दिन विश्वविद्यालय प्रशासन से तीन सवाल पूछ रहे हैं जिससे आगे चलकर विश्वविद्यालय प्रशासन का काला चिट्ठा सामने आ जाएगा।

विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए नया शुरु हुआ सेल्फ फाइनेंस कोर्स बीए इन मीडिया स्टडीज गले की हड्डी बन गया है। क्योंकि अगर वह अपने काले चिट्ठों को छिपाने के लिए कोर्स को वापस ले लेता है तो विश्वविद्यालय में चल रहे दर्जन भर सेल्फफाइनेंस कोर्सों पर सवाल उठ जाएगा। अगर इसे जारी रखता है तो आंदोलन पूरा काला चिट्ठा सबके ला देगा। इन सवालों से बचने के लिए कुलपति छुट्टी के बहाने इलाहाबाद से बाहर चले गए है। जहां एक ओर कुलपति इसे दो विभागों का झगड़ा बताकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालय के सूत्रों के अनुसार सेल्फफाइनेंस कोर्स चलाने के लिए जिस सेंटर की स्थापना की गयी है वो विश्वविद्यालय के संसद द्वारा पारित अधिनियम में ही अस्तित्वहीन है। फिर ऐसे में विभागों का झगड़ा कह विश्वविद्यालय प्रशासन अपने ही नियम कानूनों को धता कर निजीकरण की बयार में बहता नजर आ रहा है। बात इतनी ही नहीं है किसी भी नए कोर्स को संचालित करने के लिए विद्वत परिषद के बाद कार्यपरिषद से स्वीकृत होना आवश्यक है।

पत्रकारिता विभाग के शिक्षक सुनील उमाराव बताते हैं कि जिस बीए इन मीडिया स्टडीज को शुरु किया जा रहा है उसी स्तर के कोर्स बीजेएमसी को 2005 में विश्वविद्यालय के केंद्रीय दर्जा पाने के बाद अवैध बता बंद कर दिया गया था। जिसके बाद एम इन मास कम्युनिकेशन कोर्स जो वर्तमान में चल रहा है को सेल्फफाइनेंस में चलाने का दबाव बनाया गया। इस संघर्ष में विद्वत परिषद से पास होने के बाद भी दो साल तक कार्यपरिषद से मंजूरी न मिलने के चलते विभाग बंद रहा। तब ऐसे में सवाल लाजिमी है कि कार्यपरिषद की मंजूरी के बगैर बीएइन मीडिया स्टडीज को कैसे शुरु किया जा सकता है। जिसका जिक्र्र विश्वविद्यालय की आधिकारिक वेब साइट में भी नहीं है। यहां यह भी जानना दिलचस्प होगा कि इस फर्जीवाड़े में शामिल लोगों ने विश्वविद्यालय की वेब साइट के इतर एक अलग वेब साइट बना रखी है जिसमें सेल्फफाइनेंस डिग्रियों की दुकानों की जानकारी दी गयी है, जबकि विश्वविद्यालय की साइट में इनका कोई जिक्र नहीं है।

इस नए कोर्स की रुपरेखा तय कर विद्वत परिषद के सामने प्रस्ताव रखने वाले धनंजय चोपड़ा जो प्रोफेशनल स्टडीज में ठेके पर रखे गए अध्यापक हैं पर भी सवाल उठ रहे हैं कि उन्हें किसने यह अधिकार दिया। विश्वविद्यालय की इस सेल्फफाइनेंसों की शतरंजी बिसात को नियंत्रित करने वाले प्रो0 जीके राय हैं। जिनके बारे में आइसा के सचिव सुनील मौर्या का कहना है कि वो 2002 में विश्वविद्यालय में सेल्फफाइनेंस कोर्सों के पैदा होने के बाद से ही वे अनवरत निदेशक पद पर काबिज हैं। जबकि 2005 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद 2007 में आए रोटेशन सिस्टम जिसे जनवरी 08 में लागू किया गया के तहत कोई भी प्रो0 दो साल तक ही विभागाध्यक्ष या डीन रह सकता है। जीके राय अपना स्पस्टीकरण देते हुए कहते हैं कि विद्वत परिषद में कोर्स पास होने के बाद आश्यक नहीं कि उसे कार्यकारिणी परिषद के समक्ष ले जाया जाय, उसे कुलपति जो कार्यकारिणी परिषद के अध्यक्ष हैं अपने विवेक से चलाने की मंजूरी दे सकते हैं।

यहां जानना बड़ा दिलचस्प होगा कि जिस तरह कुलपतियों के ‘विवेक’ पर जीके राय लंबे समय से बने हैं ठीक उनका कोर्स भी उसी फार्मूले के तहत है। पर यहां सवाल इसी पर उठता है कि बिना आधिकारिक व्यक्ति के इस कोर्स को कैसे विद्वत परिषद ने मंजूरी दे दी। हिंदी विभाग के प्रो0 सूर्यनारायण सिंह कहते हैं कि जिस बाजारु पत्रकारिता कोर्स की बात की जा रही है उसका पाठ्यक्रम पहले से चल रहे एमए इन मास काम्युनिकेशन से मिलता जुलता है। ऐसे में एक ही कोर्स के समानांतर दूसरा कोर्स यूजीसी के मानदंडों पर ही नहीं उतरता। इसे सिर्फ और सिर्फ धन्धा करने के लिए खोला जा रहा है क्योंकि अगर उसी पाठ्यक्रम के लिए छात्र मात्र 14 हजार रुपए देता है तो आखिर क्यों उसके लिए डेढ़ लाख रुपए वसूला जाएगा।

यहां गौरतलब है कि केंदीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद हर साल आ रहे पैसों को जब विश्वविद्यालय खर्च नहीं कर पा रहा है और पैसा वापस लौट जा रहा है तब क्यों संसाधनों का रोना रो कर सेल्फफाइनेंस कोर्सो को लाया जा रहा है। आंदोलन को स्वरुप राष्ट्रव्यापी हो गया है महत्मा गांधी अन्तर्राष्ट्री हिंदी विश्वविद्यालय, भारतीय जंनसंचार संस्थान नई दिल्ली, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय समेत देश भर के छात्रों का जल्द जमावड़ा हेगा इलाहाबाद में।

साथियों! अपने इस आन्दोलन की खबर को दैनिक भास्कर (12 सितम्बर,09) ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है.

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