राजीव यादव
गंगा-यमुना के उपजाऊ क्षेत्र पर बसे इलाहाबाद के दक्षिणी क्षेत्र की यह भौगोलिक विडंबना है कि वहां पठार हैं जो खनन के लिए भले ही सोना उगलने वाली खानें हैं पर चाहे वह सूखा हो या बरसात यहां के आदिवासियों के लिए कुपोषण और महामारी की खानें हैं। यूपी और मध्य प्रदेश की सरहद पर बसे कोरांव के महुली और बड़ोखर न्याय पंचायत के पचासों गांव हर साल इस त्रासदी के शिकार होते हैं। यह पूरा क्षेत्र पठारी ढलान पर बसा है जहां बरसात के दिनों में सिल्ट से भरे नाले उफना जाते हैं और पूरे क्षेत्र को जल मग्न कर देते हैं। बाद में पूरा क्षेत्र महामारी की चपेट में आ जाता है। तो वहीं सूखे के दिनों में यहां के लोगों को पानी के लिए तरसना पड़ता है। तालाब के बारे में पूछने पर महुली के रामदरस बताते हैं कि हमारे यहां तालाबों पर कभी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। वे सरकार को कोसते हुए कहते हैं ‘बाबू अगर इ नालन क सिल्ट निकलवा दी जाय त, बरसात के दिन में हम लोगन क जिंदगी नरक ना बनत।’ यहां के बुजुर्गों तक को याद नहीं है कि कभी नालों से सिल्ट निकाली गयी है।
नाले ही नहीं सिल्टिंग की शिकार यहां बहने वाली टोंस और बेलन नदियां भी हैं। अपने ऐतिहासिक नदी घाटी सभ्यता के लिए जानी जाने वाली बेलन आज इस क्षेत्र के लिए बरसात के दिनों में काल बन जाती है तो सूखे के दिनों में पानी के लिए तरसा देती है। टोंस के किनारे और ड्मनगंज के पठारों के किनारे बसे गांव भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं।
खदान मजदूर यूनियन के राधेश्याम यादव कहते हैं कि यमुना से मात्र बीस किलो मीटर की दूरी का क्षेत्र शंकरगढ़ सरकारी लापरवाही के चलते सूखा झेल रहा है। क्योंकि पड़ुवा प्रतापपुर से एक नहर निकाल कर सूखे से निपटा जा सकता था, जो सरकार का प्रपोजल भी था। पर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। 17 अप्रैल 09 से बंद चल रही बाघला नहर को पिछली 14 जुलाई को बारा क्षेत्र के किसानों की मांग पर चलाने की बात सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता जेपी वर्मा ने की थी। जबकि नहर को अधिक से अधिक जून महीने में चला देना चाहिए था, जिससे किसान समय से धान की बेहन तैयार कर लेते। जल संस्थान के इंजीनियर बीबी सिंह का अपना ही रोना है कि यमुना के घटते जल स्तर पर गंभीरता से कोई ठोस काम नहीं हो रहा है।
इस पूरे क्षेत्र में जो भी वैकल्पिक जल संसाधन है, अधिकतर पर सिलिका वाशिंग माफियाओं का कब्जा है। जो बिना किसी रोक-टोक के सिलिका की धुलाई के लिए यहां के तालाबों का इस्तेमाल करते हैं। शंकरगढ़ के गढ़वा किले के तालाब में सिलिका की सफाई होने से पानी प्रदूषित हो गया है। इस पूरे क्षेत्र में पानी में आर्सेनिक की मात्रा अत्याधिक है। आदिवासी बाहुल्य यह पूरा क्षेत्र बेरोजगारी, कुपोषण और प्रदूषित पानी का भुक्तभोगी है। यहां पर हर साल सैकड़ो लोगों की मलेरिया और सिल्कोसिस से मौत हो जाती है।
जीबी पन्त संस्थान के समाज विज्ञानी डा0 सुनीत सिंह बताते हैं कि हमारे यहां जल संरक्षण पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। पुराने तालाबों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि पहले तालाब पानी की दिशा को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे पर आजकल जो तालाब बनाए जा रहे हैं वो निहायत अवैज्ञानिक और बेतरतीब ढंग के हैं। उनकी खुदाई का मकसद जल संरक्षण न होकर मुनाफा कमाना होता है, जिसके तहत जहां मन आया वहीं तालाब खोद दिया। डा0 सुनीत ने मेजा के कोहड़ार में किए एक प्रयोग के बारे में बताया कि वहां हमने पानी के बहाव की दिशा में मिट्टी का एक बांध बनाया जो जल संरक्षण करने में सफल रहा। उन्होंने बताया कि ऐसी कई जगहों जहां जल संरक्षित किया जा सकता है हम लोगों ने चिन्हित किया है जहां भविष्य में काम होगा।
गलत डे्नेज मैपिंग की वजह से कई पुराने तालाब अस्तित्व खो रहे हैं। प्रतापगढ़ से तेइस किलो मीटर दूर भदौना के धन्नीराम पुरुवा में तकरीबन तीन किलो मीटर के क्षेत्र में एक तालाब था। जिसमें मई-जून की गर्मियों में भी दो सौ वर्ग मीटर पानी रहता था। छह साल पहले मशीन से खुदाई कराकर तालाब से नाला निकाल दिया गया। इसके बाद की कहानी गंगा प्रसाद बड़ी झल्लाहट से बताते हैं ‘पहिले सींचे के खतिर मोटर उपरे लगाई देत रहेन, पर अब पानी नीचे चल जाए से दस-दस फुट क कुइंयां खोद के मोटर लगाए के पड़त बा अउर इ सब सरकार के नाला खोद देहस के कारण भय।’ गांव के लोग बताते हैं कि सरकारी अदूर्दशिता के चलते पानी का स्तर नीचे चला गया और अब उन्हें पम्पों को रिबोर करना पड़ रहा है, जिसमें बीस से पच्चीस हजार का बोझ उन पर पड़ रहा है।
प्रतापगढ़ में नगदी फसलों का चलन तेजी से बढ़ा है। लालगोपाल गंज के हरेराम मिश्रा और उनकी पत्नी रीना बताती हैं कि गांव में इधर धान-गेहंू न बोकर सूरजमुखी और पिपरमेंट जैसी फसलों की खेती की जा रही है पर नहर में समय से पानी न आने से फसल जल जा रही है, क्योंकि ये फसलें पानी और खाद पर ही टिकती हैं। शारदा सहायक नहरों का इस क्षेत्र में जाल है पर हाइब्रिड फसलों जिन्हें पानी की अत्याधिक जरुरत होती है उसको यह पूरा नहीं कर पा रही हैं।
वरिष्ठ कृषि अर्थशास्त्री कृपाशंकर इस पूरी समस्या के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार बताते हुए कहते हैं कि उदारीकरण के चलते जिस तरह हाइब्रिड बीजों को सरकार ले आयी है यह सब उसी की देन है। वे पिछले बीस सालों में जबसे ये नीतियां लागू हुयीं हैं, उंगलियों पर गिन करके उन तालााबों और प्राकृतिक जल स्रोतों का आकड़ा बताते हुए कहते हैं कि जब तक हमारी परंपरागत कृषि व्यवस्था थी हमारे किसान इससे भी बुरे सूखे में भी भुखमरी और आत्महत्या के शिकार नहीं होते थे।
1 टिप्पणी:
vidambanayein sarkari hi hoti hai rajeev bhai
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