20 अक्तूबर 2009

मीडिया और आतंकवाद

राजीव यादव
‘आतंक मजहब के नाम पर कलंक’ इस पर मुझे या किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अक्सरहां यह देखने को मिलता है कि जिहादी आंतंकवाद या मजहबी आतंकवाद जैसी शब्दावली का इस्तेमाल हमारी मीडिया धड़ल्ले से करती है। जबकी हिंदी माध्यम की मीडिया के लिए धार्मिक आतंकवाद लिखना भाषाई स्तर पर ज्यादा अनूकूल है।
इस पर गौर किया जाय कि ये शब्दावली जो मीडिया खासतौर पर आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में प्रयोग करती है कहां से आयी तो इसमें देर नहीं लगेगी कि ये शब्दावली हिंदुत्ववादियों की शब्दावली है। इसी तरह के एक शब्द का प्रयोग पिछले दिनों देश में हुए धमाकों के बाद हुआ-आजमगढ़ नहीं आतंकगढ़। ऊपरी तौर से देखने पर भले ही यह मीडिया की तुकबंदी लगे। पर यह तुकबंदी नहीं बल्कि प्रयोजित तरीके से पिछले एक दशक से चल रहे पूर्वांचल के सांप्रदायिक प्रयोगों की शब्दावली है। 13 सितंबर 2004 को पहली बार, यूपी सरकार के पूर्वांचल के अपराधियों और माफियाओं की सूची मंे प्रथम स्थान को ‘सुशोभित’ करने वाले गोरखपुर के सांसद ‘योगी’ आदित्यनाथ ने आजमगढ़ को आतंकगढ़ कहते हुए हिन्दू गतिविधियों का केन्द्र बनाने की बात कही थी। आज उस अभियान को मीडिया चला रही है। हिंदू गतिविधयों की जगह अगर किसी ने इस्लामिक गतिविधियों की बात कही होती तो मीडिया न जाने कहां के तार कहां जोड़ देता। गौर करने की बात है कि बीते लोकसभा चुनाव में आदित्यनाथ ने जो चुनावी विज्ञापन छपवाया उसमें लिखा था कि हिंदुत्व के लिए मजहबी आतंकवाद से लड़ेगे और हिंदुत्व व विकास के लिए वोट दें जैसी अपीलें की थीं। पहली बात तो ये कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने वाले योगी पर न ही चुनाव आयोग ने कोई कार्यवाई की न ही मीडिया ने इस मसले को उठाया। दूसरी कि पूरे विज्ञापन में सिर्फ मजहबी ही एक उर्दू शब्द का प्रयोग किया गया जिसे मीडिया भी करती है। तब सवाल उठता है कि अगर यहां धार्मिक आतंकवाद का प्रयोग किया जाय तो क्या होगा। दरअसल धार्मिक आतंकवाद को हमारे बहुसंख्यक समाज में मीडिया ने वैधता हासिल करवा दी है। यहां मीडिया यह कहना चाहती है कि मजहबी आतंकवाद जहां इस्लाम से जुड़ा है तो वहीं धार्मिक आतंकवाद हिंदू धर्म से जुड़ा है। यह ठीक उसी तरह होता है जैसे जब संघ और भाजपा कथित सेकुलर दलों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप लगाते हैं तो उसी की आड़ में वे हिंदुओं को अपने सांप्रदायिक वैचारिक परिधि में शामिल करते जाते हैं। पूरे पूर्वांचल में 15 वीं लोकसभा के चुनावों के दो-तीन साल पहले से ही हिंदू चेतना रैलियों का आयोजन किया जा रहा था जहां जेहाद से लड़ने के लिए धर्म युद्ध करने की अपील आदित्यनाथ किया करते थे।
2008 के अगस्त महीने में कानपुर में दो बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाते हुए मारे गए। बम की छमता इतनी तीव्र थी कि जिस मकान में बम बन रहा था वह उड़ गया था। शुरुवात में तो धमाके के बाद मीडिया चिल्लायी कि बब्बर खालसा आतंकी संगठन के लोग इसमंे जुडे़ हैं। मीडिया का यह कहने का एक मात्र आधार था कि धमाके में मरा एक व्यक्ति सिख था। जैसे ही बात बजरंग दल से जुड़ने लगी तो मीडिया ने चुप्पी साध ली और आतंकवाद से जुडी़ इस घटना को सामान्य किस्म की आपराधिक घटना के बतौर देखने लगी। हमने जब कानपुर के कई पत्रकारों से इस बाबत बात की तो सभी का एक ही सवाल था कि बजरंग दल तो आतंकी संगठन नहीं है या फिर ये कि हिंदुओं का आतंकी संगठन कहां है कि इसे हम आतंकी घटना लिखते। ‘पत्रकारों की निरीहता काफी जायज थी’ कुछ ने तो दबी जुबान से ये भी कहा कि हमनें हिंदुओं तो कुछ नहीं किया पर मुसलमान तो यहां अपने घरों में छोटी-छोटी तोपें रखें हैं जिससे वे कभी भी हमला कर सकते है। दरअसल मीडिया ने सिख हो या मुसलमान सबको लेकर जिस आतंकवाद का हौव्वा खड़ा किया है या उसकी खिलाफत करता है वह बहुसंख्क की मानसिकता है जिसे असुरक्षाबोध की राजनीति पर टिकाया गया है।
पूर्वांचल में इन दिनों यह नारा आम सा हो गया है कि यूपी गुजरात बनेगा, आजमगढ़ इतिहास रचेगा या गोरखपुर इतिहास रचेगा। इन नारों को लगाने वालों के राजनैतिक इतिहास और भविष्य के खाके से कोई पत्रकार वाकिफ नहीं होगा ऐसा नहीं लगता। पर जब वह ऐसी रिपोर्टिंग करता है तो उसकी भाषा में उठ रहे गौरव के ज्वार को आसानी से देखा व समझा जा सकता है। और उसकी ‘पीड़ा’ को भी। गुजरात में क्या हुआ था क्या इससे वह वाकिफ नहीं है और ये नारे लगाने वाले कौन हैं और किसके खिलाफ लगा रहे हैं और क्या यह सांप्रदायिकता नहीं फैला रहे हैं ऐसे कईयों सवाल यहां पत्रकारों की दिमागी हालत को बताने के लिए काफी है।
बहरहाल, जो भी हो आदमी कहां जाएगा सूचना पाना है तो अखबार तो देखना ही होगा। जिसका असर हर संप्रदाय के लोगों की मानसिकता पर अलग-अलग दिखेगा। 2008 के मध्य में हुए धमाकों के बाद एक महत्वपूर्ण बात हुयी की सहारा उर्दू ने आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में जो रिपोर्टिंग की उसे अपने ही पेपर में हिंदी और अंग्रजी भाषा में छापा। ऐसा नहीं था कि यह सहारा की कोई बदली हुयी पालिसी थी क्योंकि उसका हिंदी सहारा अन्य हिंदी अखबारों की तरह ही आतंकवाद को परोस रहा था। सहारा के दोनों भाषाओं के अखबारों की नीति पाठक नहीं गा्रहक संख्या बढ़ाने के लिए थी जिसमें वह सफल भी रहा। दूसरे यह एक ऐसे राष्ट्रवाद को गढ़ने की कोशिश है जिसमें एक भाषा के खिलाफ दूसरी भाषा को ढाल बनाया जा रहा है। जिसमें भारत का स्थानापन्न हिंदी है तो पाकिस्तान का स्थानापन्न उर्दू है। हाल में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान आजमगढ़ के दैनिक जागरण के ब्यूरो हरिशरण पंत से ‘बात करने का मौका मिला’ जो बात-बात में अपने प्रगतिशील होने की दुहायी देते है। मैंने एक खबर के विषय जब पूछा कि आज आपने फिर वही खबर क्यों छापी जिसे एक हफ्ते पहले छापी थी कि आजमगढ़ से दो लोगों को एसटीएफ ने उठाया और मैंने जब आप से पूछा था तो आपने बताया था कि उठाया था पर चाय पीने के बाद छोड़ दिया था। जिन लोगों को आपकी खबर के अनुसार उठाया गया था और जिन लोगों ने उठाया था दोनों के विषय में आपने कोई जानकारी न होने की बात भी कही थी। इस पर उन्होंने कहा कि हां तो क्या हुआ। इस पर मैंने जब कहा कि फालोअप अगर इस खबर का होगा तो यह होना चाहिए कि उन्हें एसटीएफ ने छोड़ दिया था। इस पर उन्होंने कहा कि यह सब चलता है। इसके बाद हमारे बीच जो संवाद हुए उसे मैं यहां नहीं बता सकता। पर पंत जी ने यह बात कई बार कही कि जब आजमगढ़ को आतंकियों का गढ़ दुनिया कह रही है तो फिर इस पर आपको क्या एतराज।
आजमगढ़ के तीन-चार साल के समाचारों की कतरनों में इस पत्रकार ने इन सुर्खियों का एक ही नहीं कई बार दोहरा-दोहरा कर प्रयोग किया-‘आतंकियों से पुराना रिश्ता है आजमगढ़ का’ या ‘आजमगढ़ का पुराना रिश्ता है आतंकियों से’ या ‘आईबी की सक्रियता बढ़ी’ हो या फिर ‘एसटीएफ ने युवकों को उठाया’। ये खबरें आसानी से प्रादेशिक और राष्ट्रीय पृष्ठों पर स्थान पा जाती हैं क्योंकि इनका एक बड़ा मार्केट होता है।
शायद आजमगढ़ पर हो रही बात पर ज्ञानशील और प्रगतिशील खेमों के कुछ साथी सहमत न हों। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि जब आजमगढ़ के अबुल बसर को 14 अगस्त 08 को एसटीएफ ने आपराधिक तरीके से आजमगढ़ से उठाकर 16 अगस्त को लखनऊ से दिखाया तो कई मानवाधिकार संगठनों और राजनैतिक पार्टियों ने एसटीएफ की कार्य शैली पर सवाल उठाया। इस बीच 27 अगस्त 08 को अमर उजाला में प्रगतिशील खेमें के असगर वजाहत ने यह कहते हुए चिंता व्यक्त की कि आतंकवाद पर यह नरमी भारी पडे़गी। यहां याद करना चाहिए कि जब बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर में मारे गए लोगों की जांच व उनके पोस्ट मार्टम रिपोर्ट को जारी करने की बात की जा रहीे थी तो ठीक ऐसे ही भावनात्मक तर्क दिल्ली पुलिस के पास थे। आतंकवाद के नाम पर हो रहे आजमगढ़ के मुस्लिम युवकों के मानवाधिकार उत्पीड़न के खिलाफ उठने वाली आवाजों को देश द्रोही की संज्ञा देने वाले असगर वजाहत साठ वर्षीय लोकतंत्र के वो संजीदा मुसलमान है जिन्हें अपने को बार-बार राष्ट्रवादी घोषित करने का दौरा पड़ता है। जैसाकि साजिद रशीद को। ऐसा नहीं था कि यह प्रवृत्ति सिर्फ सेक्युलर समझने जाने वाले व्यक्तियों में ही दिखी बल्कि द हिंदू जैसा अखबार जो पत्रकारिता की दुनिया में प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता का ब्रांड समझा जाता है ने भी अपने रिपोर्टर प्रवीण स्वामी के माध्यम से आईबी और सरकारी नजरिये से सांप्रदायिक और काल्पनिक खबरें छापीं।
बहरहाल ऐसे लोगों के ज्ञान कोष को बढ़ाने कि लिए कि आजमगढ़ कैसे बनाया जाता है इलाहाबाद की कई घटनांए काफी महत्वपूर्ण हैं। अक्टूबर 08 के महीने में जब आजमगढ़ सुर्खियों में था इलाहाबाद के बारे में दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर छपी की 67 आजमगढ़ के लोगों को इलाहाबाद से गिरफ्तार किया गया। खबर की पुष्टी के लिए जब हमने उस पुलिस अधिकारी से बात की जिसका बयान था तो उसने इस बात से साफ इन्कार कर दिया तो वहीं आईएनएस न्यूज एजेंसी जिसके मारफत खबर छपी थी के पत्रकार दर्शन देसाई ने यह कहते हुए इस संबंध में बात करने से इंकार कर दिया कि ‘आपके पास पूछने की क्या अथारिटी’ है।
यहां पर दर्शन देसाई का परिचय देना जरुरी हो जाता है क्योंकि इनका गुजरात की सांप्रदायिकता पर गहन अध्ययन है जिसका पता हमें तब चला जब हमने एक पाठक की क्या अथारिटी होती है इस बात को समझाने के लिए टेलीफोनिक कैंपेन चलाया। इन्होंने हर उस शक्स से जिसने इन्हें फोन करके खबर के बारे में पूछा तो इन्होंने कहा कि मैं सांप्रदायिक व्यक्ति नहीं हूं और मैंने गुजरात पर रिशर्च किया है। यहां इस बात पर गौर करना होगा कि आखिर वो पत्रकार जो कैसे गुजरात बनाया गया उस पर अध्ययन किया हो वह कैसे दूसरे गुजरात के बनाने की तैयारी में सहायक बन जाता है।
ऐसा आसानी से इसलिए हो जाता है कि सांप्रदायिकता और आतंकवाद दोनों को अलग-अलग नजिरिये से देखा जाता है। सांप्रदायिकता पर वे मानते हैं कि यह किसी भी संप्रदाय विशेष के लोगों में हो सकती है। पर आतंकवाद पर उनके ऐसे विचार नहीं हैं। हमारे देश में दो दशक पहले तक सीआईए, मोसाद जैसी विदेशी एजेंसियों के साथ हमारी एजेंसियां काम करेंगी ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था। पर उदारीकरण की नीतियों के साथ ही इन एजेंसियों को वैधता हासिल होती गयी जिसका परिणाम हुआ कि हमारी एजेंसियों की कार्यशैली ही नहीं मानसिकता भी बदलती गयी। इसी दरम्यान हमारी मीडिया में भी भारी पैमाने पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ जिसके चलते मीडिया समूहों की मानसिकता के अनुरुप पत्रकारों की भी सोच बदली। आज हमारे पत्रकार आतंकवाद को अमेरिकी मानसिकता के चश्में से ही देखते हैं। 28 जुलाई 08 को अमर उजाला में गोविंद सिंह का लेख ‘आतंकवाद के आगे हम असहाय क्यों?’ छपा। जिसमें उन्होंने कहा कि काश, हमारी खूफिया एजेंसियां मोसाद से और हमारे राजनेता गोल्डा माएर से कुछ सीख लेते। गोल्डा माएर इस्राइल की वो प्रधानमंत्री थीं जिन्होंने मोसाद के जरिये आपरेशन राॅथ आॅफ गाॅड और स्प्रिंग आॅफ यूथ जैसे मानव विरोधी अभियान अपने विरोधियों को मारने के नाम पर चलाया। जिसके तहत उन्होंने अपै्रल 1973 में लेबनान की राजधानी बेरुत में हमला किया जिसमें निर्दोष मारे गए ठीक अमेरिका की तरह जैसे उसने लादेन के नाम पर अफगानिस्तान पर हमला किया था। राॅथ आॅफ गाड के बहाने इस्राइल यहूदियों और फिलिस्तीनियों के सघर्ष को यहूदी बनाम इस्लाम बनाना चाहता था ठीक उसी तरह यहां आतंकवसद को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाकर धर्म युद्ध की बात कही जा रही है। गोविंद सिंह यहां तक कहते हैं ‘हम यह नहीं कहते हमें भी रातोंरात यहूदियों की तरह हो जाना चाहिए।’ वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि आज के मानवाधिकारी युग में वैसी तरकीबें सफल नहीं होंगी। ‘लेकिन हमें यह भी सोचना है कि हम कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे। सवाल भावना का है।’ पिछले दिनों दिल्ली जैसी जगह पर बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद यह सवाल उठा कि जिस तरह से मासूम बच्चों की ‘टारगेटेड किलिंग’ की गयी वो कार्यशैली हमारी सुरक्षा की एजेंसियों की न थी। दूसरा आज जो आतंक का माहौल बनाया जा रहा है वह किसके लिए बाजार उपलब्ध करा रहा है तो इसमें कोई शक नहीं कि वो अमेरिका, इस्राइल के लिए ही है। जितना असुरक्षाबोध होगा उतने सीसीटीवी कैमरे लगेंगे और उतने ही बम डिस्पोजल वैन की जरुरत पडे़गी जिसे हम इन्हीं से आयात करेंगे। 18 सितंबर को प्राइम टाइम में आज तक ने आज का सवाल में पूछा कि आतंकवाद से निपटने के लिए भारत को अमेरिकी माडल अपनाना चाहिए? जिस पर 92 प्रतिशत लोगों का उत्तर हां था और 2 का ना। यह सवाल काफी हद तक इस गुत्थी के लिए तथ्यों को मुहैया करता है कि हमारी सरकार ही नहीं हमारी मीडिया भी अमेरिकी परस्त है और वो उन्हीं क द्वारा संचालित है।
हमारे देश में पिछले दिनों हूजी नाम के एक बांग्लादेशी संगठन की चर्चा जोरों पर रहीं। यूपी की कचहरी में हुए धमाकों के बाद आफताब आलम अंसारी को हूजी का एरिया कमांडर बताते हुए डेढ़ सौ किलो आरडीएक्स के साथ उसे कोलकाता में गिरफ्तार किया गया। उसके बारे में बताया गया कि वह बांग्लादेश, अफगानिस्तान समेत कई देशों में ट्रेनिंग लिया है और संकट मोचन धमाकों सहित और कई धमाकों में वह रहा है। पर 22 दिनों के अंदर ही ये सभी तर्क झूठे निकले और वह बरी हो गया। अब सवाल उठता ह,ै जिस मीडिया ने अपने सूत्रों के माध्यम से ऐसी खोजी पत्रकारिता की थी उन पत्रकारों का क्या हुआ। इतना ही नहीं किसी ने भी यह सवाल तक नहीं उठाया कि आखिर पुलिस के पास इतना विस्फोटक कहां से आया।
23 नवंबर 2007 के यूपी की कचहरियों में हुए विस्फोटों के बाद बार एसोशिएसनों ने फतवे जारी किये कि आतंकवादियों का मुकदमा कोई वकील नहीं लड़ेगा। ऐसे में मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स ने व लखनऊ के वकील मो0 शोएब जब मुकदमों की पैरवी करने लगे तो जगह-जगह मो0 शोएब पर हमले हुए। इन हमलों को मीडिया ने यह कहकर वैधता देने की कोशिश की कि वे आतंकियों का मुकदमा लड़ रहे थे। 14 अगस्त 2008 को मो0 शोएब को उनके चेम्बर से खींच कर उनके शरीर के पूरे कपडे़ फाड़कर मारते पीटते हुए पूरे लखनऊ कचहरी में घुमाया गया और उनसे पाकिस्तान मुर्दाबाद, हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे लगवाए गए। दूसरे दिन दैनिक जागरण लिखता है कि शोएब भरी कचहरी में हिंदुस्तान मुर्दाबाद, पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे। मो0 शोएब का यहां यह परिचय है कि जिस आफताब को कोर्ट ने बरी किया उसका मुकदमा मो0 शोएब ने सभी फतवों को धता बताते हुए किया। वैसे मो0 शोएब समाजवादी युवजन सभा के लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे हैं और विधायकी का चुनाव भी लड़ चुके हैं। यहां गौर करने की बात है कि वकीलों पर हो रहे ये हमले एसटीएफ द्वारा प्रायोजित थे जिनके लिए मीडिया माहौल बना रही थी कि वलीउल्ला की जो कचहरियों में पिटाई हुयी उसी कारण से 23 नवंबर 07 को यूपी की कचहरियों में धमाके हुए। ऐसा इसलिए कि जब से मुकदमें कचहरियों में नहीं हो पाएंगे तो इन्हें जेल में अदालत लगा कर किया जाएगा। जहां वकील व आरोपी दोनों पर दबाव बनाया जा सकेगा। वलीउल्ला को एसटीएफ ने उसके घर फूलपुर इलाहाबाद से उठा कर 5 अप्रैल 06 को लखनऊ से भारी मात्रा में असलहों के साथ दिखाया। पर वलीउल्ला को जिस तरह मीडिया ने पेश किया उसने एसटीएफ पर उठ रहे सवालों को दबा दिया। 27 अगस्त 08 को वलीउल्लाह प्रकरण पर एक महत्वपूर्ण फैसला आया। जिस पर मीडिया ने कुछ ऐसे लिखा-‘आतंकी वलीउल्लाह को दस साल की कैद’,‘पुलिस से चूक न होती तो मिलता आजीवन कारावास’ में खबर ही यहीं से शुरु हुयी ‘बनारस सीरियल ब्लास्ट के मास्टर माइंड वलीउल्लाह को कम से कम आजीवन कारावास की सजा होती। लेकिन लखनऊ की गोसाइगंज पुलिस विवेचक की चूक के कारण उसे महज दस साल के साधारण कारावस की सजा हुयी।’ तो वहीं डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के अंबरीष श्रीवास्तव भी यहीं से खबर शुरु करते हैं ‘वाराणसी सीरियल बम ब्लास्ट कांड के मास्टर माइंड वलीउल्लाह के मामले में लचर विवेचना के कारण उसे साधारण कारावास की सजा सुनायी।’ और एक बाक्स लगाया कि लचर विवेचना से मिली कम सजा और जो मुस्कुराते हुए उसका फोटो लगाया उसके नीचे कैप्सन लगाया ‘वलीउल्लाह के चहरे पर कोई शिकन नहीं’ तो वहीं अमर उजाला ने लगाया कि ‘करतूर’ और उस पर लगाये जा रहे आरोपों की एक सूची बना दी। अमर उजाला ने पहले पृष्ठ की इस खबर में वलीउल्लाह की पुरानी पुलिसिया कहानी गायी गयी जिसकी कोई प्रासिंगकता ही नहीं बच गयी थी। तो वहीं असल खबर कोू पृष्ठ ग्यारह पर यह ठीकरा फोड़ते हुए छापा कि ‘लचर पैरवी से देश दे्राह से बचा वलीउल्लाह’ और इसमें भी पत्रकार ने अपने बिरादाराना पत्रकारों के स्वर में स्वर मिलाते हुए लिखा ‘आतंकी संगठन ‘हूजी’ के आतकी वलीउल्लाह के विरुद्ध मामले में अभियोजन की लचर पैरवी के कारण अदालत ने साक्ष्यों के आभाव में उसे भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने, युद्ध का प्रयत्न करने और दुष्प्रेरण की साजिश रचने जैसे गंभीर आरोंपों से बरी कर दिया।’ यहां यह सोचने की बात है कि जो अखबार आरक्षण और नर्मदा बचाओ जैसे मूलभूत सवालों पर अदालत के फैसले के खिलाफ एक लाइन लिखने को तैयार न थे वे आतंकवाद जैसे गंभीर मुदद्े पर अदालत के फैसले की अवमानना कैसे कर लेते हैं और उन पर कोइ अदालती कार्यवाई नहीं होती। इन खबरों का असर भी दूसरे दिन इन पेपरों ने वाहवाही लूटते हुए छापी जिसमें यूपी पुलिस ने फिर से आरोप पत्र दाखिल किया जिसे पत्रकारों ने अपनी जीत घोषित की। पत्रकारिता में जब से बाई लाइन का प्रचलन तेजी से बढ़ा है और किसी भी सनसनी पर बाई लाइन खबरें लगने लगीं हैं उसकी वजह से भी तथ्यात्मक व विशलेषणत्मक रिपोर्टिंग पर असर पड़ा। 21 जनवरी 09 को अमर उजाला समेत लगभग सभी अखबारों में मालेगांव धमाकों की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर का न्यायालय में पेशी के दौरान की एक फोटो छपी। जिसमें साध्वी हसते हुए पूरे फार्म थीं तो वहीं जो पुलिस अन्य मुस्लिम आरोपियों को दबोचे हुए रहती है वह साध्वी के अंग रक्षक जैसी मुद्रा में हसती हुए थी। पर इस पर किसी अखबार ने कोई ‘कैप्सन’ नहीं लगाया। मुबई धमाकों के बाद मीडिया ने यह खबर बड़ी प्रमुखता से छापी कि पाकिस्तान आरोपियों को सौंपने के लिए तैयार नहीं है। और यही नहीं उसकी न्याय प्रक्रिया पर भी यहीं से बैठे-बैठे सवाल उठा दिया। अब अगर यही बात हिंदुस्तान के संदर्भ में की जाय कि उससे जब पाकिस्तान ने मालेगांव धमाकों के आरोपियों को सौपने की बात कही थी तो उसने फिर क्यों इनकार कर दिया। जबकि पूर्व गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने मुबंई हमलों के बाद जो प्रेस कांफे्रंस की थी उसमें उन्होंने संदेह जाहिर करते हुए कहा था कि कोई भी जांच मालेगांव धमाकों के आरोपियों को परिधि में रखकर की होगी। पर भारत द्वारा पाकिस्तान को मालेगांव के धमाकों के आरोपियों को न देने पर मीडिया ने न्याय प्रक्रिया पर कोई सवाल नहीं उठाया। दरअसल मीडिया ऐसा न्याय प्रक्रिया के तहत नहीं बल्कि अपने उस राष्ट्रवाद के तहत करती है जो जो मुस्लिम विरोध और पाकिस्तान विरोध पर टिका है। क्योंकि जब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले ने मुबंई हमलों की उच्च स्तरीय जांच की मांग की तो इसी मीडिया ने उनके राष्ट्रवाद को कटघरे में खड़ा कर दिया। लखनऊ से प्रकाशित होने वाले डेलीन्यूज ऐक्टिविस्ट के ‘प्रगतिशील’ संपादक प्रभात रंजन दीन ने बैनर न्यूज में लिखा कि अंतुले पाकिस्तानी हैं या हिंदुस्तानी।
बांग्लादेशियों के खिलाफ मीडिया का अभियान हमेशा ही चलता रहता है जिस तरह संघ का। मई 08 में जयपुर धमाकों में हुजी का नाम आने के बाद ये अभियान तेजी से पूरे देश में चला। इस दौरान बजरंगियों का त्रिशूल-भाले के साथ आक्रामक मुद्रा में खूब फोटो छपा और पत्रकारों ने भी गौरवान्वित भाव में जैसे वे किन्हीं देश द्रोहियों का सफाया कर रहे हों और उसमें वे खबर लिखने जैसे छोटे से काम में जितना सहयोग दे सकते थे दिये। बांग्लादेश के सवाल पर पत्रकारों में दो खेमें प्रमुखता से देखे जा सकते हैं एक वे जो दक्षिणपंथी विचारों की कुंद शान को तेज करने के लिए इन्हें समस्या मानते हुए भगाने की बात करते हैं। तो वहीं दूसरे उन पर हो रहे अत्याचारों की खिलाफत करते हुए उन्हें उनके देश भेजने की बात करते हैं।
यहां इस पूरी मानसिकता पर विचार करना होगा कि आखिर क्यों नहीं हमारे यहां लाखों की संख्या में रह रहे नेपाली, तिब्बती या श्रीलंकाई मूल के लोगों के लिए ऐसी बात की जाती है। बेसक सभी उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को मानवीय आधार पर रहने का अधिकार होना चाहिए। पर यह भेदभाव क्यों जबकि बांग्लादेश के विभाजन में भारत ने अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे में उसके नागरिकों के प्रति क्यों नहीं संवेदनशीलता अपनायी जाती। हमारे यहां नेपालियों को सबसे विश्वसनीय मानते हुए चैकीदार रखा जाता है तो वहीं बांग्लादेशियों को जासूस के रुप में देखा जाता है। दरअसल हमारे यहां लोकतंत्र बहुसंख्यक की धार्मिक परिधि के अंदर ही सांसे लेता है। जो बांग्लादेश का विरोध सिर्फ और सिर्फ धर्म के आधार पर करता है। इसे हम नेपाल में भी देख सकते हैं कि हमारी सरकारा वहां लोकतंत्र को राजशाही की परिधि में स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है। जिसे हम अपने यहां के समाचार पत्रों की खबरों में ही नहीं उनकी संपादकीय नीति में भी देख सकते हैं। 92 के दौर में दैनिक जागरण के संपादक नरेन्द्र मोहन ने तो खुलेआम घोषित तौर पर हिंदी नहीं बल्कि हिंदू पत्रकारिता करने की जरुरत बतायी थी। और आज के दौर में पत्रकारिता का जो स्वरुप है वह इसी हिंदू पत्रकारिता की परिधि में आता है और उसकी व्याख्या भी उसी विचारधारा के अनुरुप हो रही है।
मीडिया में सक्रिय आतंकी स्लीपिंग माड्यूलों के जरिए छापी गयी झूठी खबरों में देखा गया कि जहां के बारे में खबर होती है वहां के संस्करण में वह नहीं छपती। जैसे 67 आजमगढ़ के लोगों की इलाहाबाद से गिर्तारी की झूठी खबर टाइम्स आॅफ इंडिया के इलाहाबाद संस्करण में न छपकर दिल्ली संस्करण में छपी। ठीक ऐसी ही एक खबर 14 अक्टूबर को दैनिक जागरण के इलाहाबाद संस्करण में छपी-‘एसटीएफ के हाथ लगी एके 47!’,‘इमामगंज धोबहा से तीन गिरफ्तार, कई जगह दबिश’ खबर यहीं से शुरु ही हुयी कि यूपी में आजमगढ़ के बाद इलाहाबाद भी आतंकी नजरिये से संवेदनशील है। एसटीएफ ने रविवार की रात हंडिया थाना क्षेत्र के इमामगंज धोबहा गांव स्थित एक धार्मिक स्थल से एके-47 राइफल बरामद कर बड़ी कामयाबी हासिल की है। इस खबर की पुष्टि के लिए जब हम इलाहाबाद से तकरीबन 50 किमी दूर धोबहा गांव पहुंचे तो इस खबर को देख हर शख्स अचंभित था कि कोई घटना ही नहीं हुई और नहीं वह खबर वहां के स्थानीय संस्करण में छपी थी। इस खबर के बारे में जब हमने उस पत्रकार से पूछा तो उसने कहा कि इस खबर को उसके सूत्रों ने बताया जिसे वह हमें नहीं बताएगा। ठीक इसी वक्त आज दैनिक में एक और खबर छपी की मुस्लिम हास्टल के आस-पास चैकसी बढ़ी, संदिग्धों की तलास। इस खबर के बारे में जब खबर लेखक से पूछा तो उसने गौरवान्वित भाव और हमको धमकाने का एहसास दिलाते हुए कहा कि वह एसटीएफ के साथ वहां था। इस पर जब हमने सवाल किया कि कब से पत्रकार एसटीएफ के साथ घूमकर खबर करने लगे तो उसने कहा कि वे हमारे सूत्र हैं। यहां अब सूत्रों की राजनीति किसी से छुपी नहीं रह गयी है कि ऐसी खबरे कौन और किसके लिए की जाती हैं। इसी दौरान ‘जागरण अभियान खतरे में जिंदगी’ कर के एक कैम्पेन दैनिक ने चलाया। 27 अगस्त 08 को आशुतोष तिवारी की बाई लाइन खबर छपी - ‘और मजबूत होती गईं आतंकियों की जड़े’,‘नागौरी ग्रुप के कई सदस्य जिले में मौजूद एटीएस टोह ल रही है।’ हफ्ते भर चले इस अभियान में जागरण ने इलाहाबाद के दूर दराज के मुस्लिम इलाकों को चिन्हित कर ऐसी अफवाह वाली खबरें प्लांट की। इसी दिन के पेपर में आतंकवाद से जुड़ी कई खबरें थीं। जयपुर धमाकों के आरोपी शाहबाज के बारे में, भदोही से एस टीएफ ने दो को उठाया, ‘आतंक को लेकर मदरसों पर उठती उंगलियां तो वहीं ‘सिमी और नकली नोट केंद्र के लिए चिंता बने’। इन्हीं खबरों के बीच एक खबर थी ‘कानपुर में नहर से मिले ग्रेनेड व नक्शा’। इस खबर को कहीं से भी पढ़कर आतंकी खबरों की श्रेणी में पाठक इसे नहंीं डाल सकता। जबकि ये विस्फोटक और फिरोजाबाद का जो नक्शा मिला वह उसी भूपेंद्र के घर के सामने से मिला जिसकी मौत एक दिन पहले बम बनाते हुए हुयी थी और वह बजरंग दल का था। खबर में बड़ी साफगोई से भूपेन्द्र के घर की छत से मिले विस्फोटक पदार्थ को पाउडर कहते हुए कहा गया कि पुलिस का दबाव बढने पर भूपेंद्र का कोई परिचित यह सामान फेंक गया है या कोई भूपेंद्र को फसाने की कोशिश कर रहा है। यहां गौर करना होगा की यह यूपी की तकरीबन दो-तीन सालों के भीतर की पहली घटना थी जब बम बनाते हुए कोई मर गया और उसके घर से विस्फोटक की बरामदगी की गयी हो। पर इस पूरे मसले पर पुलिस ने भूपेंद्र के घर से या वह जिस संगठन के तहत काम करता था उसके किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं की गई। इस पर मीडिया जो हर आंतकी घटना के बाद गिरफ्तारी करने का दबाव व घटना में शामिल संगठन पर सवाल उठाती है ने मौन स्वीकृति देते हुए भूपेंद्र को ‘सच्चे राष्ट्रवादी होने की श्रद्धांजली दी।’ यहां गौर करने की बात है कि जो मीडिया किसी मुस्लिम युवक के पकड़े जाने पर पूरे समुदाय को ही आतंकवादी घोषित कर देती है उसने यहां इतने ठोस सुबूत होने के बावजूद ऐसा कुछ नहीं किया। ऐसे में बजरंग दल को आतंकी संगठन कहना तो दूर की बात है। ऐसी न जाने कितनी खबरें हमारी नजरों के सामने से अपनी राजनीति कर गुजर जाती हैं और हमें एहसास तक नहीं होता। इन खबरों से निपटने के लिए इलाहाबाद के मानवाधिकार नेताओं और बुद्धिजीवियों ने एक सराहनीय प्रयास किया कि ऐसी खबरों के लिए मीडिया मानिटरिंग सेल बनाया जो ऐसी तमाम खबरों पर निगाह रखता है।
इन सभी के पास अपने पड़ोसी आजमगढ़ का उदाहरण था कि मीडिया ने कैसे उसे आतंक की नर्सरी के रुप में उसकी पहचान बना दी। 13 सितंबर 08 के दिल्ली धमाकों के बाद आजमगढ़ में आज समाचार पत्र ने लिखा ‘स्केच से उस्मान का चेहरा मिलने की चर्चा’। उस्मान से हमारी मुलाकात एक संगोष्ठी के दौरान हुयी। उस्मान बार-बार मंच पर आकर उस पेपर कटिंग को दिखाता और अपनी सफाई में बड़बड़ाता वह अर्धविक्षिप्त सा हो गया था। पर उस्मान यह काम बहुत सचेतन तरीके से कर रहा था। बाद में उसने बताया कि किसी शख्स ने उससे कहा था कि इन लोगों के साथ अगर तुम्हारी फोटो छप जाएगी तो पुलिस तुम्हारा एनकाउंटर नहीं कर सकती। इस खबर का असर इतना खतरनाक हुआ कि उस्मान की मां को ब्रेन हैमे्रज हो गया। ऐसे में दोनों ही स्थितयों में चित-पट दोनों मीडिया की हुयी।
6 अक्टूबर 08 को आजमगढ़ आतंकवाद-मिथक और यथार्थ विषय पर हो सेमीनार को पुलिस ने आतंकियों के पक्ष में होने का आरोप लगाते हुए गिरफ्तारी की और गोष्ठी बंद करवा दी। इस संगोष्ठी में मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन सचिव चितरंजन सिंह और वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गताड़े भी मौजूद थे। दूसरे दिन 7 अक्टूबर 08 को आज ने जो खबर छापी उसकी सुर्खियां कुछ इस तरह थीं-कसिए इनकी नकेल-बीच बजार हो रही तनाव बढ़ाने वाली तकरीर-मजहब को बना रहे मुद्दा। इस पूरी खबर में कार्यक्रम को राष्ट्रद्रोहियों के कार्यक्रम के बतौर पेश किया गया। जो पुलिस का भी नजरिया था। यहां फिर गौर करना चाहिए की सुर्खियों में तकरीर और मजहब शब्द का प्रयोग किया गया। ठीक इसी पृष्ठ पर एक और खबर छपी जिसकी सुर्खियां-सच कडवा होता है जनाब! मदरसों पर से भी उठे नकाब-आखें मूदने से नहीं मिटेगा आतंकवाद-मजहबी तालीम के नाम पर बदला जिले का मंजर-सोचिए! आखिर आजमगढ़ के ही क्यों निकले आतंकवादी। यहां फिर भाषाई चाल चल पत्रकार बहुसंख्क समाज को अपने पक्ष में खड़ा कर, अल्पसंख्यक समाज पर हमलावर हुआ। इस खबर में पत्रकार ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान हो जाने के खतरे से पाठकों को अवगत कराया। खबर का अंत इन उपदेशों के साथ किया ‘धुआं उठा है तो इसका मतलब आग कहीं न कहीं जरुर है। सच्चाई का कड़वा घूट पीकर हमें अपने गिरेबां में झाकना ही होगा वरना दर्द नासूर न बन जाये।’
ठीक इसी तरह कचहरी बम धमाकों के आरोपी तारिक कासमी जिसे 12 दिसंबर 07 को एसटीएफ द्वारा आजमगढ़ से उठाए जाने के बाद 22 दिसंबर 07 को बाराबंकी से एसटीएफ ने गिरफतार करने का दावा किया था। जो मीडिया कल तक तारिक के अपहरण के खिलाफ चल रहे धरने प्रदर्शन को कवर कर सवाल कर रही थी कि तारिक को जमीन निगल गयी या आसमान और जिसकी खोज के लिए पुलिस जांच दल तक गठित हुआ पर जैसे ही एसटीएफ ने कहा कि उसे बारबंकी से गिरफ्तार किया गया मीडिया को सांप सूंघ गया। वही 21 दिसंबर 07 को हिंदुस्तान लिखता है ‘कट्टर मजहबी है एसटीएफ के हत्थे चढ़ा हकीम तारिक। तारिक प्रकरण आजमगढ़ के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। हमने कश्मीर नहीं देखा है पर आजमगढ़ की सड़कों पर उतरे जनसैलाब से उसके बारे में कल्पना जरुर की है-जेल का दरवाजा टूटेगा शेर हमारा छूटेगा। यहीं से आजमगढ़ियों का मीडिया से विश्वास उठने लगा और अपना मीडिया बनाने की बात चलने लगी। इसी दरम्यान कचहरी धमाकों के दूसरे आरोपी खालिद को 16 दिसंबर की शाम मड़ियांहूं जौनपुर से चाट की दुकान से कुछ टाटा सूमो सवार अपहरणकर्ताओं ने उठा लिया। इस अपहरएा की खबर को भी मीडिया ने प्रमुखता से छापा पर जैसे ही उसे 22 दिसंबर 07 को तारिक के साथ गिरफ्तार करने का दावा किया गया वही मीडिया उसके आतंकी होने के प्रमाण गढ़-गढ़ खूब खबरें छापीं। पर जन आंदोलनों व मानवाधिकार संगठनों के दबाव में आकर प्रदेश सरकार को इन दोनों की गिरफतारी पर उठे सवालों पर आरडी निमेष जांच आयोग का गठन करना पड़ा। तारिक को आतंकी घोषित करने के अभियान के तहत 23 दिसंबर 07 को दैनिक जागरण ने एक बहुमंजिला इमारत का फोटो छाप सवाल उठाया तो वहीं हिंदुस्तान के स्थानीय संपादक विश्वेश्वर कुमार ने 23 दिसंबर 07 को ही अपनी एंकर स्टोरी ‘गांव-कस्बों तक फैलतीं हूजी की जड़े’ लिख कर कहा कि तारिक क पास आखिर इतना पैसा कहां से आया कि उसने इतना बड़ा घर बनवा लिया। जबकि तारिका घर छोटा सा है। यहां सवाल उठता है कि सिर्फ घर कितना बड़ा है उसके आधार पर कैसे आतंकी घोषित किया जा सकता है।
गुजरात के पुलिस कमिश्नर पीसी पाण्डे ने पहली बार गुजरात में हुए धमाकों के लिए इण्यिन मुजाहिद्ीन का नाम लिया और आजमगढ़ के अबुल बशर को चीफ बताते हुए आजमगढ़ के लोगों को चिन्हित किया। उन्होंने इसके पीछे जो तर्क दिया था वह यह था कि सिमी ने अपने नाम के आगे से एस और पीछे से आई हटाकर आईएम यानी इण्यिन मुजाहिदीन बना लिया है। आईएम को ‘लांच’ करने वाले ये वही पीसी पाण्डे हैं जिन्हें कई मानवाधिकार संगठनों व नागरिक समाज ने गुजरात के मुसलमानों के ‘हाॅलोकास्ट’ में लिप्त पाया है तथा जिन्हें उनके इसी धर्म/कर्म निष्ठा के लिए गुजरात सरकार ने डीजीपी बनाया।
आईएम से सिमी का नाम जुड़ने के बाद दैनिक जागरण ने प्रतिबंधित सिमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो आजमगढ़ के रहने वाले हैं का फं्रट पेज पर साक्षात्कार छापा। पत्रकार ने अपनी ‘खोजी पत्रकारिता’ का माडल बनाने के लिए बताया कि भूमिगत शाहिद बद्र फलाही का उसने साक्षात्कार छापा। तो वहीं भाजपा से राज्य सभा में सासंद चंदन मित्रा के अखबार द पाइनियर के प्रादेशिक संवादाता प्रीतम श्रीवास्व अक्सरहां अपनी खबरों की ‘व्याख्या’ करते समय बताते हैं कि सिमी का राष्ट्रीय अध्यक्ष आजमगढ़ में रहकर आतंकी गतिविधियां संचालित करता है। गौरतलब है कि शाहिद को 2004 में कोर्ट से बेल मिली है। वे सार्वजनिक रुप से आजमगढ़ शहर से सटे गांव ककरहटा में रहते हैं और पेशे से डाक्टर हैं। शाहिद मीडिया वाले के वो भुक्त-भोगी हैं जिसे वो खुद न निगल सकते हैं न उगल। क्योंकि अगर वो अपना पक्ष नहीं रखेंगे तो उनके संगठन की लाइन स्पष्ट नहीं होगी। और रखेंगे तो मीडिया उनकी व्याख्या अपने हिसाब से करेगी और उसे सनसनीखेज बनाकर परोसीगी क्यों के सिमी की खबर का मार्केट बहुत बड़ा है। शाहिद बताते हैं कि लोग आते हैं और कहते हैं कि आप से कुछ बात करनी है। बात करने से पहले अपने कैमरे की तकनीकी सुविधा का हवाला देते हुए कहते हैं कि थोड़ा घूम-फिर की जाय तो नेचुरल आएगा। और वे ऐसी नेचुरेल्टी कैमरे को घुमा फिरा लाते हैं कि जैसे मैं किसी बियाबान जंगल में भूमिगत रह रहा हूं। 2006 की एक घटना का वे जिक्र करते हैं कि वे दिल्ली में थे और उन्हें एक चैनल ने फोन करके कहा कि वे बात करना चाहते हैं और आराम से बात करने के लिए उसने यमुना के किनारे बुलाया। पर जब उसने यह खबर प्रसारित की तो कहा कि उसने देश को दहला देने वाले शाहिद बद्र को खोज निकाला और उसने नदी के पानी और रेत की ऐसी तश्वीर बनाई कि जैसे मैं भागा-भागा फिर रहा हूं।
इसी दौरान सिमी को लेकर तब होहल्ला मचा जब गीता मित्तल ने सिमी पर से प्रतिबंध हटा दिया था। यहां गौर करने वाली बात है कि इसकी जानकारी किसी को न थी। इस जानकारी को गृह मंत्रालय से लीक करके या फिर कहें करवा करके सरकार दूसरे दिन 5 अगस्त 08 को न्यायालय चली गयी। यहां गौर करने की बात है कि इस तरह की जानकारी पीड़ित पक्ष को न्यायालय द्वारा दी जानी चाहिए पर उसे भी मीडिया द्वारा ही मिलती है। ऐसे में यह सरकारी एजेंसियों और मीडिया के गठजोड़ का मामला था। क्योंकि सरकार ने चुनावों के दौरान सिमी पर प्रतिबंध जारीकर अपनी रानीतिक राष्ट्रवाद का अभियान मीडिया के सहारे चलाया।
अगर गौर से देखा जाय तो बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के लिए पुलिस वालों से ज्यादा दोषी मीडिया वाले हैं। 13 दिसंबर के दिल्ली धमाकों के बाद चैनलों ने शिवराज पाटिल को वस्त्र पुरुष की उपाधि देते हुए सबसे कमजोर गृह मंत्री करार देने के लिए एसएमएस करवाए। पर जैसे ही 19 सितंबर को बाटला हाउस एनकाउंटर हुए देश का सबसे कमजोर गृहमंत्री लौह पुरुष बन गया। चैनलों ने काउंटर होने के बाद के शुरुआती घटों में शिवराज पाटिल और शीला दिक्षित को पूरे इस आपरेशन की मानिटरिंग करते हुए दिखाया। पर जैसे ही एनकाउंटर पर सवाल उठने लगे इस बात को दबा दिया गया। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि उन दोनों बच्चों जिनकी नृषंश हत्या की गयी है का प्रमाण उनकी शरीर पर लगी गोलियां बयान कर रही हैं तब हमारी मीडिया ने क्यों नहीं पाटिल पर सवाल उठाया कि उनकी मानिटरिंग में इस घटना को कैसे अंजाम दिया गया। ऐसे में जब राज्य अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए अपने ही लोगों को मारने में परहेज न करे और किसी लोकतंत्र की मीडिया का समूह उस पर सवाल न उठाये तो यह सिद्ध होता है कि राज्य का फासीवादी करण हो रहा नहीं बल्कि हो गया है। धमाकों के तुरंत बाद अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर का नाम खूब उछाल कर मीडिया ने सिर्फ उसका एक मंसूबा बताया था-मौत-मौत-मौत। और कहा गया कि आजमगढ़ में उसने स्लीपिंग माॅड्यूल्स बनाए हैं। ‘दिल्ली धमाकाः बड़ी कामयाबी के करीब-मास्टर माइंड तौकीर पर कसा शिकंजा’ 16 सितंबर 08 दैनिक जागरण समेत तमाम अखबारों और चैनलों ने इस कदर इस बात को कहा कि अब्दुल सुभान की मां को मीडिया के सामने सफाई देने आना पड़ा। याद कीजिए 17 सितंबर को जब सुभान की मां बोलते-बोलते रो पड़ीं थीं और कह रहीं थीं कि दोषी हो तो सजा मिले। इस पूरी मार्मिकता को स्टार के गणेश ठाकुर ऐसे चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे थे जैसी उसकी मां ही दोषी थीं। ठीक 16 तारीख को ही दैनिक में पृष्ठ 9 अपना प्रदेश पर एक और खबर छपी की ‘एटीएस ने आजमगढ़ से तीन संदिग्धों को उठाया’ सूत्रों के अनुसार कहा गया कि पुलिस ने छापे मारी की पर खालिद अंडावाला, हबीब हसन मोबाइल वाला और शाह आलम का कोई सुराग नहीं मिला। सर्विलांस के जरिये पुलिस उन सभी की तलाश कर रही थी। सलीम व राशिद दुबई वाला भी फोर्स के निशाने पर हैं। और बताया गया कि एटीएस का सम्पर्क दिल्ली से बना हुआ है और पल-पल की खबर दिल्ली भेजी जा रही है। यह खबर चैनलों ने भी खूब चलायी जिसका परिणाम ये हुआ कि इन नामों के लोग व उनके परिजन सकते में आ गए और आज भी है कि कब किसकी गिरफतारी हो जाय। आजमगढ़ में लोग कह रहे थे कि जो भी हो उसको ले जांए ऐसे कब तक घुट-घुट कर मरेगें। यहां खूफिया और पुलिस की मिलीभगत है कि जरुरत पडे़गी तो उठा लेंगें नहीं तो फिर क्या। इस कहानी में सबसे अहम मोड़ तब आया जब आजमगढ़ के 16 साल के साजिद और आतिफ का फर्जी एनकाउंटर होने के बाद पुलिसिया कहानी के ये सब पात्र पर्दे के पीछे चले गए। जिस तौकिर को मास्टर माइडं बताया गया बाद में पुलिस ने उसके बारे में कहा कि वह धमाकों में शामिल नहीं था उसके बारे में हमने नहीं मीडिया ने कहा था।
आजमगढ़ को लेकर हिंदी अखबारों में जनसत्ता के अलावां सभी ने नकारात्मक रिर्पोंटिंग की। जिस समय आजमगढ़ से निकलने वाली हर खबर सनसनी परोस रही थी उस समय जनसत्ता के अंबरीष कुमार ने अकेले ही इस पूरे अभियान के खिलाफ अभियान छेड़ा था। पर जनसत्ता के दिल्ली के पत्रकार उसी धुन में सनसनी परोस रहे थे, जिसमें अन्य थे। जिसमें अमलेश राजू और प्रतिभा शुक्ला प्रमुख थे। अंग्रेजी अखबारों में मेल टुडे ने टेबोलाइट की पूरी परिभाषा ही बदल दी। बाटला हाउस हो या फिर मालेगांव मेल टूडे ने जो तथ्यात्मक रिपोर्टिंग की वैसी रिपोर्टिंग कम देखने को मिली। पर उसी संस्थान से निकलने वाले इंडिया टुडे ने अपना पुराना राग अलापते हुए 15 अक्टूबर 08 के अपने अंक में ‘बमबाजों के दिमाग के भीतर’ कवर स्टोरी के माध्यम से जो सांप्रदायिक बीजारोपण किया उसके सामने दूसरे फेल हो गए। एक ही संस्थान से निकलने वाले दोनों अखबारों की खबर परोसने की कला दरअसल बाजार की जरुरत के चलते थी। मिहिर श्रीवास्तव ने दावा किया कि वे जिया उर रहमान, मोहम्मद शकील और साकिब निसार से मिले जिनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य जिहाद है। जिसके लिए वे उस बाजार को भी बम से उड़ा सकते हैं जिसमें उनकी वालिदा सब्जी खरीद रही हो। इन लोगों ने धमाकों की जिम्मा स्वीकार करते हुए कहा कि इस्लाम के बारे में जो भी जानते हैं उसके बाद उन्हें अपने किए पर कोई अफसोस न था। यहां यह गौर करने की बात है कि यह साक्ष्तकार तब लेने का दावा किया गया था जब आरोपियों के परिजनों और वकीलांे से भी इन्हें मिलने नहीं दिया जा रहा था। जिसे आधार बनाकर मानवाधिकार संगठन के लोग सुप्रिम कोर्ट के वरिष्ठ अधिक्ता प्रशांत भूषण के नेतृत्व में कोर्ट में भी गए। आजमगढ़ में इन फर्जी व अफवाह फैलाने वाली रिपोर्टिंगों को वाच करने के लिए एक मीडिया मानिटरिंग सेल भी बनाया गया है जिसको मसीहुद्दीन संजरी और तारिक शफीक संचालित करते हैं। ‘सांप्रदायिक और अफवाह फैलाने वालों से अपील है कि वे यहां न आंए’ आजमगढ़ में लगाए गए इन बैनरों ने मीडिया को नैतिक आचरण करने के लिए बाध्य कर दिया। आजमगढ़ के लोग की असली लड़ाई मीडिया से है जिसने उनकी पहचान को विकृत कर दिया है।
अविभाजित उत्तर प्रदेश के किस जनपद को आतंकियों के एक प्रजनन स्थल के अभिधान से कलंकित किया जाने लगा है? विकल्प ए-आजमगढ़ बी-अलीगढ़ सी-पिथौरागढ डी-प्रतापगढ। यह सवाल पिछले दिनों 22 फरवरी 09 को हुई उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा में पूछा गया था। बाद में भारी विरोध के बाद सवाल हटा लिया गया। पर यहां यह गौर करने की बात है कि ऐसे प्रश्न का जन्म देने में मीडिया की ही पूरी भूमिका थी। क्योंकि उसने ही आजमगढ़ को आतंकगढ़ के रुप में प्रचारित किया था। संजरपुर में हमारी मुलाकात टाइम्स आॅफ इंडिया की पत्रकार मंजरी मिश्रा से हुयी जो एक रसूख वाले पुलिस अधिकारी की पत्नी हैं। अपने पति के सरकारी मशीन गन धारी गनर के साथ आयीं मंजरी के चेहरे के भाव बता रहे थे की वे काफी भयभीत हैं। क्योंकि दो दिनों पहले ही आज तक के एक रिपोर्टर की धुनाई कुछ ऊट-पटांग सवाल पूछने पर हुयी थी। आजमगढ़ से लौटकर बनायी मंजरी की रिपोर्ट में बस यही था कि कितनी बसें और ट्रेनें देश के महानगरों व देश की सीमा से आजमगढ़ को जोड़ते हैं। यहां इस पत्रकार को समझने के लिए एक घटना को समझना होगा। 21 सितंबर को एक खबर आयी कि आतंकी सरायमीर स्टेशन पर कैफियत को उड़ा देंगे। इसकी तफ्तीश के लिए जब हमने स्टेशन मास्टर जिसने कंट्रोल रुम को सूचना दी थी उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि इसकी सूचना उन्हें स्थानीय यशओ ने दी थी। जब यशओ कमलेश्वर सिंह से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें मीडिया ने यह सूचना दी थी। इसी तरह एक और खबर आयी कि सैफ और आतिफ के खातों से पचास करोड़ का ट्रांजीसन हुआ। इस सूचना की पुष्टि के लिए हम जब बैंक मैनेजर से मिले तो उन्होंने बताया कि सैफ के खाते में 29000 और आतिफ के खाते में 1400 रु हैं। ऐसे में समझना आसान हो जाता है कि मीडिया अपना काम कर कैसे निकल लेती है और प्राइम टाइम के लिए ‘आइटम न्यूज’ बना लेती है।
इसी दौरान तहलका के अजीत साही द्वारा ‘सिमी फिक्शन’ पर की गयी रिपोर्टों का मीडिया पर काफी असर पड़ा। क्योंकि उन्होंने सिमी पर लगाए गए विभिन्न आरोपों को तथ्यात्मक तरीके से निराधार बताया और ठीक इसी समय देश में हो रहे धमाकों से सिमी का नाम जोड़ा जा रहा था। सिमी के न्यायालय में चल रहे केशों पर मीडिया ट्रायल को आसानी से देखा जा सकता है कि चार्ज नोटिफिकेशन के पहले ही न्यायालय ने कई बार मीडिया की खबरों के आधार पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया। इसी बीच मीडिया ने तौकीर का नाम खूब बेचा स्टार ने 18 सितंबर को ‘दिल्ली का दुश्मन’ करके प्राइम टाइम में एक कार्यक्रम दिखाया। इसमें सफदर नागौरी और अब्बदुल सुभान उर्फ तौकीर की 20 अगस्त 2001 के एक प्रेस कांफेंस की बिना आवाज की कुछ सेकेंडों की क्लिप बार-बार दिखायी जा रही थी और रिपोर्टर संगीता तिवारी तेज आवाज में सनसनी परोस रहीं थी। एक बार भी यह नहीं दिखाया गया कि वे क्या बोल रहे थे बस यही बताया जा रहा था कि वे जहर उगल रहे थे। द वीक की 28 सितंबर 08 के अंक की कवर स्टोरी ‘द होमेग्राउन टेररिस्ट’ थी। कवर पृष्ठ पर सुभान यानी तौकीर का लाल रंग के बैक ग्राउंड पर एक स्केच नुमा फोटो छाप लिखा जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह था- ‘अपने घर में उपजे आतंकी’ जिसके बारे में बताया कि वह भारतीय मुसलमान आतंकवादी युवाकों का जो यहीं पर पले-बढ़े है का प्रतीक है। यहां इस लिए कवर की संरचना पर जोर दिया गया क्योंकि पत्रिकायें और अखबार अपना ले आउट ऐसा सनसनीखेज बनाते हैं कि जिससे वो हर किसी की नजर में तुरंत चढ़ जाए। इसी परिप्रेक्ष्य में यहां द संडे इंडियन की 29 सितंबर की कवर स्टोरी ‘तीन अक्स आजमगढ़ के’ का जिक्र करना महत्वपूर्ण होगा। पूजा अवस्थी ने इस रिपोर्ट में बहुत तथ्यात्मक और मानोवैज्ञानिक तरीके से आजमगढ़ की सच्चाई को उकेरा था। पर कवर पर रिपोर्ट को जिस प्रतिबिंब के तहत पेश किया गया वह सनसनी की ही श्रेणी में आता है। कैफी आजमी, अबू सलेम और अबू बशर का चित्र छाप उनके नीचे कैप्सन लगाया ‘शायरी से अपराध और फिर जिहाद तक का सफरनामा।’ बीते चुनावों के दरम्यान दिल्ली व उत्तर प्रदेश से शुरु हुए नई दुनिया के राजेश सिरोठिया की रिपोर्टों को देख ऐसा लगता है कि बेचारे को लिखने का बहुत शौक है पर तथ्य उन्हें देरी से मिलते हैं। देरी से मिलेंगे ही क्योंकि उनकी पूरी रिपोर्टिंग के लिए तथ्य तो आईबी देती है और उसे तथ्य गढ़ने में वक्त तो लगेगा ही। खैर छोड़िए भोपाल से राजेश सिरोठिया ने एक स्टोरी 29 मार्च 09 के नई दुनिया परिशिष्ट के लिए की ‘मौत का संदेश’ की। जिसमें उन्होंने बताया ‘बाटला हाउस मुठभेड़ से प्राप्त लैपटाॅप में दर्ज थी मुंबई हमले की धमकी’ यह पूरी रिपोर्ट आईएम के एक मेल और आईबी की व्याख्या पर उन्होंने की, जिसकी पोल मेल टुडे, तहलका से लेकर कई मानवाधिकार संगठनों ने बहुत पहले ही खोल दी थी। और जिस पर सरकार के पास भी बगले झाकने के अलावां कोई रास्ता न था।
आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में चैनलों का मैनेजमेंट तो माशा अल्ला था। उन्होंने इसकी रिपोर्टिंग करने के लिए मुस्लिम रिपोर्टरों का खास तौर पर चुनाव किया। ऐसे ही आज तक के एक रिपोर्टर शम्स ताहिर खान जो दिल्ली के धमाकों के दौरान लाइव टेलीकास्ट करते हुए चीख पड़े कि आतंकवादियों ने बच्चे को मानव बम बना दिया पर जैसे ही कुछ इशारा हुआ उन्होंने बिना अपनी बात का खंडन किये उस बच्चे को चश्मदीद गवाह घोषित कर दिया। इनका दूसरा चेहरा आजमगढ़ में तब दिखा जब इनके एक रिपोर्टर को वहां जनता ने पीटा। उसके बाद ये कभी भी संजरपुर जहां के दो बच्चों का फर्जी एनकाउंटर किया गया था नहीं गए। पर आजमगढ़ से प्रतिदिन रिपोर्ट करते थे। जब हमने पता लगाया तो पता चला की ये महाशय कुछ अपने मित्र पत्रकारों से मंगनी की फुटेज लेकर जिस होटल में रुके थे के नीचे से पीटूसी दे दिया करते थे। आज तक ने इस दौरान कैम्पेन चलाया कि ‘पूछता है आज तक आखिर कब तक’ हो या फिर ‘नहीं डरेगी दिल्ली’। इसके तहत इसके रिपोर्टर ‘आतंक के खिलाफ अब तो जागो’ की तख्ती लिए महानगरों के कुछ लोगों को इकट्ठा कर खूब टीआरपी बटोरे। ‘इतना बड़ा देश क्यों मजबूर’ हो या फिर ‘फैल रहा है आतंक का नेटवर्क’ जैसे अभियानों के माध्यम से इन्होंने अपने पड़ोसी देश पर खूब भड़ास निकाली।
आजमगढ़ के संजरपुर के आरिफ की 29 सितंबर 08की गिरफ्तारी की प्रेस कांफ्रेंस जब यूपी के एडीजी बृजलाल खत्म कर जाने लगे तो मीडिया की तरफ से एक आवाज आई की कोई और हो तो पेश कर दीजिये और ठहाके लगने लगे। यहां गौर करने की बात है कि इतनी अगंभीर तरीके से आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कैसे बात हो रही है। और जहां तक बात आरिफ की तो उसे दो दिनों पहले ही एसटीएफ ने उठाया था जिसकी खबरें तक छपीं थीं। पर कैमरे के सामने चिल्ला-चिल्लाकर जनता को आगाह करने वालों की भीड़ में से इस बात को पूछने की किसी में हिम्मत नहीं थी। आतंकवादी घटनाओं में हो रही गिरफ्तारियों में अब तो यह आम हो गया कि कहीं से किसी को उठाओ और कहीं भी भारी मात्रा में आरडीएक्स और गोला बारुद के साथ दिखा जिस पर मीडिया मौन स्वीकृति दे देती है।
अक्सरहां यह सवाल उठता है कि आजमगढ़ के ही लोगों को क्यांे आतंकी घटनाओं में पकड़ा या मारा जा रहा हैं? कुछ तो कुछ बात जरुर होगी। तकरीबन एक दशक से आजमगढ़ में स्थापित मीडिया के स्लीपिंग माॅड्यूल्स के बदौलत यह आपरेशन सफल हो पाया। इक्सवीं सदी के शुरुआती साल में जब यूपी में भाजपा सरकार थी तो आजमगढ़ से पहला ‘पाकिस्तानी जासूस पकड़ा गया’ जो ‘ससम्मान’ रिहा हो चुका है। ससम्मान रिहाई के बाद भी सामाजिक अस्वीकृति के चलते आतंकवादी होने का ठप्पा नहीं हट पाया इसके बाद क्या था। सिलसिला शुरु हो गया और हालात आज हमारे सामने है। पिछली ‘26 जनवरी अभियान’ में दो कश्मीरी लड़कों को पाकिस्तानी आतंकवादी कह मारा गया। जब इस पर सवाल उठने लगा तो एक डायरी की बात सामने लायी गयी जिसके बारे में बताया गया कि इसमें आजमगढ़ के लोगों का नंबर व पता मिला है और ये आजमगढ़ में रुके थे। हर घटना के बाद आसानी से पाकिस्तान का नाम ले लेने वाली सरकारों और मीडिया पर पडा़ेसी देशों के दबाव के चलते लम्बे समय से देश के अन्दर ऐसी जगह की जरुरत थी जो पाकिस्तान या बांग्लादेश का स्थनापन्न बन सके। जो यह सिद्ध करे कि हिन्दुस्तान का मुसलमान सिर्फ इस्लामिक आतंकवाद का हथियार मात्र नहीं है बल्कि वह खुद इसे स्थापित करने के लिए तंजीमें बना रहा है। आज हालात यह हो गए हैं कि किसी भी घटना के तुरंत बाद आजमगढ़ का नाम ले लिया जा रहा है। हालफिलहाल में चैनलों और अखबारों में रक्षा विशेषज्ञों की बाढ़ सी आ गई है। ये रक्षा विशेषज्ञ नाम के रक्षा विशेषज्ञ हैं दरअसल इन्हें सरकारी ऐजेन्ट कहना ज्यादा मुनासिब होगा। एक रक्षा विशेषज्ञ प्रकाश सिंह का लेख हिंदुस्तान में छपा था जिसमें उन्होंने चिंता जाहिर की थी आजमगढ़ में इतने मदरसे कैसे बने, इनके पैसे का स्रोत क्या है वगैरह-वगैरह। खैर नययर साहब तो हम सभी को याद ही हों गंे जिन्होंने 49 में बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ती रखवायी और इतने बडें विवाद को जन्म देकर खुद जन संघ की गोदी में जाकर बैठ गए। दरअसल हमारी पूरी पुलिसिया प्रणाली हिंदुत्वादी परिधि में ही पलती-बढती है यह संयोग नहीं बहुत सारे हमारी सेना और पुलिस से सेवानृवित्त लोगों के लिए संघ या भाजपा शरणगाह बनते है। स्वाभाविक भी है उनको इसके अलावा कहीं स्थान मिलने की गुजांइस भी नहीं है। और जब हमारी मीडिया इन रक्षा विशेषज्ञों के सहारे आतंकवाद जैसी राजनैतिक समस्या का निदान ला एंड आर्डर की परिधि में रहकर निदान सोचती है तो वह एक समुदाय पर हमले जैसे भावों को जन्म देती है।
2008 के नवंबर महीने में तीन दिन लगातार लखनऊ कचहरियों में हुए सीरियल धमाकों का हम चश्मदीद बनें। हर धमाके के बाद जहां चैनलों ने चलाया कि राजधानी फिर दहली तो वहीं अखबारों ने भी उससे कुछ कम नहीं किया और उन्होंने धमाकों का इतिहास बता डाला। जबकि तीनों दिन पेशाब खाने में ने सुतली बम फटा था और जिनकी छमता इतनी भर थी की वे दीवार का चूना तक नहीं छुड़ा पाए। पर मीडिया का क्या उसने यह कह की अब न्यायालय भी सुरक्षित पूरे जनमानस को दहला दिया। यहां पर 2007 में हुए कचहरी धमाकों के बारे में एक महत्वपूण जानकारी और जाननी चाहिए कि लखनऊ कचहरी में हुए साइकिल पर ब्लासट की छमता भी इतनी थी कि सीट की गद्दी भर उड़ पायी। जिसके आरोप में तारिक, खालिद जेल में हैं तो उनका मास्टर माइंड जिसे मीडिया ने बताया था आफताब आलम अंसारी रिहा हो चुका है। तो वहीं फैजाबाद कचहरी में हुए धमाकों भाजपा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष जो फैजाबाद के दंगाइयों की लिस्ट में हैं के बिस्तर पर हुए और दोनों घटना के समय चंपत थे। ऐसे कईयों सवालों को मीडिया ने जानकर नहीं लिखा क्योंकि ऐसा करने से आतंकवाद की उसकी मार्केट नानसीरियस यानी सनसनी कम हो जाएगी जिससे उसके कारोबार पर असर पडे़गा। अगर आकड़ा निकाला जाय की आतकवाद से हुयी छति और मीडिया के मुनाफे की तो वह सैकड़ो गुना होगी।
23 दिसंबर 07 को मुख्यमंत्री को मारने आए दो लोगों का लखनऊ के चिनहट में इनकांउंटर किया गया। चिनहट को अपराध की दुनिया में एनकाउंटर जोन के नाम से जाना जाता है। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पुलिस अधिकारी जब कहा कि हमने सर्विलांस के जरिये आपरेशन को अंजाम दिया। तो एक पत्रकार ने जब सवाल किया कि उनके पास से जब मोबाइल की बरामद ही नहीं हुयी तो कैसे सर्विलांस के जरिये उन तक पहुंच बनाई गई। ऐसे कईयों सवाल एनकाउंटरों पर उठते हैं पर क्यों कि हमारे यहां यह माना जाता है कि पुलिस असल में एनकाउंटर कर ही नहीं सकती। पर हमारी और हमारे पत्रकारों के दिमाग में जब हिंदू मारा जाता है तो ऐसा सोचा जाता है पर मुस्लिम के मारने पर यह सवाल नहीं उठता। बाद में पता चला की मारे गए दोनों कश्मीरी साल बेचने वाले थे। सवाल नहीं उठा क्योंकि कश्मीर और पाकिस्तान के बारे में एक से विचार हैं और उनकी परिणति भी हम इसी रुप में देखते है। हिंदुस्तान के प्रथम पृष्ठ पर छपे मृतकों के शवों की स्थिति और उनके हाथों में जिस तरह असलहा डाला गया था उस पर प्रथम दृष्टया ही सवाल उठ जाता है पर मीडिया के कामन सेंस में ऐसी घटनाओं का नजरअंदाज करना ही प्रवृत्ति बन गयी है। ऐसी प्रेस कानफ्रेसों में अक्सरहां यह देखने को मिलता है कि जब उर्दू के पत्रकार सवाल जवाब करने लगते है तो उन्हें अलग-थलग करने की कोशिश खुद मीडिया के लोग करते हैं। और जैसा की उर्दू के पत्रकार मुस्लिम समुदाय के ही होते हैं उनके राष्ट्रवाद पर भी सवाल उठाए जाते हैं। चाहे वो दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, मालेगांव की घटनाएं हो या फिर मुंबई हमले की राष्ट्रीय सहारा उर्दू के संपादक अजीज बर्नी ने उन पर जो तथ्यात्मक ढ़ग से सवाल उठाए उनको भी मुख्य धारा की मीडिया और प्रगतिशील खेमें के एक धडे़ ने इग्नोर कर दिया जो दरअसल हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान वाली मानसिकता है।
31 दिसंबर 07 की रात रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर हमले की बात कही गयी। यह इस दौरान की ये वोे घटना है जो आतंकी नहीं बल्कि नये साल के जश्न में दारु के नशे में धुत जवानों द्वारा आपस में ही गोली चलाने की घटना थी। जिसकी पुष्टि रामपुर के स्थानीय अखबारों में छपी खबरें ही करती हैं। घटना स्थल पर मौजूद कैलाश और ममता के बयानों वाली खबरों से यह बात सामने आयी थी। घटना से ध्यान बटानें के लिए सीआरपीएफ के अधिकारियों ने कैंप के ही एक जवान जावेद पर आरोप लगाया। फिर क्या था मीडिया ने जावेद को प्रत्यर्पित आतंकवादी की ऐसी हवा बनाई कि घटना दूसरे दिशा में घूम गयी ‘सीआरपीएफ का एक जवान हिरासत में’ अमर उजाला । पर जल्द ही कश्मीर के अधिकारियों के बयान के बाद कि वो कोई प्रत्यर्पित आतंकवादी नहीं था मीडिया की हवा निकल गयी। पर बाद में इस घटना के लिए लश्कर-ए-तैयबा को जिम्मेदार ठहराया गया। जैसे-जैसे सियासी पारा गर्म हुआ ये खबरें और सवाल कि आतंकी कैसे आए थे, हजारों ‘रगरुटों’ की चैकसी में कैसे घटना को अंजाम दिया गया हो या फिर घटना स्थल पर मिले सामानों के फिंगर प्रिंट पर उठे सवाल सब मुख्य धारा की मीडिया से गायब हो गए। कैसे? इस बात को समझने के लिए केन हेवुड बहुत अच्छा उदाहरण है। केन हेवुड को जो लोग भूल गए हांे उन्हें याद करना चाहिए कि केन हुवुड वो शक्स हैं जिनके कम्प्यूटर से अहमदाबाद धमाकों के लिए इंडियन मुजाहिद्दीन का मेल जारी किया गया था। पर वो कहां गया क्यों उसे आतंकी घटनाओं की तफ्तीश से बाहर कर दिया गया और बिना बताए कैसे वह देश से भाग गया या भगा दिया गया। क्या ऐसा नहीं हो सकता की वह किसी अमेरिकी एजंेसी से जुड़ा था और क्या आज से बीस-पच्चीस साल पहले मीडिया इस सवाल को इतनी आसानी से नजरअंदाज कर सकती थी। इसी तरह मुंबई हमलों के बाद डेक्कन मुजाहिद्दीन का नाम खूब आया और उसके खतरनाक मंसूबे के बारे में खूब चैनलों ने चिल्लाया। पर डेक्कन मुजाहिद्दीन का अब अता-पता ही नहीं है। मुंबई हमलों के बाद पश्चिम बंगाल के बांग्लादेश बार्डर क्षेत्र से कुछ लोगों को सिम कार्डों के साथ गिरफ्तार किया गया और कहा गया कि वे घटना में शामिल थे पर आज वो कहां है इसका किसी को अता-पता नहीं है। बहुत तेजी से बदलते घटना क्रमों के साथ पुलिस के मास्टर माइंड भी बदल जाते और मीडिया के भी। कुछ हमारे मीडिया के साथी कहते हैं क्या करे दुनिया बहुत तेज हो गयी है दुनिया के साथ चलना पड़ता है। पर दुनिया की रफ्तार में कितने अपने लोगों का मानवाधिकार हनन हो रहा है अब उनके लिए यह सवाल नहीं रह गया है। कई सवाल हमसे छूट गए हैं जिन पर सवाल उठाने पर आपके राष्ट्रवाद पर सवाल उठ जाता है।
संसद में जब विपक्ष ने मुंबई हमलों की जांच कराने की बात कही तो सरकार ने कहा कि उसने क्यों नहीं कंधार और संसद हमले की जांच करायी। तो वहीं जब कानपुर में बजरंगी बम बनाते उड़ गए तो श्रीप्रकाश जायसवाल ने सीबीआई जांच कराने की बात कही तो उस पर मायावती ने कहा कि आगे वह सीआरपीएफ कैंप हमले की और कचहरी बम धमाकों की जांच कराए। यहां एक घटना पर गौर करना होगा कि जब जयपुर धमाके हुए तो भाजपा की सुषमा स्वराज ने कहा कि इन धमाकों में कांग्रेस की भूमिका है। जिसको बाद में मीडिया ने बड़ी आसानी से विस्मृत कर दिया। पर ये एक गंभीर बात थी। क्योंकि यह आरोप किसी सामान्य बात पर नहीं बल्कि आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर था। मालेगांव से तो यह बात प्रमाणित भी हो गयी है कि राजनीतिक दल के लोग भी आतंकवाद में लिप्त है।
यहां इन घटनाओं पर गौर करे तो मीडिया सिर्फ सत्ता तंत्र की साधन मात्र नहीं है। बल्कि वह गाहे-बगाहे अगर कोई बात लीक होती है तो उनको कंट्रोल कर उनके सांप्रदायिक एजेंडे को याद दिलाकर लाइन पर ला देती है। जैसे उसका यह जुमला कि- राजनीतिक दल अपने निजी स्वार्थों की पूर्ती के लिए देश को खतरे में डाल रहे हैं। मुबई हमले के बाद श्रीप्रकाश जायसवाल तक ने कहा था कि कोई भी जांच मालेगांव के आरोपियों को परिधि में रखकर की जाएगी। पर मीडिया ने इस पूरे सवाल को नजरअंदाज कर पाकिस्तान विरोधी युद्धोन्माद खड़ा किया और देश की राजनीति कुछ नहीं कर सकती की ऐसी बयार चलायी कि सब सवाल गायब हो गए। यह बयार एक वक्त बाद इतनी तेज हो गयी की सरकार तक ने पाकिस्तान पर हमला करने की बात कह दी क्योंकि इससे उन जन भावनाओं को संतुष्ट किया जा सकता था। जिसे मीडिया ने पैदा किया था।
सूरत में नाली-नालों से लेकर होर्डिंग पर प्रकट हुए बमों की घटना तो विस्मृत होने वाली घटना नहीं है। पर इन बमों को किसने खोजा यह बात बहुत रोचक है जिसकी खोज हिंदुस्तान के अजित गांधी ने की थी। ‘सूरत में मिला 28वां बम यह भी नहीं फटा क्योंकि---’ में लिखा कि इन बमों को धमाकों के बाद मुस्तैद, प्रशिक्षित, और तमाम उपकरणों से लैस पुलिस वालों ने नहीं बल्कि चंद लोगांे ने खोज निकाला उन्होंने जहां हाथ डाला वहां बम निकाल दिया। बमों को खोजने वाले पहले व्यक्ति विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण भल्ला थे। जिनसे पूछने पर कि कैसे उन्हें बमों की जानकारी हुयी तो वे अपने उस सूचना देने वाले दोस्त का नाम भूल गए थे। बमों की धरपकड़ में दूसरा नाम भाजपा के कारपोरेटर भीमजी बुधना का था। बुधना ने अपनी टीम के साथ मिलकर ग्यारह बम निकाले थे। पर इनको भी भल्ला की तरह बम की सूचना देने वाले साथी का नाम भूल गया था। सबसे अद्भुत तो तब हुयी जब बम निरोधक दस्ते ने कहा कि उसे बमों पर फिंगर प्रिट नहीं मिले जिसका कारण उसने बताया कि बम निष्क्रिय करने वालों के पसीने की वजह से प्रिंट के निशान मिट गए। इतनी महत्वपूर्ण इन सूचनाओं को जिस तरह से नजरअंदाज कर मीडिया अपने राग अलापने में मस्त हो गई इसे भूल नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ये सब कुछ प्रायोजित तरीके से चल रहा है।
इसका पर्दाफाश स्वामी अग्निवेश ने सुदर्शन चैनल की एक सीडी जारी कर किए। मालेगांव मोंडासा बम ब्लास्ट 9/30 पर हुए और ठीक 9/30 पर सुदर्शन चैनल ने इसकी ब्रेकिंग न्यूज चलायी जो यह स्पष्ट करता है कि चैनल को धमाकों के बारे में जानकारी थी। क्यों कि किसी भी धमाके की सूचना, उसकी पुष्टि और उसे चलाने में दस से पंद्रह मिनट लग जाते हैं पर यहां धमाकों का टाइम व ब्रेकिंग न्यूज का टाइम एक था। यहां यह जानना जरुरी है कि सुदर्शन टीवी के मालिक सुरेश चव्हाण और साध्वी प्रज्ञा एक साथ अखिल विद्यार्थी परिषद में काम करते थे।

कथादेश के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित

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