अरविंद चतुर्वेदी
माओवादी हिंसा और माओवादियों का प्रसार सभी लोकतंत्रवादियों के लिए आज चिंता का विषय बन चुका है और इस समस्या के निर्मूलन के लिए कई कोण से विचार किया जा रहा है। अब तलक मु य रूप से दो तरह की बातें सामने आई हैं। एक तो यह कि ईंट का जवाब पत्थर से देकर माओवादी नक्सलियों को कुचल दिया जाए। यानी शठे शाठ्यम समाचरेत की नीति पर चला जाए। दूसरी यह कि हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा नहीं हो सकती इसलिए उन कारणों का निदान किया जाए जिनके रहते माओवादी विभिन्न अंचलों में स्थानीय जनसमर्थन हासिल कर ले रहे हैं और इलाकाई आबादी के असंतोष व उत्पीड़न-शोषण का सवाल उठाकर उनकी आड़ में अपने खतरनाक खूनी इरादों को अंजाम दे रहे हैं। शायद यह तरीका ज्यादा बेहतर होगा कि पहले इलाकाई आबादी का भरोसा हासिल करके खूंखार माओवादियों को उनसे अलग-थलग किया जाए और तब उनको वही पाठ पढ़ाया जाए जिसके कि वे लायक हैं। शायद ऐसा ही कुछ सोचकर झारखंड में केंद्र सरकार ने विवेकपूर्ण फैसला लेते हुए पिछले दिनों एक लाख आदिवासियों के ऊपर से जंगलात से जुड़े मामूली किस्म के मुकदमों को उठाकर एक तरह से आम माफी दी थी। गौर करने की बात है कि हिंसा का समाधान अगर प्रतिहिंसा से हो पाता तो छत्तीसगढ़ में माओवादियों के मुकाबले राज्य सरकार की मदद से खड़ा किए गए सलवाजुडूम के बंदूकधारी कब का माओवादियों को खदेड़ चुके होते। ऐसा तो हुआ नहीं, उल्टे इलाकाई आदिवासी हिंसा के दुष्चक्र में फंस गए हैं और उनकी जिंदगी दुश्वार हो गई है। असली जरूरत आदिवासियों के हाथ में सलवाजुडूम मार्का बंदूक थमाने की नहीं, बल्कि उनको रोजगार देने, स्वास्थ्य-शिक्षा, आवास की बुनियादी जरूरतें पूरी करने और जल-जंगल-जमीन पर आधारित पार परिक जीवन के अनुकूल वातावरण व सुविधाएं देने की है।
उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में आदिवासी बहुल लालगढ़ के माओवादियों द्वारा अपNत सांकराइल थाने के आफिसर इंचार्ज अतींद्र नाथ दत्त की विवादास्पद वापसी के एवज में 13 गरीब महिलाओं समेत जिन 23 ग्रामीणों को झाड़ग्राम की अदालत द्वारा जमानत पर छोड़ा गया है, वे बेचारे क्वमाओवादी गेहूं के साथ पिस जानेवाले घुनं साबित हुए हैं। महीनेभर बाद जमानत पर छूटकर अपनी बस्ती में पहुंची ज्यादातर महिलाएं जंगल से पžो चुनकर और जलावन की लकçड़यां बीनकर अपना व अपने बच्चों का पेट भरती हैं। सो, वह चाहे लालगढ़ और छत्तीसगढ़ हो या फिर झारखंड और दूसरे माओवाद-आक्रांत इलाके हों- निर्दोष आम लोगों को माओवादियों के खिलाफ की जानेवाली कार्रवाई के लपेटे से सावधानी पूर्वक बचाने की भी जरूरत है। अव्वल तो सवाल यही है कि अपनी चुनी हुई दीघüजीवी वाममोर्चा सरकार के मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों और प्रशासन पर इलाकाई लोगों का भरोसा न होकर गणपति, किशनजी और छत्रधर महतो सरीखे माओवादी कमांडरों पर इलाकाई लोगों को भरोसा ही क्यों होने लगता है? क्या इससे वाममोर्चा सरकार की अनदेखी और निक मेपन के साथ ही प्रशासनिक भ्रष्टाचार व अतिचार उजागर नहीं होता? दूसरे, यह कैसे माना जा सकता है कि समूचे के समूचे आदिवासी अंचल और राज्यों की बड़ी आबादी ही माओवादी या नक्सली हो गई है! किसी इलाके में सुरक्षा बलों की गश्त रोकने या तलाशी अभियान में बाधा डालने के मकसद से अगर हथियारबंद माओवादी बंदूक की नोक पर सड़क खेदवाना चाहें या पेड़ कटवाकर रास्ता रोकना चाहें तो इलाके के ग्रामीण इच्छा न रहते हुए भी क्या जबरन ऐसा करने को बाध्य नहीं होंगे? रात-बिरात किसी बस्ती में चार बंदूकधारी माओवादी धमक जाएं और कहें कि लो, पैसा और अनाज, खाना बनाकर खिलाओ, आज यहीं रात गुजारेंगे तो बस्तीवाले उन्हें खाना खिलाने के बजाय क्या उनकी गोली खाएंगे? इसका मतलब यह समझना कि सारी बस्ती या समूचा इलाका ही नक्सली हो गया है, शायद गलत होगा और समस्या का सरलीकरण करना भी।
माओवादी हमारी सियासी गलतियों के चलते अगर लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही चुनौती दे रहे हैं तो इसे महज कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर चलना भारी भूल होगी। असल में प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अंधेरगदीü ऐसे मर्ज हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अशक्त और बीमार बनाए जा रहे हैं।
सभी जानते हैं कि जिस तरह लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं हो सकती, उसी तरह लोकतंत्र कभी एकधु्रवीय भी नहीं हो सकता। लोकतंत्र की मजबूती के लिए पक्ष और विपक्ष का मजबूत होना ही जरूरी नहीं है, बल्कि बहुदलीय व्यवस्था को बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है, क्योंकि बहुदलीय व्यवस्था लोकतंत्र को कहीं अधिक प्रभावकारी और गत्यात्मक बनाती है- वह लोकतंत्र को जनाभिव्यçक्त का आईना बनाती है। इसी लोकतंत्र की हिफाजत के लिए आम आदमी की तरफदारी में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया से लेकर जय प्रकाश नारायण तक न जाने कितनों ने संसद से लेकर सड़क तक संघर्ष किया है।
पश्चिम बंगाल में तो खैर वाममोर्चा की तथाकथित क्वजनददीü सरकारं का पाखंड उजागर हो ही चुका है, लेकिन राज्य में पांव पसार चुके माओवादी उत्पात के लिए कभी सीधे तो कभी घुमा-फिराकर विपक्षी तृणमूल कांगे्रस को जि मेदार ठहराने की कोशिश करना दरअसल समस्या को और जटिल व उलझाऊ बनाने वाला है। केंद्र सरकार में शामिल तृणमूल कांगे्रस की नेता ममता बनर्जी खुद रेल मंत्री हैं और अभी चार दिन पहले भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस पर माओवादियों के कब्जे को लेकर वे उनपर बिफर चुकी हैं- उनकी लानत-मलामत कर चुकी हैं। इसके बावजूद बुद्धदेव सरकार के लिए चुनौती बन चुकी ममता बनर्जी पर हमले के लिए अगर सत्तारूढ़ वाममोर्चा माओवादियों का नाम हथकंडे की तरह इस्तेमाल कर रहा है तो इससे बड़ा क्वलोकतांत्रिक दुभाüग्यं और क्या हो सकता है? पश्चिम बंगाल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष के दो जरूरी पहलुओं के साथ माओवादी नक्सलियों को तीसरे कोण की तरह प्रस्तुत करने का जो अनर्थ जाने-अनजाने किया जा रहा है, वह सबके लिए बेहद खतरनाक है।
माओवाद की समस्या जितनी जटिल और गहरी है और उसे निमूüल व निरस्त करने के लिए ईमानदारी और दृढ़ता पूर्वक बहुस्तरीय तरीके से जितना काम किया जाना चाहिए, उसकी कमी दिखाई देती है। एक सरलीकरण यह भी किया जा रहा है कि पशुपतिनाथ से तिरुपति तक माओवादियों ने रेड कॉरीडोर तैयार कर लिया है। हालांकि नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड ने इस पर कैफियत दी है कि नेपाल के माओवादियों का भारत से कोई लेना-देना नहीं है और न यहां से उनके तार जुड़े हैं, लेकिन अगर ऐसा है, तब तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए और भी चिंताजनक है। इसलिए कि नेपाल में तो माओवादियों की लड़ाई सर्वसत्तावान राजा और राजशाही से थी, लेकिन हमारे यहां तो बाकायदा लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई जनता की सरकारों और जनप्रतिनिधियों के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोल रखा है। इसलिए जरूरी है कि माओवादी समस्या को एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक हथकंडा न बनाया जाए।
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