07 नवंबर 2009

'माओवाद' : कंपनियों को खजाना और जनता को मौत बांटती सरकार

♦ अरुंधती रॉय

दक्षिणी उड़ीसा की हल्की ऊंची और सपाट चोटी वाली पहाड़ियां डोंगरिया कोंध आदिवासियों के घर हैं। तब से जब उड़ीसा नाम के किसी राज्य और भारत नाम के किसी देश का अस्तित्व भी नहीं था। उन पहाड़ियों ने कोंधों का खयाल रखा। कोंधों ने उन पहाड़ियों को सहेजे रखा। उनकी पूजा की। एक जीवित भगवान की तरह। लेकिन अब बॉक्साइट के कारण उन पहाड़ियों को बेच दिया गया है। कोंध आदिवासियों को लगता है कि उनका भगवान बेच दिया गया है। वो पूछ रहे हैं कि अगर उनके देवता की जगह राम, अल्ला या ईसा मसीह होते तो क्या उन्हें बेचा जाता?

शायद, कोंधों से अहसानमंद रहने की उम्मीद की जाती है। इसलिए कि नियामगीरी पहाड़ी जो कि उनके देवता नियाम राजा (यूनिवर्सल लॉ के भगवान) का घर है, एक ऐसी कंपनी को बेची गयी है जिसका नाम है वेदांता। वेदांता मतलब हिंदू दर्शनशास्त्र की वो शाखा जो ज्ञान की सर्वोच्च प्रवृति सिखाती है। वेदांता दुनिया की सर्वाधिक बड़ी खनन कंपनियों में से एक है और इसके मालिक हैं अनिल अग्रवाल। भारतीय मूल के अरबपति जो लंदन के एक महल में रहते हैं। वह महल एक जमाने में ईरान के शाह का हुआ करता था। वेदांता उन ढेरों बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से महज एक नाम है, जिन्होंने उड़ीसा की तरफ़ रुख किया है।

अगर सपाट चोटी वाली पहाड़ियां नष्ट हुईं तो उन्हें ढकने वाले जंगल नष्ट हो जाएंगे। उनके साथ ही वहां से निकलने वाली धाराएं और नदियां सूख जाएंगी। मैदानी इलाकों को यही नदियां पानी पहुंचाती हैं। सींचती हैं। उनके सूखने से डोंगरियां कोंध बर्बाद हो जाएंगे। जंगलों में रहने वाले हज़ारों हज़ार आदिवासी ऐसे ही संकट में हैं। उनके वतन पर हमला हुआ है।

धूल और धुएं से भरे सघन आबादी वाले शहरों के कुछ वाशिंदे कहते हैं “तो क्या हुआ? विकास की कीमत किसी को तो चुकानी ही होगी।“ कुछ यह भी कहते हैं कि “इस सच का सामना करो। इन लोगों का वक़्त पूरा हो गया है। किसी भी विकसित देश, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया को देखो – उन सभी का एक अतीत था। यकीनन था। तो हम भी अपने अतीत को दफ़्न क्यों नहीं कर दें?”

इसी विचार को केंद्र में रखते हुए सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन हंट का एलान किया है। यह मध्य भारत के जंगलों में छिपे माओवादी विद्रोहियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा है। यकीनन, सिर्फ़ और सिर्फ़ माओवादी ही बग़ावत नहीं कर रहे। देशभर में कई स्तरों पर संघर्ष हो रहा है। भूमिहीन, दलित, बेघर, मज़दूर, किसान और बुनकर – आंदोलन कर रहे हैं। वो सभी निरंतर हो रहे अन्याय और तानाशाही से दुखी हैं। वो उन नीतियों से आहत हैं जो कंपनियों को उनकी ज़मीन पर कब्जा करने का हक़ देती हैं। फिर भी सरकार ने सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर माओवादियों की ही निशानदेही की है। दो साल पहले प्रधानमंत्री ने माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया। तब हालात इतने बदतर नहीं थे, जितने आज हैं। मनमोहन सिंह ने शायद सबसे अधिक बार यही बात कही है।

18 जून 2009 को मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की वास्तविक चिंता जाहिर की। संसद में उन्होंने कहा कि “अगर वामपंथी चरमपंथियों को देश के उन हिस्सों में फलने-फूलने दिया गया, जिनमें खनीज पदार्थ और दूसरी प्राकृतिक संपदाएं हैं तो निवेश का माहौल यकीनन बिगड़ेगा।”

माओवादी कौन हैं? वो प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) – सीपीआई (माओवादी) के सदस्य हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – सीपीआई (एमएल) की कई संतानों में से एक। जिन्होंने 1969 में नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया और बाद में भारतीय सरकार ने जिन्हें ख़त्म कर दिया। माओवादी मानते हैं कि भारतीय समाज में अंतर्निहित संरचनात्मक खामियों को हिंसक विद्रोह के जरिए सरकार को बेदखल करके ही दूर किया जा सकता है। बिहार और झारखंड में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) के रूप में माओवादियों ने जनसमर्थन हासिल किया। 2004 में जब आंध्र प्रदेश में कुछ समय के लिए उन पर से प्रतिबंध हटाया गया तो वारंगल में हुई उनकी रैली में पांच लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन आंध्र प्रदेश में समझौते की कोशिश बहुत बुरे मोड़ पर ख़त्म हुई। उसके बाद जो हिंसा का ख़ौफ़नाक दौर शुरू हुआ उसने उनके कई घोर समर्थकों को भी विरोधी बना दिया। आंध्र प्रदेश पुलिस और माओवादियों के बीच हुए ख़ूनी संघर्ष में पीडब्ल्यूजी का लगभग सफाया हो गया। जो बच गये वो पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में दाखिल हो गये। घने जंगलों के बीच वो उन साथी माओवादियों से जा मिले जो उन इलाकों में कई दशकों से सक्रिय थे।

जंगल में चल रहे माओवादी आंदोलन से बाहरी दुनिया के चंद लोगों का ही सीधा परिचय हुआ होगा। हाल ही में ओपन पत्रिका में छपे उनके उनके शीर्ष नेताओं में से एक कॉमरेड गणपति के इंटरव्यू से भी उन लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है जो माओवादियों को तानाशाही सोच रखने वाले दल के तौर पर देखते हैं। एक ऐसा दल जिसे असहमति बर्दाश्त नहीं।

कॉमरेड गणपति ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे यह भरोसा जगे कि अगर कभी वो सत्ता में आये तो जातियों में बंटे भारतीय समाज की उन्मादी अनेकता को संबोधित… सही तरीके से करेंगे। श्रीलंका में चले लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम को अनौपचारिक समर्थन से उनसे घोर सहानुभूति रखने वाले भी कांप उठे होंगे। न केवल इसलिए कि एलटीटीई ने अपनी लड़ाई में क्रूरतम हथकंडों का इस्तेमाल किया बल्कि इसलिए भी कि जिन तमिलों के प्रतिनिधित्व का एलटीटीई दावा करती थी, उन तमिलों पर एलटीटीई की वजह से जो विपदा पड़ी है उसे उसकी कुछ तो जिम्मेदारी लेनी ही होगी।

इस वक़्त मध्य भारत में, माओवादियों के छापामार दस्ते में ऐसे जरूरतमंद गरीब आदिवासी शामिल हैं जो ऐसी भूखमरी के कगार पर थे, जिसका जिक्र हम अफ्रीकी देशों के संदर्भ में करते हैं। ये सभी वो लोग हैं जिन्हें साठ साल की आज़ादी के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायिक जरूरतों से दूर रखा गया। ये वो लोग हैं जिनका बेरहमी से शोषण किया गया। छोटे कारोबारियों और सूदखोरों के द्वारा दोहन किया गया। पुलिस और वन विभाग के कर्मचारियों ने महिलाओं से ऐसे बलात्कार किया जैसे यह कुकर्म उनका अधिकार हो।

अगर आदिवासियों ने हथियार उठाया है तो सिर्फ़ इसलिए कि सरकार ने उन्हें हिंसा और उपेक्षा से अधिक कुछ नहीं दिया है। और अब वही सरकार उनसे उनका आखिरी सहारा – उनकी ज़मीन भी छीन लेना चाहती है। साफ़ है कि आदिवासी सरकार के इस कथन पर भरोसा नहीं करते कि वो उनका विकास करना चाहती है। उन्हें इस पर भी भरोसा नहीं कि दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनीज विकास कॉरपोरेशन (NMDC) ने जंगलों में हवाईपट्टियों जितनी चौड़ी-चौड़ी सड़कें इसलिए बनाई हैं कि उनके बच्चे स्कूल जा सकें। वो मानते हैं कि अगर उन्होंने अपनी भूमि के लिए संघर्ष नहीं किया तो वो ख़त्म हो जाएंगे। यही वजह है कि आज उनके हाथों में हथियार है।

माओवादी आंदोलन के अगुवा भले ही सरकार को सत्ता के बेदखल करने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन उन्हें अहसास है कि उनकी भूखी और कुपोषित सेना – जिनके ज़्यादातर सदस्यों ने कभी ट्रेन, बस और शहरी ज़िंदगी को क़रीब से नहीं देखा है – के लिए यह केवल अस्तित्व की लड़ाई है।

2008 में योजना आयोग की तरफ़ से नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। उस रिपोर्ट का नाम है – “उग्रवाद प्रभावित इलाकों में विकास की चुनौतियां”। इसमें लिखा है कि – नक्सली आंदोलन को भूमिहीन गरीब किसानों और आदिवासियों के बीच जनाधार वाले एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर मान्यता देनी होगी। स्थानीय लोगों के अनुभवों और सामाजिक हालात के संदर्भों में नक्सली आंदोलन के उत्थान और विस्तार को समझने की ज़रूरत है। राज्य की नीतियों और उन नीतियों पर अमल में मौजूद ग़हरी खाई उन्हीं हालत में से एक है। यह सही है कि इसकी विचारधारा… ताक़त के बल पर सत्ता हासिल करना है, लेकिन रोज़मर्रा के क्रिया कलापों में इसे सामाजिक न्याय, समानता, रक्षा, सुरक्षा और स्थानीय विकास के लिए चल रहे संघर्ष के तौर पर देखना होगा।” यह “आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे” के सिद्धांत से काफी अलग है।

माओवादी विद्रोही इन दिनों चर्चा का विषय हैं। चमकते हुए अमीर से लेकर सबसे अधिक बिकने वाले अख़बार के सनकी संपादक तक – हर कोई अचानक यह मानने को तैयार हो गया है कि दशकों से हो रहा अन्याय ही इस समस्या की जड़ है। लेकिन उस समस्या को समझने की जगह, जिसका मतलब होगा 21वीं सदी की इस सुनहरी दौड़ का थम जाना, वो इस बहस को एक नया मोड़ देने में जुटे हैं। माओवादी “आतंकवाद” के ख़िलाफ़ भावनात्मक गुस्से का इज़हार करते हुए … चीखते-चिल्लाते हुए। लेकिन वो सिर्फ़ अपने आप से बातें कर रहे हैं।

जनता जिसने हथियार उठा रखा है, वह टेलिविजन देखने और अख़बार पढ़ने में अपना वक़्त खर्च नहीं करती। “हिंसा सही है या ग़लत? अपने जवाब …. पर एसएमएस करें” – जैसे नैतिक सवालों पर वो अपना दिमाग नहीं खपाती है। वो अपने इलाकों में … अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वो मानते हैं कि अपने घर, अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई लड़ने का उन्हें पूरा अधिकार है। उनका विश्वास है कि उन्हें न्याय मिलना ही चाहिए।

अपने खुशहाल नागरिकों को इन ख़तरनाक लोगों (आदिवासियों) से सुरक्षित रखने के लिए सरकार ने इनके ख़िलाफ़ युद्ध का एलान कर दिया है। सरकारी बताती है इस युद्ध को जीतने में तीन से पांच साल लग सकते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि मुंबई हमले के बाद भी भारत सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिए तैयार है? चीन से बात करने के लिए तैयार है, लेकिन अपने ही देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता के ख़िलाफ़ युद्ध के बारे में उसका रवैया सख़्त है।

आदिवासी इलाकों में ग्रेहाउंड्स (कुत्ते की एक खूंखार प्रजाति), कोबरा (सांप की सबसे विषैली प्रजातियों में से एक) और स्कॉर्पियन (बिच्छू) जैसे डरावने नामों वाले स्पेशल पुलिस के दस्तों को नरसंहार का लाइसेंस दिया जा चुका है, लेकिन लगता है यह काफी नहीं है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और कुख्यात नगा बैटेलियन ने जंगलों में बसे गांवों में पहले से क़हर बरपा रखा है, लेकिन यह भी काफी नहीं। आदिवासियों को हथियार थमा कर सलवा जुडुम का निर्माण करना भी काफी नहीं। वो सलवा जुडुम जिसने हत्या, बलात्कार और आगजनी के बल पर दंतेवाड़ा के जंगलों में तीन लाख से भी ज़्यादा लोगों को या तो बेघर कर दिया है या फिर भागने पर मजबूर। लेकिन यह सब काफी नहीं।

शायद तभी सरकार ने आईटीबीपी और दूसरे अर्धसैनिक बलों के हज़ारों जवानों को तैनात करने का फैसला लिया है। बिलासपुर में नौ गांवों को विस्थापित करके सरकार एक ब्रिगेड मुख्यालय बनाना चाहती है। और राजनांदगांव में सात गांवों को विस्थापित करके एक एयरबेस बनाने की योजना है। जाहिर है यह फ़ैसले काफी पहले लिए गये होंगे। सर्वे किया गया होगा। जगह का चयन हुआ होगा। लेकिन युद्ध की चर्चा हाल-फिलहाल शुरू की गयी है। और अब भारतीय एयरफोर्स के हेलीकॉप्टरों को आत्मसुरक्षा के नाम पर हमले का अधिकार दे दिया गया है। देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता यही आत्मसुरक्षा का अधिकार मांग रही है लेकिन सरकार उसे यह अधिकार नहीं देना चाहती।

गोलीबारी किस पर? कोई यह बताएगा कि सुरक्षाबल… आतंकित हो कर भाग रहे आदिवासियों और माओवादियों में फर्क कैसे करेंगे? सदियों से आदिवासी तीर-कमान के साथ जंगलों में घूमते आये हैं – क्या अब उन्हीं तीर कमान के कारण उन्हें माओवादी घोषित कर दिया जाएगा?

क्या माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले अहिंसक लोग भी निशाने पर होंगे? जब मैं दंतेवाड़ा में थी, पुलिस अधीक्षक ने ऐसे 19 माओवादियों की तस्वीरें दिखाईं, जिन्हें उनके जवानों ने ढेर कर दिया था। मैंने उनसे पूछा कि मैं किस आधार पर कहूं कि ये माओवादी हैं? – उन्होंने जवाब दिया – देखिए मैडम उनके पास मेलेरिया की दवाएं और डिटॉल की बोतलें मिली हैं – ये वो सामान हैं जो यहां बाहर से आते हैं।

ऑपरेशन ग्रीन हंट आखिर किस तरह का युद्ध होगा? क्या हम कभी जान सकेंगे? पहले से ही जंगलों के भीतर से बहुत कम ख़बरें आती हैं। पश्चिम बंगाल में लालगढ़ को सेना ने घेर लिया था। जो भी वहां जाना चाहता उसे गिरफ़्तार कर लिया जाता और उसकी पिटाई की जाती। माओवादी बता कर। दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम, एक गांधीवादी आश्रम था। उसे हिमांशु कुमार चलाते थे। कुछ ही घंटों में उस आश्रम को मिट्टी में मिला दिया गया। युद्ध क्षेत्र से ठीक पहले यह एक ऐसी जगह थी जहां पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शोधार्थी और जांच टीमें ठहरा करती थीं।

इसी बीच भारत सरकार ने अपने सर्वाधिक घातक हथियार का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। रातों रात, हमारी इब्बेडिड मीडिया ने “इस्लामी आतंकवाद” के बारे में प्लांटेड, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन से भरी ख़बरों की जगह “लाल आतंकवाद” के बारे में प्लांडेट, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन भरी खबरें दिखाना शुरू कर दिया। इस रैकेट के बीच, युद्ध मैदान में घोषित और दमघोंटू चुप्पी छाई हुई है। सुरक्षाबलों का घेरा कस दिया गया है। श्रीलंका की तर्ज पर समस्या को हल करने की नीति पर अमल हो रहा है। यह अकारण नहीं है कि तमिल टाइगर्स के ख़िलाफ़ श्रीलंका के युद्ध अपराधों की जांच की मांग से जुड़े यूरोपीय प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र में भारत ने विरोध किया।

इस दिशा में पहला कदम वह प्रचार है जिसके सहारे देश में चल रहे अनगिनत आंदोलनों को एक ही नाल में ठोंक देना है। ठीक अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के सिद्धांत के तहत कि “अगर तुम हमारे साथ नहीं” तो तुम “माओवादी” हो। सोची-समझी रणनीति के तहत माओवादी ख़तरे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से सरकार को सैन्यीकरण में मदद मिलती है। (इससे माओवादियों को भी कोई नुकसान नहीं है। आखिर कौन सी राजनीतिक पार्टी ऐसी होगी जो इतनी तवज्जो मिलने पर दुखी हो?)

आतंक के ख़िलाफ़ इस नये युद्ध से राज्य को अपने ख़िलाफ़ सिर उठा रहे सैकड़ों आंदोलनों को एक साथ ख़त्म करने का मौका मिल जाएगा। इस सैन्य अभियान में माओवादियों के शुभचिंतक बता कर सभी आंदोलनकारी साफ़ कर दिये जाएंगे। मैंने भविष्यकाल (फ्यूचर टेंस) का इस्तेमाल किया है, लेकिन यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर में यही किया। उसे मुंह की खानी पड़ी। लालगढ़ में पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेर कमेटी (पुलिस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनसाधारण समिति) – जो कि एक जन आंदोलन है, माओवादी आंदोलन नहीं – को बार-बार सीपीआई (माओवादी) का धड़ा बता दिया जाता है। उसके नेता छत्रधर महतो को गिरफ़्तार किया जा चुका है और माओवादी बता कर ज़मानत नहीं लेने दिया जा रहा।

हम सब पेशे से चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकार्ता डॉक्टर बिनायक सेन की दास्तान जानते हैं। उन्हें दो साल तक माओवादियों को मदद पहुंचाने के झूठे आरोप में दो साल कैद में रखा गया। जब सभी का ध्यान ऑपरेशन ग्रीन हंट पर होगा तब इस युद्ध क्षेत्र से अलग भारत के दूसरे हिस्सों में देश की बेहतरी के नाम पर गरीबों की जमीन के अधिग्रहण कार्रवाई तेज़ हो जाएगी। उनकी पीड़ा बढ़ती जाएगी और उनकी चीखों को सुनने वाला कोई नहीं होगा।

युद्ध शुरू हुआ तो तमाम युद्धों की तरह इसकी अपनी गति, तर्क और अर्थशास्त्र विकसित हो जाएगी। यह ज़िंदगी की ऐसी धारा बन जाएगी, जिसका रुख मोड़ना लगभग नामुमकिन होगा। पुलिस से सेना यानी हत्या की एक क्रूर मशीन की तरह बर्ताव करने की उम्मीद होगी। अर्धसैनिक बल पुलिस की तरह भ्रष्ट और सड़ चुके सुरक्षा बल की तरह बर्ताव करेंगे। नगालैंड, मणिपुर और जम्मू-कश्मीर में हमने यह सब देखा है।

इस मध्य भारत में एक फर्क यही रहेगा कि चीजे बहुत जल्द साफ़ हो जाएंगे। सुरक्षाबलों को भी यह अहसास हो जाएगा कि उनमें और जिन लोगों के ख़िलाफ़ वो लड़ रहे हैं कोई ख़ास अंतर नहीं है। वक़्त के साथ जनता और कानून लागू करने वालों के बीच खाई गहराती जाएगी। हथियार और गोलाबारूद खरीदे और बेचे जाएंगे। वास्तव में यह अब भी हो रहा है। चाहे वो सुरक्षाबल हों या फिर माओवादी या फिर अहिंसक नागरिक… सबसे गरीब जनता… अमीरों की इस जंग में मारी जा रही है। फिर भी अगर कोई यह मान रहा है कि इस युद्ध से उसकी सेहत पर असर नहीं पड़ेगा तो उसे दोबारा सोचना चाहिए। इस युद्ध में जो भी साधन खर्च होंगे उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर ज़रूर पड़ेगा।
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(मूलरूप से आउटलुक अंग्रेजी में प्रकाशित अनुवाद समरेन्द्र)

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