07 नवंबर 2009

'सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोशी का होगा'

-प्रभाष जोशी को एक आंदोलन की श्रद्धांजलि

अनुराग शुक्ला

ऑफिस से निकल चुका था लेकिन सिटी एडिशन से सुशील का फोन आया कि प्रभाष जी नहीं रहे. यकीन नहीं हुआ, टीवी चैनलों को उलटना पुलटना शुरू किया. लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी. दिल्ली के दो चार साçथयों को फोन लगाया. तब तक एनडीटीवी पर स्लग लैश हुआ कि प्रभाष जी नहीं रहे.

टीवी पर लिख के आ रहा था "जाने माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन" . उन शब्दों को पढ़ने समझने के बजाय प्रभाष जी की वह मूर्ति याद आ गई जब वह इलाहाबाद यूनिवçर्सटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने आए थे. बिल्कुल ठीक और तेवर के साथ. प्रभाष जी विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ जमकर बोले. सार्वजनिक मंच से बताया कि यूनिवçर्सटी में डिगि्रयां बेचने वालों ने उनको आंदोलन में न आने देने के लिए कितने कागद कारे किए. ये भी बताया कि कैसे उनके करीबियों से कहलवाया गए कि शिक्षा के निजीकरण विरोध आंदोलन में वो न आए. लेकिन प्रभाष जी आए और निजीकरण के दलालों की पोल भी खोली. सुनील उमराव और शहनवाज ने आंदोलन का पक्ष रखा तो प्रभाष जी भावुक हो गए और कहा कि मैं तो बुजुर्ग आदमी हूं, छात्रों की इस लड़ाई में अगर सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा.

प्रभाष जी के इन शब्दों ने वहां मौजूद छात्रों की लड़ाई को एक नया जोश नया जज्बा दिया था. व्यवस्था के एक प्रति मूधüन्य पत्रकार के गुस्से ने हम सबको एक नई ताकत दी थी. गेस्ट हाउस में प्रभाष जी से मिलने वालों की भीड थी. उसमें सत्ताकामी भी थे और सत्ता के प्रतिगामी भी. लेकिन प्रभाष जी अडिग थे. उन्होंने आंदोलन के समथन में बार-बार आने का वादा किया था.

प्रभाष जी ने कहा था कि अगर इस लड़ाई में सर कटाने की नौबत आई तो कटने वाला पहला सर प्रभाष जोषी का होगा. लेकिन हम से किसी को ये न मालूम था कि फिर से लौट कर आने का वादा करने वाले प्रभाष जी यूं चले जाएंगे. अभी तो उन्हें कितने कागद कारे करने थे. एमएनसी के दलालों के खिलाफ कितनी लड़ाई लड़नी थी. अभी कुछ दिनों पहले एक साथी से फोन पर बातचीत में उन्होंने हरियाण और महाराष्ट्र के चुनाव में अखबारों के खबरों के धंधे का खुलासा करने का वादा किया था. आज सुबह शहनवाज भाई का फोन आया बता रहे थे कि प्रभाष जी से बात करने की सोच रहा था कि एक पत्रकार महोदय शिक्षा के निजीकरण के आंदोलन को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं. लेकिन बात अधूरी रह गई. पत्रकारिता धर्म पर खरी बात करने वाला चुपचाप चला गया. अब कौन मीडिया के विज्ञापन के धंधे को उजागर करेगा. अब शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ तमाम दबावों को दरकिनार कर छात्रों का साथ देने कौन इलाहाबाद आएगा?

प्रभाष जी को हमारे और हमारे जैसे तमाम आंदोलनों की श्रद्धांजलि.

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