07 दिसंबर 2009

लोकतंत्र का नेतृत्व करेगी सेना

अनिल चमड़िया

भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह के राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहे हैं उसने एक बहस लोगों के बीच खड़ी कर दी है। संसद के लिए चुनाव तो होंगे लेकिन उसका नेतृत्व सेना के हाथों में होगा? श्रीलंका में लिट्टे का सफाया करने वाली सेना के प्रमुख सारथ फोन्सेका ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और वे अप्रैल में राष्ट्रपति के लिए होने वाले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी को सुनिश्चित करने में लगे हैं। महिन्दा राजपाकसा ने ये सोचा था कि लिट्टे पर जीत दर्ज करने का दावा कर वे अगले चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित कर चुके हैं।अब भले ही चुनाव में जिसे कामयाबी मिले लेकिन श्रीलंका में सेना एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो चुकी है। पाकिस्तान में जब चुनाव होते हैं तो सत्ता अप्रत्यक्षत सेना के नियंत्रण में होती है। बांग्ला देश में भी सेना का सत्ता पर नियंत्रण साफ दिखता है।इस तरह की स्थितियों के कारण साफ हैं। लोकतंत्र के बने रहने की अनिवार्य शर्त हैं कि लोगों की सुनी जाए।उनकी भागेदारी और हिस्सेदारी तय की जाए। इसे ही लोकतंत्र का विस्तार कहा जाता है। उल्टी स्थिति तब पैदा होती है जब समाज का कोई वर्ग लोकतंत्र पर अपने कब्जे का दावा पेश करने लगता हैं। तब वह वर्ग अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई में जोर जबरदस्ती और अपनी सेना के इस्तेमाल पर जोर देने लगता है।जबकि लोकतंत्र का यह स्वभाव है कि उसे लोगों के बीच उसके निरंतर विस्तार की स्थितियां मौजूद हो। इसी पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। लेकिन पहले एक बात यहां साफ कर लेनी चाहिए कि न तो लोकतंत्र की जमीन अचानक तैयार होती है और ना ही सैन्य शासन के अनुकूल स्थितियां खड़ी हो जाती है। उनका क्रमश विकास होता है। हम इस बात को याद कर सकते हैं कि आजादी के संघर्षों की परंपरा के नेता ये दावा करते रहे हैं कि भारत इतना विशाल देश है वहां कभी भी सैन्य शासन नहीं हो सकता है। लेकिन इस तरह के भाववादी दावे के बजाय हमें ठोस तर्कों के आधार पर इसकी पड़ताल करनी चाहिए। भारत में आज ऐसे कितने राज्यों के संख्या हो गई है जहां के संवैधानिक प्रमुख यानी राज्यपाल पुलिस या सेना की पृष्ठभूमि के हैं ?इसके जवाब के लिए राज्य सभा में एक प्रश्न महीनों से इंतजार कर रहा हैं। लेकिन जो दिखाई दे रहा है उसमें एक बात बहुत साफ हैं कि ऐसे राज्यों की संख्या आज भी अच्छी खासी है और पिछले कुछ वर्षों में इस संख्या के विकासक्रम को देखें तो ये कहा जा सकता है कि इस तरह के राज्यों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। जिस भी इलाके में कथित अशांति का दावा किया जाता है वहां शांति तो वापस नहीं आई लेकिन वहां संवैधानिक प्रमुख के रूप में सैन्य पृष्ठभूमि स्थायी रूप से काबिज हो गई। इसके कारण साफ है। सैन्य अपने आप में एक विचारधारा है और दूसरी किसी भी विचारधारा की तरह यह भी अपनी सत्ता को बनाए रखने की योजना बनाए रखती है।अशांति के बने रहने से ही वह अपने बने रहने के तर्क दे सकती है।अब इसके साथ ये भी देखा जा सकता है कि भारत जैसे देश में लगातार कथित अशांति के इलाकों का विस्तार हो रहा है और जहां जहां सत्ता ऐसे इलाकों को चिन्हित करती है उसे सैनिकों के हवाले करने की योजना में लग जाती है।देश के कई ऐसे इलाकों में सैन्य अड्डे स्थापित किए भी जा चुके हैं।सत्ता का सांस्कृतिक आधार लोक के बजाय सैन्य हो चुका है। दूसरी तरफ लोकतंत्र की स्थिति के लिए ये भी देखा जा सकता है कि चुनाव को ही लोकतंत्र मान लिया गया है और चुनाव में लोगों की हिस्सेदारी लगातार कम होती जा रही है।महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के दौरान गढ़चिरोली में सैन्यकर्मियों द्वारा लोगों को मतदान के लिए मतदान केन्द्रों तक ले जाने की तस्वीर काफी चर्चित हुई थी। जाहिर सी बात है कि जब लोक राजनीति की जगह नहीं बनेगी तो लोक सत्ता नहीं बनी रह सकती है। ऐसी स्थितियों में भारत के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि जो स्थितियां श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्ला देश जैसे छोटे देश में जितनी जल्दी विकसित हुई है उसकी तुलना में बड़ा देश होने के कारण यहां वैसी स्थिति के स्थापित होने में कुछ देर से हो सकती है। लेकिन अभी ये दावा किया जा सकता है कि आम जनजीवन में सैन्य हस्तेक्षप का तेजी से विस्तार हो चुका है।इसके कई उदाहरण देखे जा सकते है लेकिन यहां एक ही उदाहरण काफी है। आज जब भी लोकतांत्रिक चेतना की बची खुची ताकत के बूते पर कोई लोकतंत्र विरोधी कार्रवाईयों के लिए आवाज उठाता है तो उसे हिसंक कार्रवाईयों के समर्थक के रूप में पेश किया जाता है। जिस देश के बौद्धिक समाज को लोकतंत्र के लिए खतरा बने सवालों को उठाने पर ये कह दिया जाता है कि ये आतंकवाद की हिंसा का समर्थन है तो सत्ता कितनी सैन्य संस्कृति में डूब चुकी है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अमेरिका ने जब इराक पर हमला किया तो बुश ने यही तो कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवाद के साथ हैं। दरअसल पूरी दुनिया में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बन रही है उसमें लोकतंत्र के सवाल भी भूमंडलीकृत हुए हैं।लोकतंत्र का संकट किसी देश का अकेले संकट के रूप में नहीं रह गया है। किसी ताकतवर वर्ग के वर्चस्व वाले देश की चिंता ये नहीं है कि दुनिया में लोकतंत्र का विस्तार हो। हर ताकतवर देश अपने उपर किसी भी स्तर पर निर्भर अपेक्षाकृत कमजोर देश में वैसी ही सत्ता चाहता है जिससे कि उसके हित पूरे हो सके।ऐसी स्थितियों में वैसे देशों के लिए सैन्य रणनीतियों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं रह जाता है।इसीलिए अपेक्षाकृत कमजोर देशों में लगातार सैन्य सत्ता की स्थितियां बनती जा रही है। इस परिपेक्ष्य में एक अलग उदाहरण हमारे सामने आता है तो वह नेपाल का है। नेपाल में जिन माओवादियों को हिंसक आंदोलन का समर्थक कहा जाता था वे ही लोकतंत्र के लिए वहां संघर्ष कर रहे हैं। वहां वे एक ऐसी सेना के गठन की मांग पर अड़े हुए हैं जिससे देश में लोक-तंत्र स्थायीत्व ग्रहण कर सके। ऐसी सेना का निर्माण सर्वथा लोकतंत्र के हित में नहीं है जिसका कि लोकतंत्र की आवाज को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाए। जहां तक हिंसा की बात है उसमें तो सत्ता व उसकी कार्रवाईयों का विरोध करने वाली शक्तियां दोनों ही करती है। हिंसा की परिस्थितियों और उन परिस्थितियों में की गई हिंसा का आखिरकार क्या उद्देश्य उभरकर सामने आता है, ये सवाल आज सबसे ज्यादा मौजूं है। लिट्टे ने हिंसा की तो श्रीलंका की सेना ने भी हिंसा की। लेकिन श्रीलंका की सेना की कार्रवाईयों के बाद से सत्ता लोगों के हाथों से निकलकर कहॉ जा रही है?आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें और सत्ता की संगठित हिंसा दो अलग अलग तरह की सत्ता का स्वरूप निर्धारित करती है। सत्ता की हिंसा और आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें दो अलग तरह की बहसों की मांग करती है।सत्ता हमेशा चाहती है कि हिंसा की बहस का दृष्टिकोण वह विकसित करें।चूंकि वह संगठित होती है इसीलिए उसका दृष्टिकोण बहस के केन्द्र में रहता है जबकि लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि आंदोलन की हिंसक वारदातों पर अपने दृष्टिकोण से बहस खड़ी की जाए।

2 टिप्‍पणियां:

Sandeep kr Dubey ने कहा…

लोकतन्र्त्र का सवाल ग्लोब्लाइज हो चला है. भारत मे लोकतन्र्त तो बन्दूक से निकलता और चलता है. यहा लोकतन्त्र आम जनता का लोकतन्त्र तो पूजीपतियो के पास रेहन है.

बेनामी ने कहा…

bahut galat aur bina soche likha hai,jab kisi aur vishay par kuch na mila to jai jawan k charitra p hi chite uchal diye....wah wah kya shradha aap k mann me humare in veero k prati........

sukh sagar
lucknow
http://discussiondarbar.blogspot.com/

अपना समय