17 दिसंबर 2009

वनाधिकार कानून को विफल करने में लगी सरकार

दिनकर कपूर

विगत 4 नवम्बर को दिल्ली में वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए आयोजित मुख्यमंत्रियों की बैठक को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘आदिवासियों के शोषण का अंत होना चाहिए’ इसी सम्मेलन में उन्होने कहा कि ‘ हमारे जनजातिय समुदायों का व्यवस्थाजन्य शोषण अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।’ इस सदिच्छापूर्ण वक्तव्यों के बाद उसी सम्मेलन में सरकार ने घोषणा कर दी कि 31 दिसम्बर तक वनाधिकार कानून के तहत आए दावों का निस्तारण कर देना है और साथ ही यह भी कहा गया कि इसके बाद अब कोई दावा स्वीकार नहीं किया जायेगा। आखिर कुम्भकर्णी नींद में सोई केन्द्र सरकार कैसे जाग गई और इस कानून को लागू करने के प्रति इतनी हड़बड़ी क्यो है? जबकि उसी सम्मेलन में आयी रिपोर्टो को सुनने के बाद सरकार ने यह स्वीकार किया था कि देश के कई राज्यों में तो इसके क्रियांव्यन की स्थिति प्राथमिक चरण में ही है, वहां अभी भी ग्रामसभा स्तर पर ही दावे आमंत्रित किए जा सकेे है। वास्तव में इस विलम्ब की जबाबदेही भी केन्द्र सरकार की ही बनती है क्योकि इस कानून को बनाने से लेकर इसे लागू करने के प्रति शुरू से ही एक गैरजबाबदेह रूख रहा है। वामपंथी दलों व अन्य आदिवासी -जनवादी आंदोलनों की ताकतांे के दबाव में 2006 में इस कानून को यूपीए सरकार ने संसद से पारित तो करवा दिया पर इसके लिए आवश्यक नियमावली दो वर्षो तक नहीं बनायी जा सकी, यह भी दबाव के बाद ही बन पायी। ऐसा संदेश दिया गया कि सरकार की तरफ से इस कानून को लागू करने के प्रति ज्यादा दबाव नहीं है। स्वभावतःह इसके बाद राज्य सरकारों व नौकरशाही के मकड़जाल में उलझकर इस कानून को रह जाना था। अब 31 दिसम्बर की तिथि नियत हो जाने का परिणाम यह हुआ कि आनन फानन में इस कानून को लागू करने की कवादत शरू कर दी गयी है। उ0 प्र0 में अब तक आएं करीब पचास हजार आवेदनों में 90 फीसदी जिस सोनभद्र जिलें से आयें है, वहां प्रशासन ने इस कानून के सारे प्रावधानों को ताक पर रख दिया है। ग्रामसभा की बिना खुली बैठक कराएं जमीन पर अधिकार के लिए संकल्प पत्र पारित कराएं जा रहे है। वनविभाग के कर्मचारी अवैधांनिक तरीके से दावों को खारिज कर रहे है। जिला अधिकारी कह रहे है कि जिले में मात्र 4000 लोगों को ही जमीन पर अधिकार दिएं जायेगें। राजस्वकर्मियांे द्वारा कहा जा रहा कि जिनके पास एक एकड़ जमीन राजस्व की है, उन्हे इस कानून के तहत जमीन नहीं मिलेगी। इतना ही नहीं वन विभाग के द्वारा आदिवासियों का उत्पीड़न किया जा रहा है। म्योरपुर ब्लाक की ग्राम सभा परनी में विगत 28 अक्टूबर को वनविभाग के उपसम्भागीय अधिकारी रेनूकूट द्वारा फोर्स के साथ ग्रामप्रधान चंदा देवी उनके ससुर बबई सिंह गोंड व अन्य ग्रामीणों पर हमला बोला, उन्हे विभिन्न धाराओं का अभियुक्त बनाया गया। वन विभाग ने जिस भूमि के अधिग्रहण की बात कहकर यह पूरी कार्रवाही की वह भूमि 1546क, 1546ख, 1546ग ग्रामसभा की बंजर व काश्तकारों की जमीन है। इस बात की पुष्टि खुद उपजिलाअघिकारी ने अपनी जांच आख्या357/आ0 लि0- विविघ/2009 दिनांक 7 नवम्बर 2009 में भी की है। इस भूमि पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में वृक्षारोपण का कार्य ग्रामसभा द्वारा वर्ष 2006-07 मंे कराया गया हैं। ग्रामसभा की प्रधान चंदा देवी द्वारा खुद ही इस जमीन पर अवैध कब्जे को रोकने के लिए चैकी प्रभारी म्योरपुर समेत जिले के उच्चाधिकारियों को दिनांक 26 अक्टूबर को ही पत्र भी भेजा गया था। बाबजूद इन तथ्यों के वनविभाग के अधिकारियों द्वारा न सिर्फ गांव में आतंक मचा लूटपाट की गयी, महिलाओं के साथ मारपीट की गयी साथ ही वृक्षों को बचाने में लगे लोगों पर ही फर्जी मुकदमें कायम कर दिए। इसी तरह म्योरपुर ब्लाक के ही गांव सिसवा-झापर में अगरिया जाति के आदिवासी अयोध्या व उनके पिता शंखलाल को 4 दिसम्बर को वनविभाग के लोग रस्सों में बांधकर जरंहा रेंज आफिस ले आए। उनका अपराध यह था कि वह वन भूमि के रूप में दर्ज अपनी पुश्तैनी जमीन पर जोत-कोड़ कर रहे थे। उन्हे रातभर जरंहा रेंज आफिस में रस्से से पेड़ में बांघकर रखा गया और सुबह 4000 रूपए घूस देने पर ही छोड़ा गया। इस सम्बंध में जन संघर्ष मोर्चा की ईकाई ने 7 दिसम्बर को बभनी थाने में लिखित तहरीर भी दी और जनपद के पुलिस अधीक्षक को पत्र भी भेजा पर कोई कार्रवाही नहीं हुई।
दरअसल केन्द्र व राज्यों की सरकारें इस कानून को विफल कर देने में लगी हुई है। 31 दिसम्बर की आनन- फानन में तय की गयी तिथि इसी कारण से है। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड़, उड़ीसा के पहाड़ी-पठारी अंचल में जहां आदिवासी बहुसंख्या में रहते है, उन क्षेत्रों की धरती की नीचे अपार प्राकृतिक संम्पदा बरामद हो रही है। कही सोना, कहीं बाक्साइड़ और कहीं आयरन कोर, हीरा मिल रहा है। एैसी स्थिति में बड़े कारर्पोरेट घरानों, देशी -विदेशी पूंजी घरानों की गिद्धदृष्टि का इन क्षेत्रों पर लगना स्वाभाविक है। अपने अकूत मुनाफे के लिएं इस जमीन पर इनको कब्जा करना अनिवार्य है और इसके लिए आदिवासियों को जमीन से बेदखल करना है। अब एैसी स्थिति में वनाधिकार जैसा कानून जो आदिवासियों को जंगल की जमीन पर अधिकार दिलाये, निश्चित ही कारर्पोरेट घरानों की सम्पूर्ण जमीन हड़पों अभियान में रोड़ा ही साबित होगा।

दिनकर कपूर जन संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय