21 जनवरी 2010

अगर नहीं लड़ेंगे, तो वो हमें नक्सली बताकर जेल भेज देंगे

आवेश तिवारी

ये मेरे अखबारी जीवन का शायद सबसे खराब दिन था। बरसात की बूंदें चेहरे पर थप्पड़ जैसे लग रही थी। गांव के बाहर बिना छप्पर की एक झोंपड़ी में पूरी तरह से भीगी चंदा, रूपा और तारा (काल्पनिक नाम) एक कोने में सिमटी हुई थी। महज पांच हजार रुपयों ने उन नाबालिग लड़कियों के साथ बीती काली रात पर हमेशा के लिए पर्दा डाल दिया था। ये मेरी नजर में पुलिस प्रेस और पॉलिटीशियंस के छुपे हुए गठजोड़ का अब तक का सबसे पुख्ता प्रमाण और हिंदुस्तान के इतिहास में किसी आम लड़की के साथ बलात्कार का मतलब बताती हुई सबसे प्रामाणिक घटना थी। लगभग 14 से 16 साल की लड़कियों के चेहरे पर चमकते हुए मेरे साथी पत्रकार मित्रों के कैमरे के फ्लैश, शायद मुझे और मेरी कलम दोनों को गाली दे रहे थे। लगभग 400-500 ग्रामीणों की भीड़ के बीच जब चंदा ने बिलखते हुए गांव वालों से पूछा कि ‘हमारी क्या गलती थी? हमें क्‍यूं निकाल दिया गया गांव से बाहर?’ तो इस सवाल के जवाब में जो हमने सुना, वो अब तक मेरी रातों की नींद उडा देता है।

ग्रामीणों ने इन तीनों आदिवासी दलित लड़कियों पर हुए सामूहिक बलात्कार के बाद इन्हें अस्पृश्य घोषित कर दिया था, और इसकी सजा उन्हें गांव से बाहर करके दी गयी थी। इन लड़कियों का कहना था कि हमें पुलिस वालों ने कहा कि किसी से मत कहना कि तुम लोगों का बलात्कार हुआ है। हमारे बाबा को बंदूक की नोंक पर धमकाया गया। फिर गांव के ही ग्रामप्रधान ने, जो बसपा का नेता भी है, अपने तीन बेटों के दुष्कर्म की कीमत लगाकर हमसे छुटकारा पा लिया।

आप यकीन नहीं करेंगे, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावाती का प्रिय और इस बलात्कार की घटना पर पर्दा डालने में मुख्य भूमिका निभाने वाला आईपीएस रघुबीर लाल आज राष्ट्रपति पदक से सुशोभित हुआ। वहीं इस खबर को कवरेज करने वाले पत्रकार मानहानि के मामले में अदालत के चक्कर काट रहे हैं। मानहानि का ये मुकदमा उत्तर प्रदेश पुलिस के इस नामचीन आईपीएस के व्यक्तिगत खर्चे से पीड़ित बालिकाओं के अनपढ़ परिजनों द्वारा लड़ा जा रहा था। रूपा के पिता कहता है, अगर नहीं लडेंगे, तो वो हमें नक्सली बताकर जेल भेज देंगे।

लगभग चार साल पहले 23 अप्रैल 2006 को जब ये घटना घटी, मैं उस वक्‍त देश के नंबर वन अखबार ‘दैनिक जागरण’ का संवाददाता हुआ करता था। अति नक्सल प्रभावित सोनभद्र जनपद में पुलिस का दमनचक्र जोरों पर था। वहीँ सड़कों और अखबार के पन्नों पर दलाल पत्रकारों और नेताओं के साथ उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश दिखाने के लिए हाई प्रोफाइल ड्रामा खेला जा रहा था। शाम को तकरीबन सात बजे मुझे ये जानकारी मिली कि बेहद दुर्गम आदिवासी गांव बैरपुर में तीन आदिवासी लड़कियों के साथ 24 घंटे पहले गैंगरेप हुआ है और पुलिस ने सूचना के बावजूद उस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की है। मैंने जब इस बेहद संगीन मामले के संदर्भ में पुलिस से जानकारी मांगी तो उनके होश फाख्‍ता हो गये। तत्काल गाड़ी भेजकर जैसे-तैसे लड़कियों को और उनके परिजनों को बुलाया गया। चूंकि दस बजे के बाद अखबार के क्षेत्रीय संस्करण छूटने लगते हैं, सो मैं एफआईआर दर्ज होने का लंबे समय तक इंतजार नहीं कर सकता था। मैंने लड़कियों और उनके पिता का बयान रिकॉर्ड किया, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है और खबर भेज दी।

अपने बयान में इन लड़कियों ने बताया था कि पिछली रात जब हम तीनो गांव की ही एक शादी से लौट रहे थे, गांव के ही तीन लड़कों ने चाकू के बल पर हमें अंधेरे सुनसान रास्ते में उठा लिया। फिर हम सबका बारी-बारी से बलात्कार किया। ये लड़के बसपा के एक नेता और ग्राम प्रधान के बेटे थे। दुष्कर्म की शिकार लड़कियों के परिजनों ने बताया कि उन लोगों ने हमें गांव में ही बंधक बना लिया था। हमने जैसे-तैसे पुलिस को सूचना दी। नहीं तो वो तो आने ही नहीं दे रहे थे। कल्पित नामों के साथ अगले दिन ये खबर जागरण के अलावा एक दो अन्य अखबारों में प्रकाशित हुई थी।

24 अप्रैल को सबेरे सात बजे सोकर उठने के तत्काल बाद जब मैंने स्थानीय एसएचओ को इस मामले में की गयी कार्यवाहियों को जानने के लिए फोन किया तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी। एसएसपी रघुबीर लाल का बेहद खास और अभी हिरासत में एक दलित की मौत के मामले में जांच का सामना कर रहे एसएचओ ने मुझे बताया कि कहां कुछ हुआ है? वो लड़कियां तो कुछ भी होने से साफ इनकार कर रही हैं। पूरी तरह से स्तब्ध मैं जब तैयार होकर थाने पहुंचा, तो पाया कि बेहद डरे और सहमे हुए पीड़‍ितों के परिजनों और खुद दुष्कर्म की शिकार लड़कियों के बयान बदले हुए हैं। मैं इसके पहले की कुछ समझ पाता जागरण के ब्यूरो चीफ चंद्रकांत पांडेय और फिर तत्कालीन प्रबंधक यादवेश कुमार का मेरे पास फोन आया कि आप इस मामले में ज्यादा रुचि मत लीजिए। निदेशक वीरेंद्र कुमार ने व्यक्तिगत तौर पर इस मामले को ज्यादा तवज्जो नहीं देने को कहा है। वैसे भी इनके रोज अलग अलग लोगों से संबंध बनते रहते हैं। मैं सारी हकीकत समझ गया था। इधर तब तक पुलिस ने पूरे मामले को झूठा साबित करने के लिए इन लड़कियों और उनके परिजनों को डरा धमाकर उनके बयान की वीडियो रिकॉर्डिंग करा ली थी।

शाम को एक रेस्ट हाउस में दारू और मुर्गे की दावत में जागरण के ब्यूरो चीफ के अलावा सभी बड़े अखबारों के प्रमुख और तमाम पत्रकारों एवं पुलिस के अधिकारियों की मौजूदगी से ये तय हो गया कि उन आदिवासी लड़कियों के बाद अब खबरों का बलात्कार होना तय है।

मैं अब भी उन लड़कियों के बयान से पलटने की बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था। मुझे अपने सूत्रों से ये मालूम हुआ कि इनसे डरा धमका कर और पैसे का लालच देकर ये बयान लिया गया है तो मैं अपने कुछ चुने हुए पत्रकार मित्रों को लेकर दो दिन बाद बैरपुर गांव जा पहुंचा। गांव में घुसते ही हमें डर और दहशत का माहौल देखने को मिला। गांव के ही एक युवक अरविंद, जिसने पुलिस को इस मामले की इतिल्ला दी थी, चार दिनों से बिना किसी जुर्म के हिरासत में था। उसके छोटे भाई ने बताया कि हमारे भाई को बुरी तरह से पुलिस ने पीटा है। वे उसे झूठे जुर्म में जेल भेज देंगे। दुष्कर्म की शिकार लड़कियों से मिलने से पहले हमने उनकी माताओं से बात की। दिन भर जैसे तैसे मजदूरी करके पेट भरने वाली उन महिलाओं ने कहा कि साहब, हम कहां तक लड़ पाएंगे। अगर उफ्फ भी करेंगे तो पुलिस जीने नहीं देगी। हमारी लड़कियों को पंचायत ने गांव से बाहर कर दिया। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते।

बैरपुर से वापस लौटने के तत्काल बाद मुझे जागरण प्रबंधन ने इस खबर की सत्यता को प्रकाशित करने के बजाय कवरेज को लेकर मुझे निलंबित करने का आदेश दे दिया। लेकिन मैंने उस मौके पर अपने जमीर की आवाज सुनते हुए त्यागपत्र देना समीचीन समझा। उधर सरकार और पुलिस की छवि बिगड़ते देख जागरण ने एक खंडन भी प्रकाशित किया, जिसमें एसएसपी के हवाले से कहा गया था कि उन लड़कियों ने बलात्कार के पीड़ित को मिलने वाले मुआवजे के लालच में पूर्व में झूठे बयान दिये थे। अब अगर किसी को ऐसा करते पाया गया तो उसके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। वहीँ न्यूज चैनल ‘सहारा समय’ और कुछ एक साप्ताहिक पत्रों ने पुलिस की लीपापोती पर खबरें प्रसारित की। कहानी सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई। घटना को लेकर पुलिस की छीछालेदर को कमतर करने के लिए इस घटना के महज 15 दिनों बाद मुझे आगजनी के एक मामले में अभियुक्त बना दिया गया। हालांकि प्रेस काउंसिल के कड़े तेवर की वजह से महज 24 घंटे में मेरा नाम पुलिस को हटाना पड़ा।

उधर बलात्कार की शिकार लड़कियों को मोहरा बनाकर राष्ट्रीय महिला आयोग में मेरे साथ-साथ अन्य तीन पत्रकारों के खिलाफ मानहानि कि शिकायत दर्ज करायी गयी। हालांकि बाद में मैंने आयोग के पत्र के जवाब में उन्हें सीधे तौर पर कहा कि ये बेहद शर्मनाक है कि शहरी महिलाओं के उत्पीड़न पर आयोग के सदस्य फौरी तौर पर सक्रिय हो जाते हैं क्‍योंकि वहां मीडिया होती है। लेकिन तीन आदिवासी लड़कियों के मामले में वास्तविकता जाने बगैर नोटिस जारी कर दिया गया। आयोग महिलाओं को लेकर देश में दोहरे मापदंड अपना रहा है।

अब तक अविवाहित और गांव से निकाले जाने का संताप झेल रही लड़कियों के पिता अपने इस्तेमाल किये जाने से थक चुके हैं। रूपा के पिता कहता है : भैया, हमको तो न कोर्ट मालूम है, न थाना, न कचहरी। हमसे जो कहा उन लोगों ने हम किये। अब वो मुकदमा लड़वा रहे हैं। हमें मार दिये होते तो अच्छा था।

साभार मोहल्ला लाइव

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