विजय प्रताप
अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य-परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।
दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलित) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।
सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षक द्रोणाचार्य के नए अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगूठा काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगूठा काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब, आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे 'इडियटों' को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी 'इडियट'(अनिल चमड़िया) ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया, और हमें उस संकट से उबारा. ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।
साहब, आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है।
साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा इडियट नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा 'चतुर' बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।
12 टिप्पणियां:
बीएन राय सोचते होंगे कि कहां से बैठे बिठाए बवाल मोल ले लिया। दरअसल वो चाहते तो ये थे कि साहित्यित जगत में उनकी जो छवि बनी है वो महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के माध्यम से और निखरे,लेकिन जो अभरन उन्होने पोत रखा था वो बारिश में धुल गया लगता है। उन्होने वर्धा में "प्रतिष्ठितों" अपना एक दरबार लगाने की कोशिश की,लेकिन एक आदमी ने उनका दरबारी बनने से इंकार कर दिया। अब उनके दरबार में जो हैं वे या तो उनके सजातिय बंधु-बांधव हैं या फिर वो जो बचपन से ही चरणचाप करना सीखे हैं। तो भइया इन्ही सब के चलते चमड़िया इडियट हो गए, और राय चतुर।
sriman ji,
sri vibhooti narayan ray ek police adhikaari hain shiksha se unka koi lene dene nahi maaf kijiyega adhikaari sahitykaar ho nahi sakta hai vah sahity jagat ko badnaam hi kar sakta hai vartmaan sandarbhon mein jab saare afsar ghoos kha rahe hain aur bhrashtachar k akanth mein doobe hue hain to unse koi ummeed karna beimaani hai aaj tak mujhe jitne bhi sahitykaar afsar mile hain vah sadaharan afsaron se jyada bhrashtachaari saabit hue hain kuch geet kuch kavita kuch kahani kuch shodh ko vah apne bhrashtacharon ko chhipaane k liye istemaal karte hain mera aapse nivedan hai ki agar kuch samay aap apna naukarshah sahitykaaron k sambandh mein sarvekshan mein lagavein ki vah kitne bhrasht hain yah bhi sahity k liye mahaan kary hoga.
kripya tippani ka javaab bhi likh dein. accha rahega
सुमन जी,
आपने सही कहा और इस बात से मैं भी सहमत हूँ की किसी अधिकारी के साहित्यकार भर हो जाने से उसके पेशेगत दुष्कर्मों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. विभूति राय के साथ भी यही हुआ है.....उसने दो-चार कहानिया-उपन्यास लिखकर खुद को लोकतान्त्रिक खोल में छिपा लिया. या शायद हम सभी उसे वास्विकता से कहीं ज्यादा लोकतान्त्रिक-जनपक्षधर मानने लगे थे. अब वह अपना सही रंग दिखा रहा है.....आपका यह सुझाव भी सही है की ऐसे अधिकारिओं का सर्वेक्षण हो. कई चौकाने वाली जानकारियां मिलेगी.
anil chamadiya jaisa vyakti kesi bhi v n rai ke sath kam kar bhi nahi sakta. chamadiya jahan bhi rahenge vaha ki galat niton ke khilaf jaroor bolenge. darasal yeh vyaki is vyavastha mein phit hi nahi hota hai. is vyavastha ko aur vn rai ko bhi sach bolne vala vyakti hi nahi chahiye. ye vnke liye hi khatra paida kar sakta hai
साथी विजय
जहां तक अनिल चमड़िया सर का सबाल है कि सर को पढ़ाने नहीं आता, वहीं दूसरी और यह सबाल भी उठता है कि पढ़ना किसे कहेगें। चतुर जैसा स्टूडेंट रट्टा मार ले लेकिन दूसरा दरजा पाने के बाद भी काॅलेज की दीवार में अपना सर फोड़ ले, सच तो यह है कि राय जी पुलिस को बहाल करने से लेकर धूसखोर बनाने का हथकंडा अपना रहें है उसमें अनिल चमड़िया बहुत बड़ी दीवार हैं जिसको हटाना उचित समझा...इसलिए चमड़िया सर को पढ़ाना नहीं आता ।
लेकिन जहां विश्वविद्यालय में छात्र को पढ़ाना हो और पत्रकार बनाना हो तो पुलिस व्यवस्था का एक भी नियम फीट नहीं बैठता है। विश्वविद्यालय को सूचारू रूप से चलने के लिए जिस तरह के लोग चाहिए थे उसमें अनिल अंकित राय ही सही है। क्योंकि इस विश्वविद्यालय में पत्रकारिता ने नाम पर ठगा जाता है वहां के छात्र की मानें तो वहां पत्रकारिता विभाग में न ही दैनिक समाचारपत्र आते हंै न ही पत्रकारिता से संबंधित कोई उपयोगी समाग्री । पत्रकारिता से संबंधित पठन-पाठन की सामाग्री की मांग को जब अनिल सर ने रखा तो कुलपति को यह बात बहुत बूरा लगा, क्योंकि हमारे यहां तो लोकतंत्र में राजतंत्र है। कुलपति राय सहाब ने इस आड़ में यह कहना उचित समझा कि अनिल चमड़िया को पढ़ाने नहीं आता, क्योंकि कुलपति पुलिस की नौकरी से आये है राहित्य और कहानियों में रूचि रखते है किताबों को अपने घर के अंदर जंजीर में बांधना ही उचित समझते है।क्योंकि हर शासक का यही विचार होता है कि जनता जाग गई तो कोई उसे डरेगा नहीं । इसी व्यवस्था के खिलाफ अनिल चमड़िया ने अवाज उठायी तो कुलपित वी. एन.राय को नागवार लगा।
मैं जब भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रवेश लिया था उस समय मुझे इस बात की जानकारी नहीं था कि पत्रकार बनने के लिए सवर्ण होना कितना महत्वपूर्ण है। दूसरी बात सर किस तरह से पढ़ाते है मैं इस बारे में स्वंय का एक अनुभव बांटना चाहुंगा । एक दिन भारतीय जनसंचार संस्थान में कक्षा के दौरान मुझे अंग्रेजी के कुछ परचे तरजुमा करने के लिए दिया गया पहली बार तो में उसको करने में असफल रहा लेकिन जितना मुझे याद है में कुल मिलाकर 15 से 20 बार उस तरीके को जानने के लिए सर से सवाल किये होगें मुझे इस बात को लेकर डर लग रहा था कहीं गुस्से में न आ जाय लेकिन मैं सर के समझाने और धेर्य को देखकर मुझे लगने लगा कि ये और शिक्षक की तरह नहीं है जो दो बार में डांट कर यह कह दे की तुम पढ़ने के लिए बने ही नहीं हो ।पढ़ाने के तरीका किस तरह का होना चाहिए इस बारे में आज भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र से फीड़बैक फार्म भरवाया जाता है कुछ छात्र यह भर देते है कि लड़कों को केवल नोट्स दे दिया जाय और छात्र परीक्षा के समय में ही कक्षा में आये अन्यथा नहीं आये यही विचार होगा कुलपति वी.एन.राय का जो पढ़ाने के तरीके और लड़कों को खुश करने में विश्वास रखते है ठीक उसी तरह से पुलिस तब तक रह सकती है जब तक व्यवस्था में चोर और उच्चके...
साथी विजय
जहां तक अनिल चमड़िया सर का सबाल है कि सर को पढ़ाने नहीं आता, वहीं दूसरी और यह सबाल भी उठता है कि पढ़ना किसे कहेगें। चतुर जैसा स्टूडेंट रट्टा मार ले लेकिन दूसरा दरजा पाने के बाद भी काॅलेज की दीवार में अपना सर फोड़ ले, सच तो यह है कि राय जी पुलिस को बहाल करने से लेकर धूसखोर बनाने का हथकंडा अपना रहें है उसमें अनिल चमड़िया बहुत बड़ी दीवार हैं जिसको हटाना उचित समझा...इसलिए चमड़िया सर को पढ़ाना नहीं आता ।
लेकिन जहां विश्वविद्यालय में छात्र को पढ़ाना हो और पत्रकार बनाना हो तो पुलिस व्यवस्था का एक भी नियम फीट नहीं बैठता है। विश्वविद्यालय को सूचारू रूप से चलने के लिए जिस तरह के लोग चाहिए थे उसमें अनिल अंकित राय ही सही है। क्योंकि इस विश्वविद्यालय में पत्रकारिता ने नाम पर ठगा जाता है वहां के छात्र की मानें तो वहां पत्रकारिता विभाग में न ही दैनिक समाचारपत्र आते हंै न ही पत्रकारिता से संबंधित कोई उपयोगी समाग्री । पत्रकारिता से संबंधित पठन-पाठन की सामाग्री की मांग को जब अनिल सर ने रखा तो कुलपति को यह बात बहुत बूरा लगा, क्योंकि हमारे यहां तो लोकतंत्र में राजतंत्र है। कुलपति राय सहाब ने इस आड़ में यह कहना उचित समझा कि अनिल चमड़िया को पढ़ाने नहीं आता, क्योंकि कुलपति पुलिस की नौकरी से आये है राहित्य और कहानियों में रूचि रखते है किताबों को अपने घर के अंदर जंजीर में बांधना ही उचित समझते है।क्योंकि हर शासक का यही विचार होता है कि जनता जाग गई तो कोई उसे डरेगा नहीं । इसी व्यवस्था के खिलाफ अनिल चमड़िया ने अवाज उठायी तो कुलपित वी. एन.राय को नागवार लगा।
मैं जब भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रवेश लिया था उस समय मुझे इस बात की जानकारी नहीं था कि पत्रकार बनने के लिए सवर्ण होना कितना महत्वपूर्ण है। दूसरी बात सर किस तरह से पढ़ाते है मैं इस बारे में स्वंय का एक अनुभव बांटना चाहुंगा । एक दिन भारतीय जनसंचार संस्थान में कक्षा के दौरान मुझे अंग्रेजी के कुछ परचे तरजुमा करने के लिए दिया गया पहली बार तो में उसको करने में असफल रहा लेकिन जितना मुझे याद है में कुल मिलाकर 15 से 20 बार उस तरीके को जानने के लिए सर से सवाल किये होगें मुझे इस बात को लेकर डर लग रहा था कहीं गुस्से में न आ जाय लेकिन मैं सर के समझाने और धेर्य को देखकर मुझे लगने लगा कि ये और शिक्षक की तरह नहीं है जो दो बार में डांट कर यह कह दे की तुम पढ़ने के लिए बने ही नहीं हो ।पढ़ाने के तरीका किस तरह का होना चाहिए इस बारे में आज भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र से फीड़बैक फार्म भरवाया जाता है कुछ छात्र यह भर देते है कि लड़कों को केवल नोट्स दे दिया जाय और छात्र परीक्षा के समय में ही कक्षा में आये अन्यथा नहीं आये यही विचार होगा कुलपति वी.एन.राय का जो पढ़ाने के तरीके और लड़कों को खुश करने में विश्वास रखते है ठीक उसी तरह से पुलिस तब तक रह सकती है जब तक व्यवस्था में चोर और उच्चके...
विजय भाई,
बहुत ही मज़ेदार लिखा है. वी एन राय को खूब 'मख्खन' लगाया है आपने.
मैंने हाल में चमडिया के नक्सलवाद पर कुछ लेख पढे और तब से इस व्यक्ति को खोखला मानता हूँ। खैर एसे विचारक टाईप लोग अपना कुनबा साथ ले कर चलते हैं और बेचारा कहला कर यूनियन बाजी करते मिलेंगे। विभूति जी का अनादर वाद के ठेकेदारों का काम है लेकिन विभूति जी आप भी जानते हैं हाँथी चले बाजार।
vijay ji salaam.aap ka article padh kar aap se milne ka man ho raha hai .please apna mob no jarror de dain.sonia sharma mumbai
प्रगतिशीलता का सम्बन्ध मात्र विचार से नहीं बल्कि वह संस्कारों से भी जुड़ती है। इसीलिए मध्यवर्ग से आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वे विचार के स्तर ही प्रगतिशीलता को न अपनाए बल्कि उनके संस्कारों में, व्यवहार, आचरण में भी प्रगतिशीलता आए। हिन्दी-उर्दू पट्टी में ब्राहमणवाद-सनातनी विचार बहुत गहरे हैं,, इसलिए बौद्धिकों से मात्र वैचारिक प्रतिबद्धता जरूरी नहीं। उनकी मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है। यह कठिन प्रक्रिया है। मअहिवि में उठे सवालों से यही सच्चाई सामने आती है।
- कौशल किशोर
भईया हमें अनिल चमड़िया के निकाले जाने पर कोई दुख नहीं हुआ...बल्कि दुख अब होगा जब चमड़िया के साथ कोई खड़ा नहीं होगा...छात्रों को जो शुरू से ही किसी भी आंदोलन का मुख्य हिस्सा रहे हैं...उन्हें फिर आगे आना चाहिए...और इस बर्खास्तगी को रद्द करानी चाहिए...केवल ब्लाग पर लिखने से कुछ नहीं होगा...मैं चाहूंगा कि...चमड़िया की राय भी जाननी चाहिए... विरोध की शुरूआत तो बहुत पहले हो गई थी...लेकिन अब समय आ गया है कि...उसे आंदोलन का रूप देना चाहिए....मैं इस मुद्दे पर अनिल चमड़िया का विचार जानना चाहता हूं....
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