16 फ़रवरी 2010

पुलिस नहीं, तथ्यों का प्रवक्ता बने मीडिया

आनंद प्रधान

मानवाधिकार संगठनों की समाचार मीडिया से एक पुरानी लेकिन जायज शिकायत रही है। यह शिकायत हाल के दिनों में कम होने के बजाय और बढ़ी है। शिकायत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर पुलिस या दूसरी सरकारी एजेंसियां मीडिया को ''हथियार और अपनी बंदूक की गोली'' की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस और सरकारी एजेंसियां माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर जो भी करती हैं, खासकर उनके द्वारा होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों में भी मीडिया उनका आंख मूंदकर समर्थन करता है। यही नहीं, वह अक्सर पुलिस के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करता दिखता है। आमतौर पर पुलिसिया दावों को अकाट्य तथ्य की तरह पेश करता है। कई बार तो पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़कर ऐसी-ऐसी कहानियां छापता-दिखाता है कि उसकी इस "कल्पनाशीलता" पर एक साथ हैरानी, अफसोस और चिंता तीनों होती है।

ताजा मामला उत्तर प्रदेश का है। उत्तरप्रदेश पुलिस ने पिछले सप्ताह इलाहाबाद की पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय आजाद को 'माओवादी' बताकर गिरफ्तार कर लिया इनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने रटे-रटाए ढर्रे के मुताबिक दावा किया कि वे माओवादी संगठन से जुड़े हैं, उनके पास से 'आपत्तिजनक' माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और वे राज्य में माओवादी पार्टी का आधार तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों और चैनलों ने पुलिस के दावों पर संदेह करने और सवाल उठाने के बजाय उसे 'अकाट्य तथ्य' की तरह छापा-दिखाया। जबकि मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि सीमा पिछले दो दशक से भी अधिक समय से इलाहाबाद में एक पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय हैं। वे फिलहाल, पीयूसीएल की प्रदेश संगठन मंत्री हैं जबकि उनके पति विश्वविजय लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों को सबसे अधिक क्षोभ और दुख इस बात का है कि इलाहाबाद के पत्रकार इस सच्चाई से वाकिफ हैं लेकिन अधिकांश ने पुलिस के आरोपों और दावों पर सवाल उठाने की जहमत उठाना तो दूर उसे इस तरह से छापा जैसे पुलिस ने कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है।

इस प्रक्रिया में बुनियादी पत्रकारीय उसूलों और मूल्यों की भी परवाह नहीं की गयी। क्या समाचार माध्यमों और पत्रकारों से यह अपेक्षा करना गलत है कि वे पुलिस के दावों/आरोपों की बारीकी से छानबीन करें? क्या उन्हें पुलिस से यह नहीं पूछना चाहिए था कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से बरामद कथित 'आपत्तिजनक साहित्य' में क्या था? ऐसे ही और कई सवाल और प्रक्रियागत मुद्दें हैं जिन्हें समाचार मीडिया माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर नजरअंदाज कर रहा है जिसका फायदा उठाकर पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसिया न सिर्फ निर्दोष नागरिकों को फंसा और परेशान कर रही हैं बल्कि मानवाधिकार संगठनों, जनांदोलनों और जनसंघर्षों से जुड़े कार्यकर्ताओं, नेताओं और बुद्धिजीवियों को निशाना बना रही है। मानवाधिकार संगठन इफ्तिरवार गिलानी और डा. विनायक सेन के मामले से लेकर सीमा आजाद तक ऐसे दर्जनों उदाहरणों के जरिए यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह मीडिया पुलिस का प्रवक्ता बनता और इस तरह अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। जबकि समाचार मीडिया से उनकी अपेक्षा यह थी कि वह मानवाधिकारों के हक में अपनी आवाज बुलंद करेगा, सच्चाई को सामने लाएगा और पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ रिपोर्टिंग करेगा।

समाचार मीडिया से यह अपेक्षा अब भी बनी हुई है। इस संदर्भ में युवा पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग में बरती जानेवाली सजगता और सावधानियों को लेकर अभी हाल में जारी निर्देंश उल्लेखनीय हैं। इन निर्देशों में पत्रकारों से और कुछ नहीं बल्कि अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखाने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपूर्णता जैसे पत्रकारीय मूल्यों को बरतने की अपील की गई है। समाचार माध्यमों और पत्रकारों को उनपर गंभीरता से विचार और अमल करना चाहिए। इससे न सिर्फ पत्रकारिता बेहतर,संतुलित,तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ होगी बल्कि पुलिस को भी किसी इफ्तिखार गिलानी, विनायक सेन और सीमा आजाद को गिरफ्तार करने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।

आनंद प्रधान का यह लेख 13 फ़रवरी को प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ था.

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय