इरादा तो आज था कि अभय ने अपने ब्लौग-- निर्मल आनन्द-- में जो सवाल उठाया है : हिन्दी में सितारा कौन है ? -- उस पर कुछ विचार किया जाये, लेकिन आज एक ऐसी बात हुई कि आप से किसी और विषय की चर्चा करने को मन हो आया है.
अभय ने अपने ब्लौग मॆं पुस्तक मेले का ज़िक्र किया है. मज़े की बात है कि पांच फ़रवरी को उसी पुस्तक मेले में अभय, मैं और सीमा साथ थे और जिस साहित्य को पुलिस और अख़बार नक्सलवादी बता रहे हैं वे पुस्तक मेले से ख़रीदी गयी किताबें थीं.
बहरहाल, आज की तरफ़ लौटें तो सीमा और विश्वविजय की रिमाण्ड के चौदह दिन आज पूरे हो रहे थे और आज दोनों को अदालत में पेश होना था. हम ग्यारह बजे ही अदालत पहुंच गये. लगभग दो घण्टे के इन्तज़ार के बाद सीमा और विश्वविजय को अदालत में लाया गया. मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि दोनों इन चौदह दिनों में थोड़े दुबले भले ही हो गये थे लेकिन दोनों का मनोबल ऊंचा था. सीमा के चेहरे पर एक दृढ़्ता थी और विश्वविजय के चेहरे पर मुस्कान. सीमा हमेशा की तरह मुस्कराती हुई आयी और उसने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. लगा जैसे सलाख़ों के पीछे क़ैद स्वाधीनता चली आ रही हो.
हम लोग काफ़ी देर तक सीमा से बातें करते रहे, बिना फ़िकर किये कि सरकार के तमाम गुप्तचर किसी-न-किसी बहाने से आस-पास मंडरा रहे थे और . जब हम आने लगे तो सीमा ने ख़ास तौर पर ज़ोर दे कर कहा कि उसे तो बयान देने की इजाज़त नहीं है, इसलिए वह पुलिस और मीडिया के झूठ का पर्दाफ़ाश नहीं कर पा रही, लेकिन मैं सब को बता दूं कि पुलिस की सारी कहानी फ़र्ज़ी है जैसा कि हम बार-बार देख चुके हैं
सो दोस्तो, यह रिसाला जैसा भी उखड़ा-उखड़ा है सीमा की बात आप सब तक पहुंचाने के लिए भेज रहा हूं. सीमा की रिमाण्ड की अर्ज़ी खारिज हो गयी है. २२ तारीख़ को उसे ज़मानत के लिए पेश किया जायेगा और आशंका यही है कि उसे ज़मानत नहीं दी जायेगी. आशंका इस बात की भी है कि स्पेशल टास्क फ़ोर्स सीमा और विश्वविजय को अपनी रिमाण्ड में ले कर पूछ-ताछ करें और जबरन उनसे बयान दिलवायें कि वे ऐसी कार्रवाइयों में लिप्त हैं जिन्हें राजद्रोह के अन्तर्गत रखा जा सकता है. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सब कुछ सम्भव है-- भरपूर दमन और उत्पीड़न भी और जन-जन की मुक्ति का अभियान भी. यह हम पर मुनस्सर है कि हम किस तरफ़ हैं. ज़ाहिर है कि जो मुक्ति के पक्षधर हैं उन्हें अपनी आवाज़ बुलन्द करनी होगी. अर्सा पहले लिखी अपनी कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं :
चुप्पी सबसे बड़ा ख़तरा है ज़िन्दा आदमी के लिए
तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़ी हो जायेगी और सर्वधिक सुनायी देगी
तुम देखते हो एक ग़लत बात और ख़ामोश रहते हो
वे यही चाहते हैं और इसीलिए चुप्पी की तारीफ़ करते हैं
वे चुप्पी की तारीफ़ करते हैं लेकिन यह सच है
वे आवाज़ से बेतरह डरते हैं
इसीलिए बोलो,
बोलो अपने हृदय की आवाज़ से आकाश की असमर्थ ख़ामोशी को चीरते हुए
बोलो, नसों में बारूद, बारूद में धमाका,
धमाके मॆं राग और राग में रंग भरते हुए अपने सुर्ख़ ख़ून का
भले ही कानों पर पहरे हों, ज़बानों पर ताले हों, भाषाएं बदल दी गयी हों रातों-रात
आवाज़ अगर सचमुच आवाज़ है तो दब नहीं सकती
वह सतत आज़ाद है
साभार नुक्कड़
2 टिप्पणियां:
सहमति है।
आज के माहौल में सरकारी दमन कोई नई बात नहीं रह गई है। लेकिन खुद को वाच डॉग की संज्ञा से विभूषित करने वाले मीडिया के लिए राहत इंदौरी की दो लाईने कहे बिना खुद को रोक नहीं पा रहा हूं -
लफ्ज़ गूंगे हो गए,तहरीर अंधी हो गई
वो जो मुखबिर थे,अखबारों के मालिक हो गए।
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