26 फ़रवरी 2010

अंतहीन दौड़

अवनीश राय

इस प्रचार पर कई बार भरोसा कर लेने का जी चाहता है कि मेट्रो दिल्ली शान है। लेकिन कम से कम सुबह और शाम रोज और नियत वक्त पर सफर करने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि दिल्ली की यह शान इतनी सुहानी नहीं है। पिछले दिनो किसी काम से मुखर्जी नगर जाना हुआ। राजीव चौक से जहांगीरपुरी वाली मेट्रो पकड़ने के लिए नीचे उतरा तो वहां लंबी कतारें देख कर दिल बैठ गया। समझ नहीं आ रहा था कि कमजोर और वृद्ध मां को मेट्रो में कैसे चढ़ाउंगा। ट्रेन के प्लेटफार्म पर आते ही भगदड़ सी मच गई। ट्रेन में सवार होने वाले जो यात्री अब तक लाईनो में खड़े थे,सबको धक्का देकर अब मेट्रो के दरवाजे पर खड़े हो गए। अंदर के यात्री बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उधर बाहर वाले गेट पर कुछ इस तरह से खड़े थे कि न तो वे अंदर जा पा रहे थे और न हीं अंदर वाले बाहर। हालत ये हुई कि अंदर के यात्री जब किसी तरह ठेल-ठालकर बाहर निकले तो उनकी हालत देखने लायक थी। मैने मां को सांत्वना देते हुए कहा कि चलो अगली ट्रेन से चले चलेंगे। लेकिन अगली दो ट्रेने भी निकल गयीं और मैं मां को लेकर उस भीड़ में घुसने की हिम्मत नहीं कर पाया। आखिरकार मां को समझाते हुए बाहर आ गए और किराए पर ऑटो कर गंतव्य की ओर चल दिया। इसमें कोई शक नहीं कि मेट्रो की सवारी आरामदायक मानी जाती है। अभी तक धक्कामुक्की और रेलमपेल के नजारे पर भारतीय रेल का एकाधिकार था। लेकिन राजीव चौक और कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर ऐसे नजारे अब आम हो चुके हैं। भीड़ की इसी समस्या से निजात पाने के लिए ही मेट्रो ने पहले स्टेशनो पर तीर के निशान बना कर उतरने और चढ़ने के रास्ते तैयार किए थे,लेकिन यात्रियों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। हार मानकर अब प्लेटफार्मों पर गार्ड खड़े करने पड़े हैं जो अब सीटी बजाकर लोगों को लाईन में खड़े करवाते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि ये लाइन भी तभी तक रहती है जब तक मेट्रो प्लेटफार्म पर न आ जाए। ट्रेन आते ही लोगों के अंदर न मालूम कौन सा जानवर प्रविष्ट हो जाता है जो सारे नियम कायदों को तोड़कर रख देता है। मेट्रो के अंदर भी कमोबेश यही हाल रहता है। भले ही लाख उद्घोषणा होती रहे "कृपया दरवाजों के पास न खड़े हों" लेकिन अंदर घुसने वाला लगभग हर शख्स घूमकर दरवाजे के पास ही खड़ा होना चाहता है। उनके दरवाजे पर खड़े होने से दरवाजे का क्षेत्रफल कम हो जाता है जिससे अंदर आने और बाहर जाने का रास्ता संकरा हो जाता है। लेकिन अपनी सुविधा के चक्कर में वे यह कभी नहीं समझ पाते कि उनकी इस हरकत से कितने लोगों को दिक्कत होती है। मेट्रो जब चलनी ही शुरू हुई थी तो लोग इसकी यात्रा बड़ी सावधानी से डर- डर कर करते थे। लेकिन जैसे जैसे लोग मेट्रो से परिचित होते गए,लोग इसके प्रति लापरवाह होते गए हैं। लोगों की लापरवाहियां इस कदर बढ़ गई हैं कि कई बार दुर्घटनाएँ हो गई हैं या फिर होते होते बची हैं। ऐसा नहीं है कि मेट्रो में जगह न मिले या फिर एक निकल जाए तो दूसरी मेट्रो के आने में कोई खास देर लगे। तो आखिर इस हड़बड़ी और पहले मैं की वजह क्या है। क्या ये हमारे अँदर का असुरक्षाबोध है जो हर जगह और हर समय हमारे अंतर्मन पर छाया रहता है। देश काल की स्थिति देखते हुए कहा जा सकता है कि हम जीवन भर अनेक तरह की दुश्चिंताओं से जूझते रहते हैं। बचपन में पढ़ाई की भागमभाग,उसके बाद नौकरी की दौड़,फिर घर परिवार की जिम्मेदारी, नौकरी पर समय पर पहुंचने की दौड़। अपने जीवन में शायद हम हमेशा दौड़ते रहते हैं। बिना खुद को एहसास हुए और ये जाने कि हम कहां रूकेंगे। इस दौड़ में हम जितना ही अधिक तेज दौड़ते हैं, उतना ही और तेज दौड़ने की जरूरत महसूस होने लगती है। शायद यही कारण है कि हम खुद को कभी भी निश्चिंत नहीं कर पाते हैं। हमे यह विश्वास ही नहीं हो पाता कि अगर एक मेट्रो छूट गयी तो दूसरी भी हमें सही समय पर पहुंचा देगी।

अवनीश जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.

साभार जनसत्ता

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