अंबरीश कुमार
कुछ दिन पहले दिल्ली से अजित अंजुम का फोन आया तो छूटते बोले, 'कैसे है संपादक जी अभी याद आई तो फ़ोन कर रहा हूँ.मेरा जवाब था - क्यों मजाक उड़ाते है अब संपादक नहीं संवाददाता हूँ संपादक तो आप है और चैनल के भी हेड है . .उन्होंने और चुटकी लेते हुए कहा , हम तो पद के संपादक है आप कद के संपादक है .अजित अंजुम से काफी पुराने और खट्टे मीठे संबंध रहे है .बाद में उनकी बात कही मन में बैठी रह गई कि कद के संपादक कहा है ? पत्रकारी जीवन का बड़ा हिस्सा प्रभाष जोशी के नेतृत्व में कटा . उनके अलावा कद के संपादक कम नज़र आए.इंडियन एक्सप्रेस में फ्रैंक मोरिस से लेकर वर्गीज,कुलदीप नायर या फिर चेलापति राव जैसे कई नाम अंग्रेजी में रहे तो हिंदी में राहुल बारपुते ,राजेंद्र माथुर ,धर्मवीर भारती से लेकर एसपी सिंह,उदयन शर्मा ,ललित सुरजन हरिवंश आदि .ऐसे संपादक कम नज़र आए जो अपनी टीम बनाए और उसको गढ़ कर आगे बढाने का प्रयास करे .बहुत दिन बाद ऐसी ललक एक पत्रकार में नज़र आई .हाल ही में तहलका के संजय दुबे मिले और देखा की वे अपने बहुत जूनियर सहयोगियों को आगे बढाने लिए खुद काफी मशक्कत करते है .अख़बारों में किस जिले में कौन पत्रकार अच्छा लिख रहा है यह उनको याद रहता है .विदेश में इंजीनियरिंग की नौकरी और भारी वेतन छोड़कर पत्रकारिता करने आए संजय में अपनी टीम से बेहतर काम कराने का जो जज्बा दिखा वह सबक लेने वाला है .लगा कि अभी भी कुछ लोग कद के संपादक है .और राज्यों में भी ऐसी प्रतिभा वाले संपादक होंगे .वरना एक बड़ी संख्या ऐसे संपादकों की है जो संपादक की कुर्सी पर तो बैठे है पर कद के संपादक नहीं बन पाए .हमने संपादक भी देखे है और उनका अहंकार भी .पर कई लोग इस मिथक को तोड़ भी रहे है .
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