25 जून 2010

नक्सलवाद और मीडिया का ‘डर’

विजय प्रताप

‘वरना लाल हो जाएगी जनता।’ राजस्थान से प्रकाशित होने वाले एक प्रमुख दैनिक राजस्थान पत्रिका की उस खबर का शीर्षक यही था। खबर में खुफिया एजेंसियों के हवाले से सरकार को चेताया गया था कि अगर वह समय रहते नहीं संभली तो राज्य के कुछ जिलों में ‘नक्सलवाद’ पनप सकता है। खुफिया पुलिस की एक अत्यन्त गोपनीय बैठक में तैयार रिपोर्ट के आधार पर संवाददाता ने बताया कि नक्सलवाद पनपने के कारण में जन समस्याएं, पुलिस, वन व अन्य सरकारी विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों का अत्याचार आदि कुछ भी हो सकता है। इस गोपनीय बैठक की रिपोर्ट के हवाले से संवाददाता ने जिस सहजता से खबर लिखी उससे रिपोर्ट की ‘गोपनीयता’ का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इसी तरह पिछले वर्ष अगस्त में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से प्रकाशित अमर उजाला अखबार में भी ऐसी एक खबर छपी। शीर्षक था ‘नक्सली आमद ने उड़ाए होश’। खबर में पुलिस सूत्रों के हवाले से बताया गया कि ‘नक्सली शहर में प्रवेश कर चुके हैं।’ संवाददाता ने यह भी बता दिया कि नक्सली शहर के स्टेशन क्षे़त्र के किसी होटल में छिपे हैं। पुलिस के आधार पर लिखी गई खबर पढ़ पुलिस ने कई होटलों में छापे मारे लेकिन कहीं भी नक्सली नहीं मिले। पुलिस ने पूछताछ के लिए 3-4 युवाओं पकड़ लाई जिसे बाद में छोड़ना पड़ा। पंजाब के मानसा व बरनाला जिले में कृषि भूमि को लेकर संघर्शरत किसानों को पिछले दिनों पुलिस ने नक्सली बताकर गिरफ्तार कर लिया। पुलिस के अनुसार इन किसानों का अपराध यह था कि इन्होंने शहर के कुछ प्रतिष्श्टित लोगों की जमीन पर कब्जा करने की नियत से लाल झण्डे गाड़ दिए थे। किसान वहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माले) के नेतृत्व में कई महीनों से संघर्ष कर रहे थे। हरियाणा से एक खबर आई की वहां पुलिस ने 25 माओवादियों को गिरफ्तार किया है। ये सभी लोग दलित समुदाय के थे। पुलिस ने इनसे माओवादियों के संबंध में पूछताछ के नाम पर जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया और तरह-तरह से प्रताड़ित किया।
राजस्थान, पंजाब, हरियाणा या गोरखपुर की इन अलग-अलग घटनाओं में कई स्तरों पर समानताएं देखी जा सकती हैं। इसमें उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले को छोड़कर कोई भी राज्य नक्सल प्रभावित राज्यों की सूची में शामिल नहीं है। यहां के लिए नक्सलवाद बिल्कुल नई अवधारणा है। फिर भी यहां की मीडिया को रह-रह कर लाल व नक्सलवाद का डर सता रहा है। चूंकि मीडिया की मूल अवधारणा में किसी भी सूचना को जन-जन तक पहुंचाना शामिल है, सो वह इस डर को भी सुबह-सुबह चाय की घंूट के साथ लोगों के हलक तक पहुंचा रही है। इन क्षेत्रों में जहां लोगों ने नक्सलवाद का नाम भी नहीं सुना था कि उनमें भी एक अनजाना डर घर कर रहा है। सत्ता व पुलिस का तत्कालिक उद्देष्य भी यही है। लोगों का यह डर उन्हें अदृश्य ताकत प्रदान करता है, जिसका उपयोग कर वह नक्सलवाद रोकने के नाम पर किसी भी तरह के जन संघर्ष या असंतोष को दबा सकती है। राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में सत्ता व पुलिस इसी तैयारी में लगी हैं। यही कारण है कि हर खुफिया बैठक की अत्यन्त गोपनीय रिपोर्ट ‘लीक’ होकर मीडिया तक पहुंच जा रही है।
ऐसी ताकत की जरूरत यहां पुलिस व सरकार को इसलिए भी है कि वह इन क्षेत्रों में एक सुगबुगाहट महसूस कर रही है। अभी तक अपनी राजशाही परंपराओं के लिए जाना जाने वाले राजस्थान के कुछ हिस्सों में आदिवासी जल, जंगल, जमीन व अपने अधिकारों को लेकर संगठित हो रहे हैं। राजस्थान के आदिवासी अंचल उदयपुर, भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, राजसमंद व झूंझनु जैसे क्षे़त्रों में आदिवासी व उत्पीड़ित जातियों के लोग जातिवादी संगठनों की बजाए वामपंथी पार्टियों के साथ संगठित हो रहे हैं। इन अंचलों में धीरे-धीरे शुरू हो रहा आदिवासी व सत्ता के बीच संघर्ष का कारण भी कहीं न कहीं इस संगठित शक्ति से उपजी चेतना है। संघर्ष के कारण भी वही हैं जिसके लिए झारखण्ड, पं बंगाल, उड़ीसा व छत्तीसगढ़ में आदिवासी संघर्षरत हैं। दरअसल राजस्थान का यह अंचल कई प्रकार की खनिज संपदाओं व खूबसूरत पत्थरों की खान है। इन क्षेत्रों की अमूल्य प्राकृतिक संपदा पर निजी कंपनियों की निगाहें हैं जिसे वह किसी भी कीमत पर पाना चाहते है। आदिवासी इसमें बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। राजस्थान में भाकपा माले के राज्य सचिव महेन्द्र चौधरी का कहना है कि जब तक यहां आदिवासी व उत्पीड़ित जन अलग-अलग जातिगत संगठनों से जुड़े थे सत्ता के लिए कोई खतरा नहीं था, लेकिन वही लोग जब जुझारू संघर्ष की ओर रूख कर रहे हैं तो सरकार इसे ‘नक्सलवाद’ करार देना चाहती है।
पंजाब के मानसा व बरनाला के किसानों की भी पीड़ा यही है। यहां भी किसानों ने जब एकजुट होकर वामपंथी पार्टी के बैनर तले संघर्ष शुरू किया तो खुफिया एजेंसियों की नाक से सूंघने वाले पत्रकारों को ‘नक्सलवाद’ की बू आने लगी। मीडिया द्वारा फैलाया जा रहा यह अदृश्य ‘भय’ जगह-जगह सत्ता के अलग-अलग स्वार्थों की पूर्ति कर रहा है। गोरखपुर में यह ‘भय’ वहां के फासीवादी सरदार योगी आदित्यनाथ के मंसूबों को कामयाब करने के लिए फैलाया जा रहा है। गोरखपुर में फासीवाद के खिलाफ किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन की पृष्टभूमि तैयार होने से पहले ही पुलिस मीडिया के साथ मिलकर उसका गर्भपात कर देना चाहती है। हरियाणा में यह ‘भय’ वहां की सामंती व दलित विरोधी मानसिकता को प्रश्रय दे रहा है। दलितों के खिलाफ कई नरसंहारों को अंजाम दे चुकी वहां की पुलिस व सांमती शक्तियां अब ‘नक्सलवाद’ को एक नए हथियार के रूप में आजमा रही हैं। इन सभी जगहों पर एक और समानता देखी जा सकती है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा व गोरखपुर में जिन आंदोलनों का जिक्र किया जा रहा है वह कहीं से भी इस स्थिति में नहीं कि राजसत्ता को कोई चुनौती पेश कर पाएं। वह अभी बहुत ही प्रारम्भिक दौर में हैं। लेकिन सर्तक व दूरदर्षी शासक उसी को कहते हैं, जो अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को निकलने से पहले उसका गला मरोड़ दे। इन सभी जगहों की सरकारें लोकतांत्रिक भले न हो सर्तक व दूरदर्शी जरूर हैं।

विजय प्रताप स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.

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