02 अगस्त 2010

एक रेडिकल और समावेषी राजनैतिक मंच का प्रारूप

एस पी शुक्ला 
(संयोजक डब्लू टू विरोधी आंदोंलन)

1-आमतौर पर मेहनतकष जनसमुदाय तथा विषेषकर छोटे और सीमान्त किसान और आदिवासी पिछले दो दषकों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के उत्थान के फलस्वरूप गहरे संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हमारी जनता की विराट बहुसंख्या के लिए हमेषा से मुख्य चिन्ता के विषय रहे, जमीन, आजीविका और आवास के बुनियादी मुद्दों ने, आज नाजुक महत्व ग्रहण कर लिया है, क्योंकि सर्वाधिक सीमांत तबकों का अस्तित्व ही दांव पर लगा है।
  ऐसी परिस्थिति में लोकतांत्रिक व्यवस्था की राजनीति की धुरी इन्ही मुद्दों को होना चाहिए। विचित्र बात यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी तथा मुख्य विपक्षी दल इस मोर्चे पर एक अंधे मोड़ पर पहुंच गए लगते हैं। ऐसा नहीं है कि वह जनता के बुनियादी सवालों पर बात नहीं करते अथवा उनके पास आमतौर पर “विकास” और खासतौर पर “गरीबी उन्मूलन” की तमाम योजनाएं और कार्यक्रम नहीं है। लेकिन “विकास” का अर्थ किसी तरह जीडीपी की उच्चतर विकासदर हासिल करने तक सिमटकर रह गया है तथा “गरीबी उन्मूलन” के नाम पर कुछ कल्याणकारी उपाय। एक बड़ा अंतर्विरोध हमारे सामने मुंहबाए खड़ा है: वहीं नीतियां जो विकास के नाम पर लागू की जा रही हैं वह इस गति से और इतने बड़े पैमाने पर गैरबराबरी, दरिद्रता और अभाव को जन्म दे रही हैं कि “गरीबी उन्मूलन” का दिखावा हमेषा अपर्याप्त और प्रतीकात्मक ही बना रहेगा।

2- जमीन, जल, जंगल, बीज और खनिज प्रत्येक के सभी जरूरी क्षेत्रों में नवउदारवादी नीतियों ने एक ओर मेहनतकष जनता की विराट आबादी की बेहतरी यहां तक कि अस्तित्व तथा दूसरी ओर बड़ी पूंजी द्वारा आबाध मुनाफाखोरी के बीच अंतर्विरोध को तेज किया है। जीवन की इन सभी बुनियादी जरूरतों को इस तरह माल में तब्दील किया जा रहा है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ। जनता तथा पर्यावरण दोनों के लिए इनके विराट अनगिनत दुष्प्रभावों की कोई परवाह किए बिना इन सारी चीजों को पूंजी संचय के लिए चारे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
 समूचा किसान समुदाय लागत सामग्रियों की तेजी से बढ़ती कीमतों के कारण बदहाल है (कृषि शोध तथा प्रसार के क्षेत्र में कार्पोरेट क्षेत्र का प्रवेष, सिचांई में निजी मालिकाने वाले साधनों की बढ़ती भूमिका तथा लागत सामग्रियों पर सब्सिडी के खात्मे के कारण); उत्पाद के मूल्यों में भारी उतार-चढ़ाव (सरकारी खरीद खत्म करने या उसमें कमी के कारण तथा घरेलू बाजार के अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ बढ़ते एकीकरण के फलस्वरूप); परिणामस्वरूप किसानों की बढ़ती ऋणग्रस्तता (मुनाफाकेंद्रित बैकिंग क्षेत्र द्वारा कृषि ऋण को कम प्राथमिकता देने के परिणामस्वरूप सूदखोरी पर बढ़ती निर्भरता ने जिसे और बदतर बना दिया है) छोटे और सीमांत किसान तथा भूमिहीन मजदूर इसके सबसे बदतरीन षिकार हैं, जिन्हें घटी हुयी खाद्यान्न उप्लब्ध्ता तथा लगातार कुपोषण का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें आजीविका के साधनों की तलाष में बड़े व छोटे शहरों के आसपास झुग्गी इलाकों में अत्यंत निम्न स्थितियों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। जमीन ग्रामीण परिवारों के हाथ से निकलकर बड़े पैमाने पर दूसरों के हाथ जा रही है। जहां सेज कानून सरकार द्वारा संचालित खुला हमला है, वहीं बाजार की शक्तियों ने अधिक विनाषकारी हालांकि कम पारदर्षी हमला छेड़ दिया है। जिसके फलस्वरूप विकासमान शहरों तथा बड़े आधारभूत ढांचे वाली परियोजनाओं के इर्द-गिर्द जमीन में बड़े पैमाने पर सट्टाबाजारी हो रही है। भूमि अधिग्रहण की नीतियों तथा कृषियोग्य भूमि के बड़े पैमाने पर गैरकृषि कार्योें के लिए  उपयोग ने इस प्रवृत्ति को और मजबूत किया है।
छोटे पैमाने के उत्पादन व तथाकथित स्वरोजगार में लगे लोगों की फौज और सेवा क्षेत्र में लगी विराट आबादी के पास रोजगार, मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। वह जीवन की बुनियादी जरूरतों के मूल्यों में भारी वृद्धि, ध्वस्त होती सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं षिक्षा के ढांचे तथा खुदरा व्यापार, कुटीर ग्रामीण व छोटे उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण और मत्स्य उद्योग जैसे क्षेत्रों में बड़ी संगठित पंूजी के प्रवेष के कारण प्रतिस्पर्धा के बढ़ते दबाब के दौर में जिंदा रहने के लिए भी उन्हें अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा है। मुक्त व्यापार को प्रोत्साहन देने के नाम पर उदार आयात नीतियों ने अन्यायपूर्ण प्रतिस्पर्धा में हालात को और बदतर बना दिया है।
संकट ने आदिवासियों के संदर्भ में सबसे बुरा असर डाला है। जिनकी जमीन, आवास, आजीविका के लिए ऐसा खतरा पैदा हो गया है, जैसा पहले कभी नहीं था। सरकारी मषीनरी ने देषी- विदेषी बड़ी कार्पोरेट पंूजी के साथ मिलकर सुनियोजित ढंग से जमीन और जंगल को खनन तथा दूसरे व्यावसायिक उपयोग के लिए अधिग्रहित कर लिया है, उस पर कब्जा कर लिया है। निवेष को आकर्षित करने और “विकास” को तेज करने के नाम पर सरकारी नीतियों ने निर्यात के लिए खनिज संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को प्रोत्साहित किया है। इस समस्या से आंषिक निदान के लिए बने कानून मसलन ;च्म्ै।द्ध कानून और वनाधिकार कानून का आमतौर पर क्रियान्वयन ही नहीं हुआ है। देर से उठाए गए अन्य सुधारात्मक उपायों जैसे राहत और पुनर्वास के प्रावधानों पर बने कानून और भूमि अधिग्रहण कानून में संषोधन से कोई खास वास्तविक राहत नहीं मिलनी है। दषकों से जमा आक्रोष फूट रहा है। साफ है कि आदिवासियों का न सिर्फ मौजूदा सरकारों से बल्कि भारतीय राज्य से ही जबर्दस्त मोहभंग हुआ है।
हालात इतने विस्फोटक न हुए होते यदि सत्ता प्रतिष्ठान षुतुर्मुर्गी अंदाज में सच्चाई को महज अनदेखा करता रहता। भारतीय प्रायद्वीप के खनिज सम्पन्न और वन क्षेत्रों के मूल निवासियों के प्रतिरोध के कारण जब शासक वर्गों द्वारा लागू किये जा रहे विकास के माडल की बुनियाद के लिए ही खतरा पैदा हो गया तब सत्ता प्रतिष्ठान सच्चाई से आंखे मूदें नहीं रह सकता था, तो नकार की मुद्रा से आगे निकल कर अब वह समस्या को स्वीकार कर रहा है, लेकिन ”आतंरिक सुरक्षा“ के चष्मे से। और ”आतंरिक सुरक्षा के लिए नम्बर एक खतरे“ के उन्मूलन के लिए इसने अर्द्धसैनिक बलों द्वारा अभूतपूर्व हमला बोल दिया है।
बल प्रयोग के एकाधिकार का बेषर्मी से इस्तेमाल करते हुए राज्य मजदूर वर्ग एवं हमारी आबादी के सर्वाधिक हाषिए पर पड़े तत्वों के खिलाफ बड़ी पूंजी के पक्ष में अपनी सारी ताकत लगा रहा है। मानवाधिकारों का हनन चरम पर है, लोकतांत्रिक मर्यादाएं और व्यवहार का तेजी से क्षरण हो रहा है।

3 -आर्थिक क्षेत्र में नवउदारवादी सुधारों के पिछले दो दषक साथ ही साम्प्रदायिकता के भी उभार के साक्षी हैं। शासक वर्गों ने चार दषकों की स्वतंत्र, गुटनिरपेक्ष, दक्षिण के प्रति मित्रतापूर्ण विदेष नीति की विरासत को तिलांजलि दे दी है और वे खुलकर अमरीका-इजराइल धुरी के साथ रणनीतिक संश्रय के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। उन्होंने ”सभ्यताओं के संघर्ष“ तथा ”आतंकवाद“ के खिलाफ वैष्विक युद्ध के अमेरीकी- इजराइली नव-अनुदारवादी तर्क तथा प्रचार को आत्मसात कर लिया है। उन्होंने न सिर्फ हमारे अनोखे स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक विरासत को भुला दिया है, वरन वे साझी भारतीय राजव्यवस्था, अखंडता और वजूद के लिए भी ऐसे रुख के विस्फोटक निहितार्थों के प्रति भी उदासीन लगते हैं। पहले ही शासक वर्गों के इस तरह के रुख ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता दोनों के पुर्नउभार को जन्म दिया है। इसकी एक अभिव्यक्ति किसी भी आतंकी हमले के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं के प्रति शक-सुबहो वाले रवैये में देखी जा सकती है और इससे भी बुरी इसकी अभिव्यक्ति जम्मू कष्मीर की जनता की वैध लोकतांत्रिक आंकाक्षाओं विषेषकर युवाओं के प्रति लगातार जारी गलत बर्ताव, बार-बार और बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती और फलस्वरूप लोकतांत्रिक अधिकारों में जबर्दस्त कटौती और राजनीतिक दायरे के तेजी से सिमटते जाने में होती है। इस सबसे भी बुरी अभिव्यक्ति शासक वर्गों के कुछ हिस्सों में कष्मीर को महज भूराजनीति की रणनीतिक जरूरतमात्र अथवा उससे भी बदतर महज जमीन का एक टुकड़ा समझने की प्रवृत्ति है।

4-इस पूरे विकासक्रम का कुल मिलाकर परिणाम जनवादी अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं का अभूतपूर्व क्षरण है। हमने पिछले कुछ वर्षों में मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित करने हेतु नए-नए कानून बनाने की कोषिषें देखी हैं। सभी राज्यों में इन कानूनों के दुरुपयोग के मामले बढ़ते जा रहे हैं। सर्वोपरि ”आतंकवादी खतरे“ अथवा ”आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरों“ का मुकाबला करने के नाम पर भारी पैमाने पर ‘‘इनकांउटर हत्याएं’’ हम देख रहे हैं।
 नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन के अपने अनिवार्य परिणाम हैं। यह बढ़ती हुयी गैरबराबरी और ध्रुवीकरण को जन्म दे रहा है। इसका परिणाम है लुटेरा पंूजी संचय। यह आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में व्यापक जनसमुदाय को अलगाव और हाषिये पर ढकेल रहा है। यह शासक वर्गों को अपनी नीतियों के क्रियान्वयन से पैदा होने वाले आक्रोष को सम्भालने के लिए अधिकाधिक बल प्रयोग को बाध्य कर रहा है। न्यायपालिका और मीडिया जैसी राज्य तथा राजनैतिक तंत्र की तमाम संस्थाओं, जिन्हें लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं का रक्षक तथा जनपक्षीय नीतियों के क्रियान्वयन में सहयोगी माना जाता था, उसके भी अधिकाधिक हिस्से नवउदारवाद के अनिवार्य तर्क के प्रभाव में आते जा रहे हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाने तथा जनवादी अधिकारों पर हमलों को वैध ठहराने हेतु नवउदारवादी नीतियों का तर्क उग्र क्षेत्रीय अंधराष्ट्रवादी संकीर्ण झगड़ों को शह देता है।

5- सत्तारूढ़ पार्टी तथा मुख्य विपक्ष दोनों ही प्रमुख अंतरविरोध के अस्तित्व को ही नकारने में एकमत हैं। वह दोनों नव-उदारवाद के अनिवार्य तर्क को नकारने अथवा मान्यता देने में भी एकराय हैं। दोनों ने ही आदिवासी क्षेत्रों तथा कष्मीर घाटी में उभरते गहरे संकट पर एकसमान प्रतिक्रिया की है। मुख्यधारा की इन राजनीतिक पाटियों ने सचेत अथवा अचेत ढंग से इन मुद्दों पर राजनीति को निष्प्रभावी बना दिया है। सत्तारूढ़ पार्टी ने अपनी ही जनता के विरुद्ध एक तरह से युद्ध छेड़ दिया है; यह एक दूसरे तरीके से माओवादियों द्वारा राजनीति के निषेध के ही समतुल्य है। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा एवं इसके वैचारिक केन्द्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ युद्धक मुद्रा में और भी उछलकूद मचा रहे हैं और जोरषोर से सरकार के समर्थन में उतर पड़े हैं। शासक पार्टी और मुख्य विपक्ष अमरीकी-इजराइल प्रभुत्व को स्वीकार करने वाली अपनी एकसमान नीतियों तथा साम्प्रदायिकता के पुर्नउभार के बीच के रिष्ते को समान रूप से नकारने में लगे हैं। जहां विपक्ष कष्मीर के मुद्दे पर अधिक तीखी मुद्रा अख्तियार किये है वहीं सत्तारूढ़ पार्टी भी अंतर्वस्तु में कम आक्रामक नहीं है लेकिन वह इसकी अभिव्यक्ति में संयम बरतती है।
 जहां मुख्यधारा का वामपंथ प्रमुख अंतर्विरोध तथा नवउदारवादी नीतियों के अनिवार्य तर्क को स्वीकार करने में विष्लेषणात्मक व विचारधारात्मक स्पष्टता और बौद्धिक ईमानदारी दिखाता है, वहीं अपनी संसदीय ताकत में तीखी गिरावट तथा भारतीय राजनीति में सीमित पहंुच के कारण राजनीतिक धरातल पर इसकी प्रतिक्रिया जरूरत के अनुरूप नहीं है।
 वामपंथ के अन्य संगठन बेहद बिखरे हुए और कमजोर हैं। क्षेत्रीय पार्टियों  की इन बुनियादी विषयों पर कोई स्पष्ट स्थिति नहीं है अथवा अपनी अवसरवादी सुविधा के हिसाब से यह सत्तारूढ़ पार्टी या मुख्य विपक्षी पार्टी की दिषा का ही अनुसरण करती हैं।
 क्या हम एक राजनैतिक गतिरोध, बदलाव के राजनीति जैसा इसे हम जानते हैं और जिसकी हमने आजाद भारत में उम्मीद की थी, के ‘‘अंत’’ की शुरुआत देख रहे हैं?
 मौजूदा संगठित राजनैतिक संरचनाओं और उनकी भूमिका के लिहाज से देखने पर राजनैतिक परिदृष्य उत्साहवर्धक नहीं है लेकिन आषा की किरण जमीनी स्तर पर बढ़ते लोकप्रिय प्रतिरोध के रूप में साफतौर पर देखी जा सकती है। जन संघर्ष स्थानीय तौर पर और राष्ट्रीय स्तर पर भी उभर रहे हैं। चाहे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, कर्नाटक की उत्खनन कम्पनियों की लूट हो, उत्तर प्रदेष, पष्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या गोवा में बड़ी पंूजी द्वारा व्याप्क स्तर पर भूमि हड़पो अभियान हो, राजस्थान में पानी प्राप्त करने का किसानों का अधिकार हो या और भी व्याप्क स्तर पर बुनियादी जरूरतों की मूल्यवृद्धि सम्बंधी सरकार की पूरी तरह संवेदनहीन और पंूजीपरस्त नीतियां हों- जनता हर कहीं उठ खड़ी हो रही है और जोरदार लड़ाईयां छेड़ रही है।
 समय-समय पर जनांदोलनों ने, जिनमें से कुछ काफी हद तक अराजनैतिक हैं, इन संघर्षो का सर्मथन किया है। कभी-कभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियों ने भी इनका नेतृत्व किया है या वे इसमें शामिल हुई हैं। लेकिन अधिकांषतः यह बस लक्षणों को पकड़ने की बात है; यह पेड़ को देखना है लेकिन जंगल को नहीं।
 इस सबके बावजूद जनता ने अपनी कार्रवाइयों में अपनी दृढ़ता और हिम्मत का परिचय दिया है। यही वह भावना है, वह सम्भावनामय राजनैतिक ताकत है, जो व्याप्त राजनैतिक गतिरोध को भंग करेगी और बदलाव की राजनीति को जीवनषक्ति प्रदान करेगी।

6-हमारे दौर की चुनौती है बदलाव की राजनीति का पुनर्जीवन, राजनैतिक जमीन को पुनर्सृजित करना उसे समृद्ध और व्यापक बनाना। नव-साम्राज्यवाद की हिरावल वित्तीय पूंजी के वैष्विक उत्थान तथा शासक वर्गों द्वारा इस ताकतवर वैष्विक शक्ति के साथ मजबूती से खड़े होने के फैसले ने चुनौती को और कठिन बना दिया है, इसके सुस्पष्ट आर्थिक और रणनीतिक निहतार्थ हैं और इससे पैदा होने वाले दबाव हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण यह कि इसके देष की राजनीति के भविष्यमात्र, वस्तुतः जनतांत्रीकरण की प्रक्रिया के भविष्य के लिए ही गम्भीर निहतार्थ हैं।
 आर्थिक नीतियों के लिए नवउदारवादी ढंाचे को स्वीकार करने का मतलब है, भूमंडलीय विकास के माडल को स्वीकार करना जिसका कि निर्भरषील और उतार - चढ़ाव भरा होना, धुव्रीकरण करने वाला और गैरबराबरी बढ़ाने वाला होना, आजीविका से वंचित करने वाला और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह होना तय है। जैसा हमने पहले रेखांकित किया है कि हम आज ऐसे विकास की तलाष द्वारा पैदा किए गए संकट के बीच हैं।
 लघु उत्पादकों का दरिद्रीकरण उग्रक्षेत्रवादी तथा विभाजनकारी ताकतों के उभार के लिए उर्वर जमीन मुहैया कराता है। आपसी झगड़ों की राजनीति बदलाव की राजनीति को पीछे ढकेल देती है। इस प्रवृति को शासक वर्गो का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन बल प्रदान करता है क्योंकि यह असली मुद्दों से ध्यान हटाती है।
 एक अन्य स्तर पर वैष्विक पूंजी के गढ़ अमरीका के साथ रणनीतिक संश्रय और परिणामस्वरूप इजराइल के साथ गलबहियांे ने पष्चिम और मध्य एषिया के हमारे महत्वपूर्ण पड़ोसियों के साथ हमारे रिष्तों में खटास पैदा कर दी है। इसके हमारे आर्थिक तथा रणनीतिक हितों के लिए पूरी तरह प्रतिकूल निहतार्थ हैं ही। इसके फलस्वरूप भारतीय राज्य चाहे-अनचाहे ‘‘इस्लामोफोबिया’’ जिसकी जड़ें अमरीकी शासक वर्गों के नव-अनुदारवादी दृष्टि में निहित हैं और / अथवा पष्चिम एषिया में अमेरिका संरक्षित राज्यों के ‘‘राजनैतिक इस्लाम’’ की स्वीकृति देता है। जैसा कि हमने पहले ही रेखाकिंत किया है, इसके हमारी राज्य व्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए गम्भीर निहितार्थ हैं। उग्रवादी (मिलीटेंट), कठमुल्लावादी और साम्प्रदायिक तत्वों को अनायास बल प्रदान करने के साथ ही यह अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर अलगाव और असुरक्षा की भावना को बढ़ाता है तथा दूसरी ओर बहुसंख्यक साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति को आवेग प्रदान करता है।        यह दोनों ही कारक हमारे राजनैतिक जीवन में फासीवादी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में जारी गहरे संकट के प्रति शासक वर्गों की रक्तरंजित प्रतिक्रिया, 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक जनसंहार के दौर में बेहद कमजोर भूमिका, मुंबई में बार-बार घटित होने वाली आंचलिक उन्माद की ताकतों की गुण्डागर्दी के प्रति अगर सहमति नहीं भी तो उस पर मौन स्वीकृति यही दिखाती है कि कितनी आसानी से हमारा शासक वर्ग फासीवादी रास्ते को मौन सहमति दे सकता है अथवा सीधे उस रास्ते पर उतर सकता है। श्रेणीबद्ध और अन्यायपूर्ण जातिव्यवस्था के अंतर्निहित पूर्वाग्रह तथा ब्राह्मणवादी संस्कृति के अहंकार (दलितों की बढ़ती हुयी राजनैतिक दावेदारी अथवा पिछड़ों के आरक्षण पर उच्च जातियों / वर्गो की विषाक्त प्रतिक्रिया देखी है) ने ऐसी फासीवादी प्रवृत्तियों के जड़ जमाने और फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण मुहैया कराया है, खासतौर से तब जब इसकी अगुआई करने एक महाषक्ति के साथ होने के विष्वास से भरे हों।

7- इस राजनैतिक गतिरोध को खत्म करने, हमारे राज्य व्यवस्था के फासीवादी रास्ते पर अंततः चल पड़ने अथवा इसके पूरी तरह बिखराव को रोकने के लिए क्या करें?
बदलाव की राजनीति को पुनर्जाग्रत करने की रणनीति के तत्व क्या होगें?
हमारा मानना है कि हमारे दौर की मांग एक व्यापक लोकतांत्रिक मंच का निर्माण है। ताकि ऐसा राजनैतिक आंदोलन छेड़ा जा सके जो अपनी संरचना में समावेशी होने के साथ ही अपने दृष्टिकोण में रेडिकल हो। ऐसा आंदोलन ही शासक वर्गों द्वारा, जिन्होने वस्तुतः पक्ष और विपक्ष दोनों राजनैतिक जगहें कब्जा कर रखी है, द्वारा आधुनिक भारतीय राज्य व्यवस्था के स्वप्न के खिलाफ छेड़े गए संयुक्त हमले का मुकाबला करने और उसको षिकस्त देने में सक्षम है। इस मांग को पूरा कर पाने में हमारी विफलता न सिर्फ जनपक्षीय प्रगतिषील राजनीति के अंत की शुरुआत होगी बल्कि जनवादीकरण की प्रक्रिया को ही लकवाग्रस्त कर देगी, जिसके राजनीतिक पार्टियों के चुनावी भविष्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण निहितार्थ होंगे; हमारी राज्य व्यवस्था की साख के अस्तित्व मात्र के लिए निहितार्थ होंगे; इसके एषिया और अफ्रीका में चले ऐतिहासिक लोकप्रिय संघर्षों, जिन्होंने उपनिवेषवाद का अन्त किया और जो आज भी नवसाम्राज्यवाद की आक्रामक मुहिम के खिलाफ जारी है, के भविष्य के लिए भी इसके बेहद प्रतिकूल निहितार्थ होंगे।
हमारा मानना है कि कृषि पर कार्पोरेट कब्जे को षिकस्त देना, भूमि, जल, बीज, जंगल और खनिजों के कार्पोरेटीकरण का प्रतिरोध करना और इन बुनियादी संसाधनों के समाजीकरण की ओर बढ़ना, रैडिकल एजेण्डा के दो केन्द्रीय तत्वों में से एक होगा। दूसरा केन्द्रीय तत्व नवसाम्राज्यवाद की सभी अभिव्यक्तियों रणनीतिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक- के खिलाफ समझौताविहीन प्रतिरोध होगा।
हमारा मानना है कि मौजूदा संदर्भ में मंच के समावेषी होने की कसौटी होगी आमतौर पर किसानों व मजदूरों तथा खासतौर पर मुस्लिम, दलित, आदिवासियों एवं अति पिछड़ों में इसकी अपील। कोई भी मंच रैडिकल के साथ ही समावेषी होने का दावा तब तक नही कर सकता है, जब तक कि वह हमारी राजनीति के इन तत्वों को बिना हिचक और खुलकर शामिल नहीं करता है। राजनैतिक एजेण्डा को उनके हितों की रक्षा की स्पष्ट घोषणा को अनिवार्यतः शामिल करना होगा और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि प्रत्येक स्तर पर सत्ता संरचना में उनकी हिस्सेदारी सुनिष्चित करना होगा।
हमारा मानना है कि समावेषी गैरसंकीर्ण लोकतांत्रिक राजनैतिक मंच को अनिवार्यतः संघीय चरित्र का होना चाहिए अर्थात समान विचार के सभी राजनैतिक संरचनाओं, संगठन, समूह, आंदोलन, व्यक्ति जो यहां दिए विष्लेषण, दृष्टिकोण और नीतियों से सहमत है, उन्हे मंच में शामिल होने के लिए आग्रह किया जाए ताकि एक ऐसा नया संघीय राजनैतिक समूह उभर सके जो जारी संघर्षो को बल प्रदान करे तथा नए संघर्ष छेडे़, ताकि मौजूदा संकट को जन्म देने वाली राजनीति व नीतियों को षिकस्त दी जा सके। प्रस्तावित मंच के संघीय चरित्र को शामिल होने वाले राजनीतिक संगठनों की पहचान और कार्यपद्धति का सम्मान करना होगा और किसी भी तरह उनके सांगठनिक अथवा चुनावी राजनीति में प्रतिर्स्पद्धी नहीं बनना होगा अथवा ऐसा प्रतीत भी होना होगा।
 हमारा मानना है कि इस रैडिकल एजेण्डा को लागू करने की रणनीति राष्ट्रीय स्तर पर बनानी होगी और उसे व्यवहार में उतारना होगा, लेकिन इसे अलग-थलग ढंग से वैष्विक संदर्भ में अंतर्विरोधों, संकटों तथा सम्भावित दोस्तों/दुष्मनों की अनदेखी करके नहीं बनाना होगा। शासक वर्गो ने इसे आत्मसात किया है और वैष्विक संदर्भ में अपने दोस्तों के साथ संश्रय कायम किया है। राष्ट्रीय रणनीति के विकास में वैष्विक संदर्भ तथा एकजुटता अगर निर्णायक नहीं भी हो तो भी अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है। इसलिए प्रमुख वैष्विक अंतर्विरोधों जैसे उत्तर बनाम दक्षिण, वैष्विक विकास बनाम पर्यावरण को खतरा और फलती-फूलती कार्पोरेट पंूजी बनाम मजदूर वर्ग, हाषिए पर ढकेले गए गरीब व बेरोजगार- के संदर्भ में अपने एजेण्डा के रणनीतिकरण में हमें दक्षिण, पर्यावरण की रक्षा, मजदूर वर्ग, सीमान्त और बेरोजगार गरीबों के पक्ष में होना चाहिए।

8-हमारे सोच(  विजन) की बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए कौन से नीति विषयक लक्ष्य ग्रहण किए जाने चाहिए

महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सम्बंधित हम बारह सूत्री प्राथमिकता सूची प्रस्तावित कर रहे हैं


जनवादी अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर हमले को षिकस्त देना और सषस्त्र बल विषेषाधिकार कानून समेत सभी विषेष कानूनों का, जो संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक दायरे को सीमित करते हैं और राज्य को बल प्रयोग के एकाधिकार का दुरुपयोग करने में सक्षम बनाते हैं, खत्म करने के लिए संघर्ष।
कृषि पर कार्पोरेट कब्जे को विफल करना, भूमि, जल, बीज, जंगल, खनिजों के कार्पोरेटीकरण का प्रतिरोध करना, इन मूलभूत संसाधनों के समाजीकरण की ओर बढ़ना।
सामुदायिक संसाधनों विषेषकर जंगल और आदिवासी इलाकों और उनकी जमीन में कार्पोरेट अतिक्रमण तथा कब्जे को विफल करना, आदिवासी सामुदायिक अधिकारों तथा आजीविका की रक्षा करना, सामुदायिक मालिकानों और वन संसाधनों के प्रबंधन को प्रोत्साहित करना, उन नीतियों को षिकस्त देना जो खनिज संसाधनों की कार्पोरेट लूट को बढ़ावा देती हैं और आदिवासियों के जीवन, आजीविका और आवास का विनाष करती हैं।
कृषि विषयक डब्लू0 टी0 ओ0/ कृषि विषयक समझौते को षिकस्त देना, कृषि उत्पादन और व्यापार में दक्षिण- दक्षिण सहयोग के लिए किसान केन्द्रित विकल्प के लिए संघर्ष।
वैकल्पिक विकास नीतियों के लिए संघर्ष जो न सिर्फ वैष्विक विकास की मुख्यधारा की रणनीति को नकारेगी बल्कि आत्मनिर्भरता व्यक्तियों के बीच, वर्गांे के बीच (शैक्षिणिक व सामाजिक रूप से पिछड़े व अगड़े वर्गों के अर्थ में) अंतर्क्षेत्रीय बराबरी और पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहित करेगी, इसका अर्थ होगा औद्योगीकरण के ढंाचे की दिषा का पुनर्निर्धारण। “इसका अर्थ होगा वैष्विक दृष्टि से प्रतिस्पर्धी” उद्योगों के मौजूदा मोह से अलग होना और रोजगारपरक व जनोपयोगी दिषा वाले उद्योगों की ओर बढ़ना।
स्वास्थ्य एवं षिक्षा को तेजी से माल में तब्दील करने की प्रक्रिया का अन्त और भोजन व अन्य जरूरी चीजों तक जनता की पहुंच तथा मौजूदा भेदभावमूलक महंगे और सीमित पहुंच वाली व्यवस्था की जगह स्वास्थ्य, षिक्षा, भोजन और अन्य जरूरी चीजों के प्रावधान के लिए सर्वांगीण समतापरक, सुलभ सार्वजनिक प्रणाली की स्थापना।
सामाजिक रूप से वंचित वर्गों व समुदायों के लिए निजी और सरकारी क्षेत्रों में षिक्षा व स्वास्थ्य में विषेष अवसरों की कानूनी गारंटी।
विभिन्न क्षेत्रों व वर्गों के बीच असमानता में भारी कमी करने वाली राष्ट्रीय वेतन और आय नीति।
भारतीय वित्तीय व्यवस्था की स्वायत्ता को मजबूत करना तथा इसे वैष्विक पंूजी की दुर्बलता और लालच से बचाना, आंचलिक वित्तीय सहयोग जैसे क्षेत्रीय मौद्रिक संघ के लिए संघर्ष।
अमरीकी रणनीतिक संश्रय से निर्णायक अलगाव और अमरीकी सैन्यवाद का विरोध, विषेषकर पष्चिम एषिया में अमरीकी-इजराइली सैन्यवाद और अमेरीका प्रायोजित इस्लामोफोबिया का पर्दाफाष करना और उसे षिकस्त देना।
एक नयी ऊर्जा नीति जो हमारे रणनीतिक कृषि व औद्योगिक नीतियों की नयी दिषा के अनूरूप हो। तेल, गैस से समृद्ध पष्चिम एषिया व मध्य एषिया के देषों के साथ चुनिंदा रणनीतिक सहयोग, शंघाई सहयोग संगठन के साथ घनिष्ठ सहयोग।     

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