22 अगस्त 2010
हिंदुस्तान ! हे राम...
भाजपाई अक्सर कांग्रेसियों को गुजरात पर नसीहत न देने और 1984 के सिख विरोधी दंगों में अपनी भूमिका को याद कर चुप रहने की सलाह देते हैं। इस तरह वो गुजरात 2002 के मुसलमानों के राज्य प्रायोजित जनसंहार को कांग्रेस सरकार द्वारा 1984 में सिखों के कत्लेआम की विभिषिका से छोटा ठहरा कर गुजरात के जनसंहार को जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। यह सब एक रणनीति के तहत होता है जिसके मूल में एक दूसरे की ज्यादतियों को वैधता देना होता है।
इस रणनीति का अखबार और पत्रकार कैसे इस्तेमाल करते हैं और दिनों दिन अपनी ही निरीह जनता के खून की प्यासी होती सरकारों की ज्यादतियों को कैसे जायज ठहराते हैं ‘हिन्दुस्तान’ 8 अगस्त 2010 में छपी सुशील शर्मा की बाइलाइन खबर ‘इजराइल भी खेलने लगा कश्मीरी कार्ड ’ जो दो कैप्शनो - कश्मीर में भारतीय सुरक्षाबलों के तरीकों पर टिप्पणी, लेकिन अपनी सीधे गोली मारने की नीति को जायज ठहराया, के साथ है, इसका क्लासिक उदाहरण है।
इस शीर्षक में इस रणनीति के तहत ही जहां एक ओर भारतीय सैनिकों द्वारा कष्मीरी नौजवानों के कत्लोगारत के समक्ष इजरायलियों द्वारा फिलिस्तीनियों के नस्ली जनसंहार की विभिशिका को खड़ा कर कष्मीर में सेना के ताण्डव को छोटा और जायज ठहराने की कोषिष की गयी है। तो वही इसकी आलोचना करने वाले इजराइल को अपने गिरेबान में भी झांकने और चुप रहने की नसीहत दी गयी है। लेकिन चूंकि, इजराइल एक फासिस्ट राश्ट् है जो पिछले 6 दषकांे से फिलिस्तीनियों का नस्ली जनसंहार कर रहा है और भारतीय षासकवर्ग जिसकी नीतियों को पिछले दरवाजों से लगातार सिर्फ समर्थन ही नहीं दे रहा बल्कि उसे भारतीय संदर्भों में भी अपनाने की छिपी चेष्टा को लगातार उजागर करता रहा है। इसलिए, कश्मीर मुद्दे के बरक्स इजराइली नीतियों को क्रूर साबित करने की इस कोशिश के पीछे जनता में ‘इजराइल की हद तक जाने ’ की आकांक्षा पैदा करना भी है। जिसे ‘अपनी सीधे गोली मारने की नीति को जायज ठहराया’ के तर्क से समझा जा सकता है, सुशील जी ये कहना चाहते हैं कि जब आप सीधे गोली मारने की अपनी नीति को गलत नहीं मानते तो हमारे छिटपुट हत्याओं को क्यूं गलत कह रहे हैं। आप को टिप्पणी करने का तभी हक है जब हम गोली मारने में ज्यादा क्रूर हो जाएं। यानी छिटपुट हत्याओं की आदी जनता अब सीधे गोली मारने की सैन्य कार्यवायी की स्वीकृति के लिए तैयार हो जाए क्योंकि हम अकेले ऐसे देश नहीं हैं जो ये कर रहे हैं। हमसे ज्यादा खूखांर देश भी हैं जो हमसे काफी पहले से यह सब करते आ रहे हैं।
बहरहाल, खबर की शुरूआत इजराइल की फासिस्ट कार्यवाहियों को अपने यहां स्वीकार्य बनाने के प्रयास में आमतौर पर प्रयुक्त फॉर्मूला जिसमें उसे रूस के बाद भारत का सबसे विश्वसनीय हथियार निर्यातक बताया जाता है के तर्क के साथ ही हुयी है। सुशील लिखते हैं- ‘यॅूं तो भारत और इजराइल के बीच सैन्य सहयोग को काफी भरोसेमन्द माना जाता है और इजराइल रूस के बाद ....’। दरअसल, इजरायल जिस तरह का हिंसक औेर मानवताविरोधी रिकार्ड का मालिक है उसे सामान्य तर्कों के साथ किसी सामान्य समाज में प्रतिष्ठित नहीं करवाया जा सकता इसे स्वीकार्य बनाने के लिए जरूरी हो जाता है कि पहले लोगों में डर और असुरक्षा बोध को लगातार बढ़ाया जाए। ताकि इससे निपटने के नाम पर लोगों को हिंसा और सैन्यवाद एक तार्किक और सामान्य विकल्प लगे। इसी राजनीति के तहत, हम देखते हैं कि, पिछले 10-15 सालों सें इजराइल और भारत के सम्बन्धों पर कोई भी बात इजराइल के एक विश्वसनीय हथियार निर्यातक देश होने के तर्क साथ ही शुरू की जाती है। हालांकि, दस प्रवृति की शुरूआत का श्रेय संघी और अमरीका परस्त प्रकाशनों- पायनियर, आर्गनाइजर, पांचजन्य, दैनिक जागरण, टाइम्स ऑफ इण्डिया, सामना इत्यादि को जाता है। लेकिन धीरे-धीरे सामान्य समझे जाने वाले प्रकाशन भी इसकी जद में आ गए। इस तर्क का मुख्य उद्देश्य लोगों के सामने इजराइल को एक कठोर सैन्य राष्ट्र के बतौर स्थापित करना होता है जिससे दोस्ती करना आतंकवाद से जूझ रहे भारतीय राष्ट्र के लिए हितकारी है। इजराइल के साथ ‘विश्वसनीय हथियार निर्यातक’ का विशेषण इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि अभी दो दशक पहले तक ही इजराइल भारत के लिए एक वर्जित और अवांछित नाम रहा है और अखबार निरन्तर उसकी फासिस्ट कार्यवाहियों की आलोचना करते रहे हैं। इसलिए सिर्फ इजराइल से कहीं अभी भी दिक्कत न हो जाए, उसे इस नए विशेषण के साथ ही पेश किया जाता है। यदि इस विशेषण का एक खास वैचारिक-राजनीतिक मकसद है- इजराइल का मेकओवर, ठीक उसी तरह जैसे कुछ प्रकाशन मोदी के मेकओवर की कोशिश में ‘विकास पुरूष’ का विशेषण प्रयोग कर रहे हैं। बहरहाल इस तर्क का असर यह हुआ है कि अब सामान्य लोग भी यह जानते-मानते हुए कि इजराइल एक नस्लवादी-फासीवादी राष्ट्र है उस तौर-तरीकों को वैधता देने लगे हैं। यह परिघटना कुछ वैसी ही है जैसे पिछले 15-20 वर्षों में असुरक्षाबोध पर टिके राजनीतिक माहौल में यह जानते हुए भी कि एनकाउन्टर अधिकतर फर्जी ही होते हैं उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, उसे लोग उचित समझते लगे हैं।
खबर का दूसरा पैरा ‘‘दारफुर के साथ कष्मीर की तुलना’’ उपशीर्षक से है। इसमें सुशील जी ने गम और गुस्से का इजहार करते हुए कहा है कि इजराइल के कुछ बुद्विजीवी कश्मीर के हालात की तुलना सुडान के दारफर में जारी हिंसा से करना नहीं चूकते। उन्होंने इस बात पर भी ऐतराज जताया है कि अनौपचारिक बातचीत में इजराइली सरकार के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ने भी ‘कश्मीरी लोगों की परेशानी पर चिंता जाहिर की’। समझा जा सकता है कि सुशील जी के लिए यह पचा पाना कितना मुश्किल हो रहा है कि इजराइल जैसे देश जो खुद फिलिस्तीनियों का जनसंहार में लिप्त हो ,के बुद्जिीवी कैसे कश्मीर की तुलना दारफर से कर सकता है। ऐसे में शायद यह जानकर उनका अपच और बढ़ जाए कि आईन्सटीन से लेकर एडवर्ड सईद समेत सैकड़ों इजरायली-यहूदी पृश्ठभूमि वाले ऐसे बुद्धिजीवी रहे हैं और हैं जो इजरायली सरकार द्वारा फिलीस्तीन पर जबरन कब्जेदारी की उसी तरह आलोचना करते रहे हैं जेसे भारत के जनपक्षधर बुद्जिीवी कश्मीरियों और आदिवासियों के सरकारी दमन का विरोध करते हैं। लेकिन यहॉं सवाल जानकारी का नहीं है। बल्कि उस मानसिक बनावट का है जिसके चलते किसी पत्रकार को यह लगता है कि बुद्जिीवियों का सरकारी स्टैण्ड से इतर जाना आश्चर्यजनक और आपत्तिजनक है।
दरअसल, आज पत्रकारिता के दिनों-दिन सरकारी नीतियों के समर्थक बनते जाने से जो उसके सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हुआ है उसके पीछे एक महत्वपूर्ण वजह पत्रकारों की यही मानसिकता है जो एक सरकारी नौकर की तरह सरकारी भाषा और तर्कों में ही बात करना अपना ‘राजधर्म’ समझता है। यदि गौर किया जाए तो यह प्रवित्ति ठीक उसी समय से शुरू हुई जबसे सुरक्षा और लॉं एण्ड ऑडर्र के बहाने एक नए सिरे से अल्पसंख्यक और पिछड़ा विरोधी राष्ट्रवाद खड़ा किया जाने लगा। यानि मण्डल, कमण्डल के दौर से। दरअसल, उस दौरान पत्रकारिता में दो गुणात्मक परिवर्तन हुए। पहला, कमण्डल की साम्प्रदायिक राजनीतिक चेतना वाले धुर अल्पसंख्यक विरोधी लोगों की खेप पत्रकारिता में आयी। जो अल्पसंख्यक समस्या’ के ‘फाइनल सोल्यूशन ’ के लिए इजराइल और अमरीकी नीतियों के समर्थन में उतर गए और पत्रकारिता का हिन्दुत्ववादी दिशा दे दी। तो वहीं दूसरी ओर सवर्ण-सामन्ती तबकों के उन युवाओं की फौज भी पत्रकारिता में आ गयी जो अब तक सीविल सर्विसेज की परीक्षा दे रहे थे। लेकिन पिछड़ों के आरक्षण को अपने पेट और माथे पर लात समझ कर वहॉं का मैदान छोड़ दिया। इस दूसरे खेप की एक प्रमुख प्रवृति यह थी कि लम्बे समय तक कलक्टर बनने के सपने ने उन्हें मानसिक और वैचारिक तौर पर सरकारी गुलाम बना दिया था। इसलिए उनके पत्रकारिता में आने के साथ ही खबरों में सरकारी पक्ष प्रति एक तरह की अन्धआस्था का दौर शुरू हो गया। खास तौर से गरीब,उत्पीड़ित तबकों के आन्दोलनों के प्रति तो वे एक दम सरकारी नजरिए से ही सोचने लगे। इस मानसिक विकलांगता के चलते उन्हें हर वो बुद्जिीवी जो किसी जनआंदोलन का समर्थक हो या सरकार का आलोचक हो, उनकी निगाह में देशद्रोही हो गया। सुशील जी के वैचारिक विकलांगता की वजहें भी इन्हीं दोनों प्रवित्तियों में से किसी एक में या दोनों के कॉंकटेल में हो सकती हैं।
खबर का तीसरा पैरा ‘कश्मीर में सुरक्षा बलों के रवैये पर टिप्पणी’ उपशीर्षक से है। जिसमें वे बताते हैं कि किस तरह ‘इजरायली सेना के एक कर्नल डेनियल रेजनर के साथ बातचीत के दौरान भारतीय पत्रकार तब चौंक गए जब उसने इजरायल की यात्रा पर गए भारतीय सेना के कुछ जनरलों के साथ हुई बातचीत उजागर कर दी। जिसमें उनसे भारतीय सैन्य अधिकारी ने बताया कि भारतीय फौज हथियारों और आंतकियों की तलाश में कश्मीर में लोगों के घरों में घुस जाती है ’।
मगर पत्रकारिता का एक आयाम दबाए गए तथ्यों को जॉंच पड़ताल कर सामने लाना है तो खबर का यह हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण है कि आखिर भारतीय सेना के अधिकारी गुपचुप तरीके से इजरायली सैन्य अधिकारियों के दूसरे देशों के अपने समकक्षों से टेक्टीकल आदान-प्रदान प्रमुखता से बनते या बनाये जाते है। लेकिन सुशील जी ने इस महत्वपूर्ण बिन्दु को डायल्यूट कर दिया हैं हो सकता है इसकी वजह उपरोक्त कारणों से आयी मानसिक विकलांगता हो जिसके चलते उन्हें यह महत्वपूर्ण घटना न लगी हो और वे इसे कलकटरी नजरिये से ‘सुरक्षा के लिहाज से गोपनीय ’ मान गए हों। इसीलिए वे इसकी तह में जाने के बजाए भारतीय सैन्य अधिकारी द्वारा खुद अपने मुंह से कश्मीरियों के घरों में गैरकानूनी तरीके से घुसने की स्वीकृति पर इजरायली अधिकारी द्वारा टिप्पणी को राष्ट्रीय अस्मिता पर हमला बताने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
बहरहाल, ‘हिन्दुस्तान’ का इजराइल और उसकी फासीस्ट नीतियों के समर्थन का यह कोई एकमात्र उदाहरण नहीं है। बल्कि 15 अगस्त 2010 को फुल पेज की ‘तरक्की की दौड़ में हम कहां हैं ’ शीर्षक से छपे गोविन्द सिंह द्वारा माडरेट की गयी स्टोरी में भी व्योमेश जुगरान की इजराइल पर केन्द्रित लेख ‘ संघर्ष का नाम है इजराइल ’ छपा है। जिसमें बताया गया है कि ‘ वह अपने वजूद को बचाने के लिए दुनिया के सबसे खूखार आंतकवाद का सामना कर रहा है’,। इसी तरह एक जगह बताया गया है कि ‘इजराइल के पास दुनिया की सबसे युद्व निपुण सेना है। यहां प्रत्येक नागरिक को रिर्जव सेना का प्रशिक्षण हासिल करना अनिवार्य है।’
‘हिन्दुस्तान’ में आने से पहले अमर उजाला में इजराइली राष्ट्रपति गोतडा मायर और एरियल शेरॉन की फिलिस्तीनियों की नस्लकुषी का समर्थन कर चुके गोविन्द सिंह देंखें ‘कथादेश,मीडिया विषेशाक,राजीव यादव, आंतकवाद और मीडिया’ से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि अगर सेना में अनिवार्य प्रशिक्षण इजराइल की विशेषता है तो फिर वहॉं के कैम्पसों में इसके खिलाफ आन्दोलन क्यों हो रहे हैं। या जब इजराइल दुनिया के सबसे खूंखार आंतकवाद से लड़ रहा है तब हर साल सयुंक्त राष्ट्र महासभा में उसके द्वारा फिलिस्तीनियों की नस्लकुषी के खिलाफ प्रस्ताव क्यूं लाए जाते हैं। जहॉं उसके पक्ष में अमरीका सहित मुश्किल से 5-6 देश ही खड़े होते हैं, या फिर दुनिया भर के तमाम मुल्कों में एरियल शेरोन को युद्व अपराधी घोषित कर अंतर्राष्ट्री न्यायालय में मुकदमा चलाने की मांग क्यों होती है। या फिर औरों को छोड़ीए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जीवन पर इजराइल को विश्वशांति के लिए खतरा क्यों बताते रहे और फिलिस्तीन के पक्ष में प्रस्ताव क्यों पारित करवाते रहे।
बहरहाल, गोविन्द जी जिस संघी पृष्ठभूमि से आते हैं, हो सकता है वो गांधी जी से सम्बन्धित सवालों का जबाव उनके द्वारा मुसलमानों की ‘तुष्टीकरण’ की नीति में ढूंढ़ें। अगर ऐसा नहीं हो तो पत्रकारिता के लिए अच्छा होगा। लेकिन अगर ऐसा होता है तो फिर ‘ हिन्दुस्तान’ के लिए -‘ हे राम ’ ही कहा जा सकता है।
शाहनवाज आलम
स्वतंत्र पत्रकार
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