दिनकर कपूर
इस समय पूरा प्रदेष किसान आंदोलन की चपेट में है। आगरा से लेकर अलीगढ़, मथुरा, नोएड़ा, गाजियाबाद का पष्चिमी उत्तर प्रदेष का क्षेत्र हो या फिर पूर्वाचंल का बलिया, भदोही, मिर्जापुर का इलाका हर जगह किसान सड़कों पर अपने गुस्से का इजहार कर रहे है। किसानों का विरोध प्रदेष सरकार द्वारा गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे और विकास प्राधिकरणों के नाम पर ली जा रही जमीनों को लेकर है। गौरतलब है कि मायावती सरकार द्वारा गंगा एक्सप्रेस वे के लिए 64 हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, जो 2007 तक पूरे देष में कुल 362 सेज के लिए अधिग्रहित 55 हजार हेक्टेयर जमीन से भी ज्यादा है। इस परियोजना में कुल जमीन का महज 5 फीसदी ही सरकारी जमीन है, शेष जमीन किसानों से अधिग्रहित की जायेगी, जिसमें से भी 70 फीसदी जमीन करीब एक लाख एकड़ कृषि योग्य उपजाऊ जमीन है। इसे बनाने की कीमत के बतौर सरकार 30 हजार एकड़ जमीन जे. पी. एसोसिएटस को देगी साथ ही 35 साल तक इस सड़क की टोल टैक्स वसूली का अधिकार भी। जबकि सभी लोग जानते है कि गंगा बेसिन का भूमि संसाधन दुनिया में एक बहुमूल्य संसाधन के रूप में विख्यात है और पूरे देष की उर्वरा भूमि का 40 प्रतिषत हिस्सा अकेले गंगा बेसिन में आता है। यह गंगा बेसिन का क्षेत्र अपनी भरपूर उत्पादकता के चलते देष के कुल 37 प्रतिषत जनसंख्या का भरण पोषण करता है। इस गंगा बेसिन का बड़ा हिस्सा उ0 प्र0 में आता है। पर्यावरणविदों के अनुसार तो गंगा के बाएं तट को बांधकर 8 लेन की चौड़ी सड़क और सेज, माल, स्वीमिंग पूल आदि के निर्माण का इस पूरी पट्टी में पर्यावरणीय संतुलन, भूमि उर्वरता एवं जल संरक्षण के लिए असर विनाषकारी होगा। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि इस एक्सप्रेस वे से महज 2.5 किलोमीटर पर पहले से ही जी. टी. रोड़ मौजूद है। बावजूद इसके 19 जिलों और 36 तहसीलों से गुजरने वाली इस सड़क के लिए बलिया से लेकर नोएड़ा तक किसानों की जमीने ली जा रही है। इसी प्रकार मार्च 2011 तक तक पूरे होने वाले, 165.53 किलोमीटर लम्बे 6 लेन के आगरा से लेकर नोएड़ा तक बनने वाले, मायावती सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट यमुना एक्सप्रेस वे के लिए गौतमबुद्धनगर, बुलंदषहर, अलीगढ़, महामायानगर, मथुरा और आगरा के किसानों की जमीन ली जा रही है। इस यमुना एक्सप्रेस वे के साथ बनने वाले विषेष औद्योगिक प्राधिकरण के नाम पर जिन किसानों की जमींनें सरकार अधिग्रहित करने की कोषिष कर रही है। उनमें से एक ब्लाक खंदौली पूरे देष में कर्नाटक के बाद सर्वाधिक आलू का उत्पादन करता है। बावजूद इसके जे0पी0 समूह को अकूत मुनाफा दिलाने के लिए सरकार ने शासनादेष जारी कर 1182 गांव की जमीनें अधिग्रहित करने का ऐलान कर दिया। करीब ग्यारह लाख की आबादी इससे बेदखल की जायेगी। खेती के लिए बेहद उपजाऊ इस जमीन का उपयोग विषेष आर्थिक क्षेत्र, रियल एस्टेट, पांच सितारा होटल, शापिंग माल, रिर्सोट, फार्म हाउस व कालोनियों को बनाने में किया जायेगा। कारर्पोरेट मुनाफे के लिए जमीन अधिग्रहण के इस खेल में हो रही लूट को दिल्ली के सीमावर्ती राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र नोएड़ा, ग्रेटर नोएड़ा और गाजियाबाद के इलाकों को में देखा जा सकता है। इस क्षेत्र को बड़े आर्थिक हब में तब्दील करने की योजना के तहत युद्धस्तर पर किसानों से जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है। हालात यहां इतने बुरे है कि जमीनों के मालिक किसानों को जमीन का मुआवजा एक हजार रूप्ये प्रति वर्ग मीटर से भी कम दिया जा रहा है वहीं यह जमीनें कोलोनाइजर और बिल्डर एक लाख रूप्ये प्रति वर्ग मीटर से भी ज्यादा दामों में बेच रहे है।
पहले से ही तबाही की मार झेल रहे किसानों के लिए सरकार द्वारा किया जा रहा यह अधिग्रहण चौतरफा बर्बादी लेकर आया है। किसानों की आजीविका पर की जा रही इस डाकाजनी को कानून सम्मत ठहराने के लिए देष की संसद से बकायदा सेज कानून, 2005 पास करवा लिया गया और आष्चर्य की अपने को किसानों का पक्षधर बताने वाली तमाम पार्टियों ने किसानों के पेट पर लात मारने वाले इस कानून को ताली बजाकर सर्वसम्मति से पास कर दिया। अभी प्रदेष सरकार द्वारा हो रहा सारा अधिग्रहण अंग्रेजों के बनाये कानून ’भूमि अधिग्रहण कानून 1894’ के तहत हो रहा है। इस कानून के तहत सरकार जब चाहे किसानों की जमीनें अधिग्रहित कर सकती है। किसानों के लिए धड़ियाली आंसू बहाने वाली कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार अमरीका को खुष करने के लिए तो संसद से परमाणु दायित्व विधेयक को पारित करा लेती है लेकिन गुलाम भारतीयों के शोषण के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाएं 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को खत्म करने में उसकी कोई रूचि नहीं दिखती है। किसानों के आंदोलन के दबाब में जो नया भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास बिल संसद में लाया भी जा रहा है उसमें भी जनहित और सार्वजनिक जरूरत के नाम पर भूमि अधिग्रहण को वैध ठहराया जा रहा है। इतना ही नहीं बिल में कहा गया है कि किसानों की 70 प्रतिषत जमीन औद्योगिक घराने और पंूजीपति खरीदेगें और शेष 30 प्रतिषत सरकार खरीद कर उन्हे सौपेगी यानी कारर्पोरेट घरानों के लिए ऐजन्ट की सरकार की भूमिका बनी रहेगी।
स्वाभाविक तौर पर सरकार द्वारा कारर्पोरेट धरानों और बड़े पूंजी धरानों को अकूत मुनाफा कमवाने के लिए किए जा रहे इस अधिग्रहण के खिलाफ किसानों में आक्रोष है और वह इस अधिग्रहण पर रोक लगाने, अंग्रेजों द्वारा बनाएं 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को खत्म करने और अपनी जमीन, आजीविका की रक्षा के लिए आंदोलन में है। अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे किसानों की इन सवालों को सुनने की जगह प्रदेष सरकार उनपर चौतरफा हमला कर रही है। हाल ही में अलीगढ़ के टप्पल में तीन किसानों की पुलिस द्वारा ठण्ड़े दिमाग से हत्या कर दी। इसके पहले अपनी जमीन के उचित मुआवजे की मांग कर रहे 5 किसानों की ग्रेटर नोएड़ा में सरकार की पुलिस ने हत्या कर दी थी। पूरे पूर्वाचंल में गंगा एक्सप्रेस वे का विरोध कर रहे किसानों को जेल भेज दिया गया, उनपर बर्बर लाठीचार्ज कराया गया। किसानों के साथ यह बर्ताव वह सरकार कर रही है जो पूर्ववर्ती सरकार के दमनकारी राज से ऊबे किसानों के बदौलत ही बनी थी। कौन नही जानता कि दादरी किसान आंदोलन ने उ0 प्र0 में जब राजनीतिक शक्ल अख्तियार किया था। पूर्ववर्ती सरकार के खिलाफ दबा गुस्सा सड़क पर आ गया था और उनकी माफियापरस्त, दमनकारी, फिल्मी सितारों की चमक-दमक, काले धन और तीन तिकड़म की राजनीति मुहं के बल पर गिर गयी और उसे सत्ता से जाना पड़ा। उस समय दुनिया के कथित सबसे बड़े गैस आधारित पावर प्लांट के नाम पर पूर्ववर्ती सरकार ने ढाई हजार एकड़ जमीन अनिल अम्बांनी को देने का फैसला किया था। इसके खिलाफ आंदोलनरत किसानों के साथ मुलायम सरकार की पुलिस ने भी वही सलूक किया था जैसा आज मायावती राज में हो रहा है। बहरहाल सरकारों द्वारा किसानों पर ढ़ाएं जा रहे बर्बर जुल्म के बावजूद किसानों का आंदोलन जारी है। किसानों ने दिल्ली और लखनऊ में दस्तक दी है और आने वाले समय में कारर्पोरेटपरस्त राजनीति के बरखिलाफ यह उत्तर प्रदेष में किसान पक्षधर नए राजनीतिक विकल्प का वाहक बनेगा।
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