08 अक्तूबर 2010

हमारी अयोध्या

राजीव यादव
मुझे कक्षा सात में पहली बार स्कूल टूर के साथ अयोध्या जाने का मौका मिला। अयोध्या पहुंचने पर सभी के दिलो-दिमाग में एक चीज थी कि ‘राम जन्म भूमि’ के दर्षन करने हैं और इस विचार का प्रस्फुटन हमारे दिमाग में हमारे षिक्षकों ने कराया था। स्कूली बच्चों की क्रमबद्ध लाईनों में गुजरते वक्त मैं गलीयों-मुहल्लों को बड़ी बारीकी से देखते वक्त अपने मित्रों और षिक्षकों से पूछता कि क्या यह राम के समय का है? यहां राम क्या करते थे? वगैरह-वगैरह। पर सभी उस विवादित ‘जन्म भूमि’ स्थल पर ही जाने को ‘व्याकुल’ थे। पर मैं उस विवादित स्थल पर जाने से कतरा रहा था अपने मुस्लिम मित्रों की वजह से। बहरहाल हम बाबरी मस्जिद के नजदीक जैसे-जैसे पहुंचने लगे वैसे-वैसे बढ़ रहे सुरक्षा के मानक हममें अपने धर्म के प्रति असुरक्षाबोध पैदा कर रहे थे। और इसके जनक भी हमारे षिक्षक ही थे जो इस स्थल पर किसी ऐतिहासिक दृश्टि से नहीं बल्कि धार्मिक दृश्टि से हमें लेकर आए थे।

लंबे लोहे के बाड़े से गुजरते वक्त हमें बाबरी मस्जिद के अवषेशों की छोटी-बड़ी कहानियों का भी जो अनुभव हुआ उसमें एक बार मैं रम गया और अपने मुस्लिम मित्रों की तरफ इस भाव से देखने लगा ‘जो भी हुआ बड़ा बुरा हुआ पर हमारे आराध्य भी तो तंबू में हैं।’ मुझे नहीं मालूम उनके दिलों-दिमाग में क्या चल रहा था पर उनके चेहरे की भावुकता मेरे अन्दर आत्मबल दे रही थी कि वो भी हमारे साथ हैं। मैंने भी उस तम्बूनुमा मंदिर को प्रणाम कर ‘ऐतिहासिक आनंद’ की अनुभूति की।

मुझे दोबारा अयोध्या चार-पांच साल पहले पूर्वांचल में चल रही हिंदू सांप्रदायिकता के खिलाफ एक महंत से साक्षात्कार लेने के लिए जाना पड़ा। जब हमारे एक साथी ने बताया की महंत युगल किषोर षरण षाश्त्री जी इसकी खिलाफत करते हैं तो मुझे विष्वास ही नहीं हुआ। क्योंकि मेरे अंदर जो अयोध्या की छवि थी वो इसके बिल्कुल विपरीत थी। बहरहाल मुझे अपनी अयोध्या को षाह आलम भाई ने दिखाया जो संवेदनषील-विवादित नहीं बल्कि निरीह थी। इस निरीहिता के साथ मुझे बचपन के मुस्लिम दोस्त बार-बार याद आ रहे थे कि उन्होंने इसे देखा होगा तो क्या सोचा होगा। हम हिंदू बच्चों की बहुसंख्यकता ने उनके अन्दर के जज्बात को दिल के अंदर ही दफन कर दिया होगा। वो भी अयोध्या की ही तरह नीरीह रहे होंगे, जिसने ‘राम-राम’ को ‘जय श्री राम’ में तबदील होते देखा था। अयोध्या की गलियां बानबें की उस त्रासदी की गवाही करती हैं कि वो उस सदमें से अब तक नहीं उबर पायीं हैं। कहने को तो धर्म नगरी पर धर्म नगरी में बजने वाली घंटियों के मातमी षोर अयोध्या को बार-बार धमकी देते हैं कि कहीं यह नए कर्फयू की तैयारी तो नहीं है। यह बातों का षब्दजाल नहीं है। एक नहीं अयोध्या की सारी गलियां इस बात की गवाह हैं कि बानबे के बाद यहां भवनों का नव निर्माण बहुत कम हुआ। यही हाल नयी दुकानों का भी है। पूरे षहर की वीरानी को देख ऐसा लगता है कि ये लोग रंग रोगन का मतलब षायद नहीं जानते। पर षायद यह हमारी भूल होगी, क्योंकि अवध के लोग अपने आराध्यों के साज-श्रृंगार को ही पूजा मानते हैं। निष्चय ही जिन लोगों की जिंदगी में धर्म मछली के कांटे की तरह अटका हो उनके लिए रंगों के मायने खत्म हो जाते हैं। आज अयोध्या अपनी पहचान से काफी परेषान है। जहां भी जाओ अयोध्या के हो तो बताओं राम लला का क्या चल रहा है? या बजरंगी क्या कर रहे हैं? क्या अयोध्या बस इतनी भर है।

एक तरफ अवधी नवाबों द्वारा बसाई 1857 की साझी षहादत, साझी विरासत की परंपरा जहां मुस्लिम नवाबों द्वारा अनेकों मठों का निर्माण कराया गया है तो दूसरी तरफ हिंदुत्ववादियों द्वारा छह दिसंबर 1992 को ढहाई बाबरी विध्वंस की कलंकित परंपरा। अगर पहले रुप को स्वीकार करती है तो ‘हिंदुस्तान की राजनीति’ उसे अधर्मी कह नरसंहार पर उतारु हो जाती है। और दूसरे रुप को स्वीकारती है तो उसे घुटन होती है। क्योंकि अयोध्या के लोगों ने अपनों को धर्म की सेज पर लाषों में तब्दील होते देखा है। और जब भी आवाज उठाने की कोषिष की तो उसे ‘जय श्री राम’ के नारों के कोलाहल के बीच दबा दिया जाता है। ऐसी ही वजहों से मैं अयोध्या को इतने वक्त बाद जान पाया क्योंकि उसकी आवाज दब सी गयी है।

अगर धर्म की बात करें तो अयोध्या के और कई मायने हैं। अयोध्या को खुर्द मक्का यानी छोटी मक्का के नाम से जाना जाता है। हजरत आदम की नवीं संतान हजरत नूह की नौगजी कब्र मषहूर है। ऐसा माना जाता है कि जब जलजला आया तो नूह ने नर-मादा जीवों के एक-एक जोड़ी को एक नाव पर सुरक्षित कर लिया था जिससे सृश्टि का फिर से निर्माण हो सके। दूसरे पैगम्बर हजरत षीष जिन्हें हिन्दू षीष बाबा के नाम से जानते हैं और रामायण मेले की षुरुआत यहीं से होती है। तीसरे पैगम्बर हजरत अय्यूब सब्र के सबसे बड़े पैगंबर माने जाते हैं। इन सब बातों का जिक्र अयोध्या षोध संस्थान और फारसी की अनेकों किताबों में है। हनुमान गढ़ी के पास के दंत धावन कुंड के बारे में है कि भगवान बुद्ध ने यहां बारह वर्शों तक वर्शावास किया था। तो वहीं अयोध्यावासी जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋशभ देव का जन्म स्थान अयोध्या को बताते हैं। ये वे मान्यताएं हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि अयोध्या सभी धर्मों की षरण स्थली रहा है।

यहां सूफी संतों की बाईस-तेइस दरगाहें और मजारंे हैं। जिसमें हजरत इब्राहिम षाह का बड़ा नाम है। अयोध्या के लिए सूफीवाद एक विचार नहीं बल्कि चरित्र है जो सूफियों के आने से पहले ही इसकी धमनियों में दौड़ रहा था। पर छवियों की राजनीति ने इन सब बातों को प्रायोजित तरीके से भुला दिया। जो बाबरी मस्जिद थी वह पहले राम जन्म भूमि विवादित ढांचा हुयी फिर उसका ध्वंस हुआ और फिर आज यह क्षेत्र थाना राम जन्म भूमि के अन्तर्गत है। आज एक बार फिर घंटियों का षोर बढ़ रहा है और अयोध्या बहुत परेषान है।

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