22 नवंबर 2010

अयोध्या को 'शरीफ चचा' की नजरों से भी देखें


अयोध्या की अनूठी पहचान 'शरीफ चचा'
शाहनवाज़ आलम
अयोध्या और फैजाबाद जिन्हें गंगा-जमुनी तहजीब का जुड़वा शहर भी कहते हैं, पिछले आधी सदी के राजनीतिक इतिहास में धुर अन्तविरोधी मूल्यों का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। लेकिन अफसोस कि, राजनीति और मीडिया ने इस शहर के सिर्फ मानव विरोधी अन्धकारमय मूल्यों में ही दिलचस्पी दिखाई और ये जुड़वा शहर पूरे देश में भय और आतंक का पर्याय बन गए। अभी हाल ही में इसी शहर की एक शख्सियत पर केन्द्रित डाक्यूमेंट्ी फिल्म ‘‘राइजिंग फ्रॉम दि ऐशेज’’ इस अन्तविरोध में समय के दूसरे छोर की कहानी है।
कहानी के केंद्र में हैं मो0 शरीफ यानी शरीफ चचा। शरीफ चचा एक साइकिल मैकेनिक हैं। लेकिन ये सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है,मकसद नहीं। फैजाबाद के खिड़की अली बेग मुहल्ले के रहने वाले शरीफ चचा लावारिस लाशों के वारिस हैं। यानी ऐसी लाशों जिनका कोई वारिस नहीं होता . वे उन्हें उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं। ये काम वे पिछले अठ्ारह सालों से अनवरत कर रहे हैं और अब तक लगभग सोलह सौ ऐसी लाशों को उन्होंने मानवीय गरिमा दी। जो हर मनुष्य का मानवीय अधिकार है। लेकिन शरीफ चचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत मार्मिक कहानी भी है जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है।
दरअसल, अठ्ारह साल पहले शरीफ चचा के बेटे मो0 रईस की जब वो सुल्तानपुर गया था किसी ने हत्या करके लाश फेंक दी थी, जिसे कभी ढूंढा नहीं जा सका। तभी से शरीफ चचा ऐसी लावारिश लाशों को उनका मानवीय हक दिला रहे हैं। वे कहते हैं ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते पर आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों द्धारा नुचने या हास्पिटल में सड़ने नहीं दूंगा।’ फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार सीके मिश्रा कहते हैं ‘शरीफ चचा के साथ जो त्रासदी हुई उसमें सामान्यतः लोग दुनिया और समाज से नफरत करने लगते हैं, लेकिन चचा ने इसके विपरीत राह दिखाई। उन्होंने लावारिस लाशों को गरिमा प्रदान करने को ही अपनी जिन्दगी बना ली। क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसा करने से उनके बेटे को जन्नत नसीब होगी।’
शरीफ चचा अपने इस काम में सुबह की नवाज पढ़ने के बाद ही लग जाते हैं। वे हास्पिटल, मुर्दा घर और रेलेवे टै्कों पर ऐसी लाशों की खोज में निकल पड़ते हैं। चचा के इस काम में स्थानीय लोग भी उनका हाथ बंटातंे हैं। ज्योति कहते हैं ‘रात या दिन जब भी हम लोग चचा को कोई लाश ले जाते देखतें हैं, उन्हें अपनी गाड़ी दे देते हैं। वहीं मो0 फैय्याज जो मुस्लिम लाशों का जनाजा पढ़ाते हैं, बताते हैं ‘चचा इन लावारिस लाशों की किसी अपने की लाश की तरह ही देख भाल करते हैं।’ वहीं शरीफ चचा हिंदू लाशों को खुद अपने हाथों से सरयू किनारे मुखाग्नि देते हैं।अयोध्या के प्रतिष्ठित संत सतेंद्र दास कहते हैं ‘मानवता को प्रतिष्ठित करने के इस महान काम के लिए शरीफ चचा को ‘तुलसी स्मारक भवन’ में सम्मानित किया गया है और उनकी इज्जत हर तबके के लोग करते हैं।’ बहरहाल, सूफी संतों की अयोध्या को उसकी वास्तविक पहचान देने की कोशिश में लगे शरीफ चचा की बढ़ती उम्र लोगों को मायूस भी करती है। डा0 करुणाशील पूछते हैं ‘कल जब चचा नहीं रहेंगें तब उनके इस काम को कौन आगे बढ़ाएगा?
शाह आलम, शारिक हैदर नकवी, गुफरान खान और सैय्यद अली अख्तर द्वारा निर्मित यह फिल्म शरीफ चचा को राम के नाम पर अयोध्या को बदनाम करने वाले हिन्दुत्ववादी तत्वों के समानांतर खड़ा करके उनकी शख्सियत पर रोशनी डालती है। फिल्म दिखाती है कि अयोध्या की पहचान केवल रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के लिए ही नहीं है,बल्कि वह कई ऐसी शख्सियतों को भी अपने में समेटे हुए है जिसकी तरफ दंगों की राजनीती करने वालों और उनका मुखपत्र बन चुकी आज की मीडिया का ध्यान नहीं जाता . हम यह बलिवूद के किसी फिल्मकार से उम्मीद नहीं कर सकते की वे अयोध्या पर इस नजरिये से कोई फिल्म बनाएगा. यह काम केवल ये युवा फिल्मकार ही कर सकते थे. उन्होंने थोड़ी बहुत कमी बेशी के साथ यह काम बखूबी किया है. 
‘‘राइजिंग फ्रॉम दि ऐशेज’’ का पोस्टर

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