विजय प्रताप
विपक्षी दलों के विरोध का केन्द्र बिंदु संसद और जेपीसी जांच है। कोई भी पार्टी आम जनता के बीच इस मुद्दे पर बहस नहीं करना चाहती। मजबूरी यह है कि कोई भी पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त नहीं है, इसलिए उनका जनता के बीच बहस से बचना लाजिमी है। सारी लड़ाई संसद के गलियारों व मीडिया के बीच लड़ी जा रही है। यह उनकी राजनैतिक वैधता की जरुरत है। भाजपा ने आदर्श हाउसिंग घोटाला मामले में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा मांग कर अपने लिए ही संकट मोल लिया। क्योंकि जब सवाल जब उनकी पार्टी से कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर उठने लगा तो उनसे इस्तीफा लेना मुश्किल हो गया। अंततः ‘जनप्रिय’ नेता के नाम पर येदुरप्पा मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं। भाजपा ने इससे साबित कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रिय होना विधायकों के समर्थन की गुणा-गणित पर निर्भर है। कांग्रेस 2 जी स्पेक्ट्रम से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स तक घोटालों के आरोपों से घिरी है। विपक्षी क्षेत्रीय पार्टियों पर भी उनके राज्यों में ऐसे कई आरोप जांच की प्रक्रिया में हैं।
वास्तव में भ्रष्टाचार के लिए कोई एक व्यक्ति, पार्टी या संस्था ही जिम्मेदार नहीं है। लेकिन समस्या की मूल कारणों पर बात से बचने के लिए सचेत रूप से हमेशा ही बहस को इन्हीं छोटे से दायरों में समेट दिया जाता है। जब भ्रष्टाचार व्यवस्था को अपनी चपेट में ले ले तो उसकी जड़ काट देना ही इलाज होता है। लेकिन मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ काटना संभव नहीं है। इससे कइयों के स्वार्थ जुड़े हैं। इसलिए इसके खिलाफ समय-समय पर उठने वाले जन आक्रोशों को दबाने के लिए किसी एक व्यक्ति की बलि जरूरी हो जाती है। जबकि लाखों करोड़ रुपये का घोटला करना किसी एक सुरेश कलमाड़ी, ए राजा या नीतीश कुमार के बस की बात है। इसमें पूरी प्रशासनिक मशीनरी व राजनीतिक व्यवस्था के सहयोग की जरुरत पड़ती है। ऐसे में किसी एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार की बहस का क्या निहितार्थ है? भ्रष्टाचार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का अनिवार्य अंग बन चुका है। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन एक व्यवस्था का हिस्सा होते हुए वह खुद को पाक साफ नहीं बता सकते। भ्रष्टाचार जैसी समस्या का कोई एक समाधान नहीं हो सकता। भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए जनआंदोलन की जरुरत होती है। कई देशों में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां भ्रष्टाचार एक सीमा से अधिक बढ़ जाने पर जनता खुद ही सड़कों पर उतर आती है।
भारत में भी ऐसे आमूलचूल बदलाव की जरुरत है। लेकिन विडम्बना यह है कि एक ही रंग में रंगी सभी पार्टियों में बदलाव के लिए संघर्ष का नेतृतव कौन करे? संसदीय पार्टियां अपनी वैधता के लिए विपक्ष में रहते हुए भ्रष्टाचार का मुद्दा तो उठाती हैं, लेकिन लड़ाई का वह सुरक्षित तरीका अख्तियार करती हैं, जिससे व्यवस्था पर कोई आंच न आए। इसलिए आजादी के इतने सालों बाद भी भ्रष्टाचार अनवरत विकास कर रहा है और गिनती इस बात की हो रही है कि किसने बड़ा घोटाला किया, किसने छोटा।
सवाल यह भी है कि क्या संयुक्त संसदीय समिति से किसी माामले की जांच करा देने से भ्रष्टाचार का हल निकाला जा सकता है। जांच से केवल व्यक्ति या संस्था को दोषी ठहराया जा सकता है। यह राजनीति करने वाली सभी पार्टियां जानती है। वह चाहती भी यही है। क्योंकि एक बड़ी समस्या का इससे सूक्ष्म और तात्कालिक इलाज कोई और नहीं हो सकता। इसलिए जेपीसी की मांग पर अड़ी विपक्षी पार्टियों की राजनीति भी हमें समझने की जरुरत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनैतिक पार्टियों का काम पुरानी व्यवस्था को बनाये रखने का है। सभी राजनैतिक दल अपनी उसी जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। ऐसे में इनसे यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि वह भ्रष्टाचार से लड़ाई के अगुआ बनेंगे।
संप्रति - स्वतंत्र पत्रकार
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