15 फ़रवरी 2011

कानूनी इलाज का शगल

विजय प्रताप
कभी आप लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन से बाहर निकले तो आपकी नजरों का सामना दूर-दूर तक एक तरह के ही साइन बोर्ड या होर्डिंगों से होगा। ‘‘यौन समस्याओं का शत-प्रतिशत इलाज’’ का दावा करने वाले डॉक्टरों की आपसी होङ शहर को यौन रोगियों का शहर होने का भम्र पैदा करती हैं। इस तरह के भम्र का दायरा तब विस्तृत हो जाता है, जब आप भारतीय रेल से सफर कर रहे हों। रेलवे लाइनों के किनारे दीवारें यौन समस्याओं का इलाज करने वाले हकीमों-डॉक्टरों के विज्ञापनों से अटी पङी रहती हैं। ऐसे विज्ञापन पिछले कई दशक से किए जा रहे हैं। सरकार अब इस पर शर्मिंदा है। इसलिए केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ऐसे विज्ञापनों और डॉक्टर-हकीमों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने जा रहा है।

किसी गंभीर समस्या की तरफ से ध्यान हटाने के लिए कानून बना देना सरकार का सबसे आजमायी हुई दवा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून की भूमिका अहम होती है। आमजन का विश्वास न्यायपालिका और कानून पर ज्यादा होता है। ऐसे में व्यवस्था के सामने जब भी सामाजिक-राजनैतिक संकट आते हैं, वह उसका कानूनी इलाज ढूंढना शुरू कर देती है। स्वास्थ्य के प्रति सरकारी लापरवाही का ही नतीजा है कि भारत में प्रतिवर्ष लाखों लोग किसी न किसी बीमारी की वजह से अकाल मौत मर जाते हैं। पिछले दो दशकों से सरकारों ने जिस तरह से स्वास्थ्य सेवाओं से अपना हाथ पीछे खिंचा है, निजी चिकित्सकों की बाढ़ आई हुई है। इसमें ऐसे चिकित्सक भी शामिल हैं जो विज्ञापनों के जरिए ‘शत-प्रतिशत इलाज’ का दावा करते हैं। गलियों-गलियों ऐसे डॉक्टरों-हकीमों के साइन-बोर्ड, होर्डिंग्स, पर्चे, पोस्टर देखे जा सकते हैं। यौन संबंधी बीमारियों में ये दावे आम हैं। सवाल है कि आखिर इन डॉक्टर या हकीमों को इतनी छूट कैसी मिल गई कि वह लगातार आक्रामक प्रचार अभियान चलाकर लोगों गुमराह करते रहे। यह सब कुछ इतने दिनों से चल रहा है, तो सरकार पहले ही क्यों जागी? सरकार ऐसे दावों को रोकने के लिए अब कानून बनाने की बात कर रही है, जबकि इस संबंध में पहले से ही कानून बना हुआ है। औषधी और चमत्कारिक इलाज (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 पूरी तरह से ऐसे विज्ञापनों और दावों को रोकने के लिए ही है। इस अधिनियम के दायरे में वे दवाएं भी आती हैं, जो चमत्कारिक इलाज का दावा करती हैं। ऐसे विज्ञापनों का प्रकाशन करने और कराने वाले, दोनों ही के खिलाफ सजा और जुर्माने का प्रावधान है। प्रस्तावित नया कानून भी कुछ इसी तरह का है। ऐसे में जब कानून के जरिये ही समस्या हल हो सकती थी, तो सरकार अभी तक चुप क्यों रही?

दरअसल सरकारें कानून के जरिये समस्याओं को छोटे से दायरे में सिमटा देना चाहती हैं। जबकि उन समस्याओं की जङे जस की तस जमी रहती हैं। पिछले दिनों बने तमाम कानूनों को देख सकते हैं, जिससे समस्या का समाधान कतई नहीं हुआ। संसद में पारित घरेलू महिला हिंसा अधिनियम, 2005 के जरिये महिलाओं पर उन्हीं के घरों में होने वाली हिंसा को रोकने की कोशिश की गई। बाल श्रम अधिनियम, 1986 में संशोधन करके इसे और सख्त बनाया गया ताकि होटलों, ढाबों और खतरनाक उद्योगों में काम करने वाले बच्चों का शोषण रोका जा सके। 2008 में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को अपराध घोषित कर, ऐसा करने वालों पर 200 रुपये का दंड का कानून बना। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2010 के जरिये सभी बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा की घोषणा की गई। इन सभी कानूनों का नतीजा क्या निकला। समस्याएं, या तो जस की तस बनी हुई हैं या और विभत्स रूप ले रही हैं। भारत में महिलाओं की स्थिती पङोसी मुल्कों के मुकाबले और बदतर हुई हैं। लाखों बच्चे अभी भी खतरनाक उद्योगों में काम करने को मजबूर हैं। अखिल भारतीय स्कूली शिक्षा सर्वे की 7वीं रिपोर्ट के अनुसार 35 मिलियन बच्चे अभी भी स्कूलों से बाहर हैं। सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान का कानून लगभग मजाक बन कर रह गया है। यह समस्याओं को कानूनी नजरिये से देखने का परिणाम है।

कानून कभी भी अपने आप काम नहीं करता। उसका उल्लंघन होने पर शिकायत या अपील करनी पङती है। या फिर यह सरकारी एजेंसियों पर है कि वह खुद संज्ञान लेकर कानून का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई करें। अभी तक के अनुभव यही है कि कार्यपालिका खुद पहलकदमी नहीं लेती। इसके लिए उस पर नियंत्रण रखनी वाली सरकारों पर दबाव बनाना पङता है। अर्थात बात घूम फिर कर सरकारों पर ही आ जाती है। अपना जनकल्याणकारी चेहरा बनाये रखने के लिए सरकारें सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं को कानूनी लबादा पहना देती हैं। इससे वह खुद को बचाए रखती हैं और समस्या से फायदा उठाने वाला वर्ग, कानूनों से बिना डरे उसका तोङ निकाल कर आम लोगों को लूटना जारी रखता है। कानून से समस्याओं के हल की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। कानून बनाना और भूल जाना सत्ता का शगल है। नित बन रहे नए कानूनों को भी इसी आइने में देखना चाहिए।

संप्रति – स्वतंत्र पत्रकार

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