13 जुलाई 2011

उर्दू पत्रकारिता घेट्टोवाइजेशन की शिकार- साजिद रशीद

साजिद रशीद जब हम लोगों के बीच नहीं रहे। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं पर साजिद रशीद से कुछ महीने पहले विजय प्रताप से हुई उनकी बातचीत के कुछ अंशों को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं।    
               
        उर्दू अखबार जनता के अखबार के बजाय मुस्लिम समुदाय के अखबार में बदल चुके हैं। इस मानसिकता के तहत ही सिर्फ उसमें मुस्लिम समाज से जुड़ी खबरों को ही प्रमुखता दी जाती है। यह मानसिकता अखबारों के खबर से लेकर एडिटोरियल कांटेंट की नीति तक को तय करती है और चूंकी मुस्लिम समाज अलगाव, घेट्टोवाइजेशन और असुरक्षाबोध में जीता है इसलिए इसका असर उर्दू अखबारों के कांटेट पर भी पड़ना लाजिमी है। मसलन जैसे एक डरा हुआ समाज अपने असुरक्षाबोध को लेकर ज्यादा चौकन्ना रहता है। ठीक उसी तरह उर्दू अखबारों में मुस्लिम समुदाय पर हो रही ज्यादतियों को ही ज्यादा तवज्जो दिया जाता है और अपनी हर खामी-कमजोरी को व्यापक समाज से छिपाने की भावना भी दिखती है। मसलन भारत में ही देखें तो अल्पसंख्क होने के नाते उसपर हो रही ज्यादितियों को उर्दू अखबार प्रमुखता से छापते हैं जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों पर वहां के मुस्लिम बहुसंख्यकों द्वारा ज्यादितियों की खबरें आपको यहां के उर्दू अखबारों में कभी नहीं मिलेंगी।
          दरअसल उर्दू अखबार मध्यवर्गीय मुस्लिम मानसिकता से संचालित होते है। उसी की भावनाओं को संरक्षित करने की नीति इन अखबारों में होती है और चूंकी मुस्लिम मध्यवर्ग धार्मिक संकीर्णतावाद से ग्रस्त है और लगभग किसी भी मुद्दे पर एक जैसा ही विचार रखती है। इसलिए एक सामान्य उर्दू अखबार पहले सफे से लेकर आखिर सफे तक ऐसा लगता है जैसे एक ही आदमी द्वारा सबकुछ लिखा गया है। कोई उसमें एकतलाफे राय नहीं दिखेगा क्योंकि वो एक ही भावना और मानसिकता द्वारा एक ही भावना और मानसिकता के लोगों को केंद्रित करके लिखा जाता है। इस संकीर्णतावाद का एक और उदाहरण आप अलकायदा या ओसामा बिन लादेन से संबंधित खबरों में भी देख सकते हैं। मसलन अधिकांश उर्दू अखबार ओसामा को अमरीका विरोध के प्रतीक के आड़ में मुसलमानों के बीच ग्लोरीफाई करते हैं। उनका तर्क रहता है कि ओसामा अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करता है इसलिए वो मुसलिम समाज का रहनुमा है। यहां यह समझने वाली बात है कि अगर उर्दू अखबार सचमुच अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी होते तो मुअमर कद्दाफी या ईरानी शासक उनका हीरो क्यों नहीं बना। हालांकि ईरान को लेकर अब कुछ परिवर्तन आया है। लेकिन अभी भी भारतीय उर्दू मीडिया ऐसा करने में उसकी शिया पहचान के चलते झिझक दिखाती है। यहां यह जानना भी दिलचस्प होगा कि उर्दू के एक मशहूर अखबार नई दुनिया जिसके संपादक शाहिद सिद्किी हैं ने तो लादेन का फुल साइज पोस्टर भी छापा था। इस तरह की पत्रकारिता का असर क्या होता है इसकी एक मिसाल तीन साल पहले मालेगांव में हुयी एक फायरिंग की घटना से समझी जा सकती है। जब वहां कुछ नौजवानों ने लादेन का पोस्टर लेकर प्रदर्शन किया और पुलिस की गोली से दो नौजवान मारे गए। दरअसल उन्हें अगर उर्दू ने मीडिया लादेन की हकीकत बताया होता तो ऐसा नहीं होता। दरअसल पुलिस या इंटेलीजेंस और आम हिंदू पाठक अंग्रेजी और हिंदी अखबारों से ये जानते थे कि लादेन एक आतंकी है। लेकिन मुस्लिम समाज जो उस प्रदर्शन में शामिल था उसके लिए वो हीरो था। ऐसे में पुलिस या प्रशासन का उस आंदोलन को रोकने की कोशिश करना स्वाभाविक था। इस तरह उन दो नौजवानों की मौत के जिम्मेदार उर्दू अखबारों का रवैया ही कहा जा सकता है। हालांकि मुस्लिम समाज इस तरह की खबरों को ही पसंद करता है, यह मानना गलत होगा। क्योंकि जब मैंने खुद अपने अखबार सहाफत में लादेन और तालीबान की मानव विरोधी विचारधारा को बताते हुए लेख और रपटें लिखीं तो पाठकों ने उसे आश्चर्य के साथ स्वागत किया और यह बताया कि वो तो ये जानते ही नहीं थे। यानी हम कह सकते हैं कि मुस्लिमों में कट्टरवाद के प्रति जो आकर्षण है उसे गैरजिम्मेदार उर्दू अखबारों ने ही बढ़ाया है। इसी तरह हम सिमी के मामले में भी देख सकते हैं। मसलन आपको अधिकतर उर्दू अखबार सिमी के राष्ट् विरोधी चरित्र को नकारते हुए दिखेंगे। वे उसे एक दीनी यानी धार्मिक संगठन बताते हुए उसके गुनाहों को नजरंदाज करेंगे। यहां उदाहरण के बतौर हम मुंबई टे्न विस्फोट में शामिल मंसूर पीरभॉय का उदाहरण देख सकते हैं, जिसे उर्दू अखबारों ने निर्दोश बताया और आरोप लगाया कि हेमंत करकरे पुणे का ब्राहमण है और संघ परिवार का एजेंट है और जो निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को झूठे मामलों में फसाता है। लेकिन जब पीरभॉय की मां ने खुद यह कहते हुए पुलिस के खिलाफ मुकदमा करने से इनकार कर दिया कि उसका बेटा गलत है, तब इसकी खबर किसी भी उर्दू अखबार ने नहीं छापी।
         उर्दू अखबारों का यह संकीर्ण रवैया उन्हें महिलाओं की आजादी के विरुद्ध भी खड़ा कर देता है। मसलन इंकलाब और सियासत जैसे अखबारों में महिलाओं के पेज पर पर्दा प्रथा के पक्ष में लगातार लेख छपते हैं। जिसके चलते बंबई के कई महिला संगठनों ने तो इंकलाब के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन तक किया है। तो वहीं हैदराबाद से निकलने वाला देश का सबसे बड़ा अखबार सियासत ने हैदराबाद में तसलीमा नसरीन पर हुए हमले के समर्थन में खबर छापी थी। दरअसल सियासत एक प्रगतिशील अखबार रहा है। लेकिन हैदराबाद में उर्दू अखबारों के बीच सर्कुलेशन की होड़ ने उसे अपनी पालिसी बदलने पर मजबूर कर दिया है। हालांकि सच्चाई तो यह है कि उर्दू अखबार शुरु से ऐसे नहीं रहे हैं। आजादी से पहले इनमंे प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर जबरदस्त आकर्षण रहा है, लेकिन आजादी के बाद मुस्लिमों में बढ़ते अलगाव, असुरक्षा और घेट्टोवाइजेशन ने आज उन्हें एक संकीर्ण और सांप्रदायिक पत्रकारिता में तब्दील कर दिया है।
प्रस्तुति- विजय प्रताप

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