शाहनवाज आलम
सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी रचना ‘खूब लडी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ से सिंधिया राजघराने की अंग्रेज परस्ती का जिक्र करने वाली पंक्ति के हटाये जाने के बाद चौतरफा आलोचना झेल रही मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने बैकफुट पर आते हुये फिर से इसे शामिल करने का निर्णय लिया है। गौरतलब है कि यह कविता 1857 के महान विद्रोह की नेत्री झांसी की रानी की बहादुरी की ही दास्तां नहीं है बल्कि उस विद्रोह मंे कौन लोग अंग्रेजों के साथ खडे थे, इसका भी दस्तावेज है। इसीलिये इस कविता को उस महान विद्रोह का जीवंत और प्रमाणिक कथा चित्र भी माना जाता है।हालांकि, इस पूरे प्रकरण में मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार इस भ्रम को फैलाने की रणनीति अख्तियार किये रही कि कविता से छेड-छाड भूलवश हुयी है। इसी रणनीति के तहत मुद्दा गरमाने पर राज्य में पाठ्य पुस्तकों को देखने वाली स्थाई समीति, राज्य शिक्षा केंद्र और पाठ्यपुस्तक निगम ने एक दूसरे पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। ताकि विवाद के केंद्र मंे लापरवाही या तकनीकी पहलू ला दिया जाए और प्रदेश सरकार की विचारधारा पर सवाल न उठे। लेकिन चंूकि भाजपा और संघ परिवार का इतिहास के तथ्यों के साथ छेड-छाड इस से पहले भी उजागर हो चुकी है। इसलिये भाजपा और उसकी हिंदुत्वादी विचारधारा पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
गौरतलब है कि भाजपा जिस संघ परिवार की चुनावी इकाई है उसका अपने गठन के दौर से ही राजे-रजवाडों के साथ घनिष्ठता रही है। यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि 1857 के महा विद्रोह के बाद अंग्रेज शासकों ने केवल उन्हीं राजाओं (हिंदु और मुसलमान) को रजवाडे बने रहने दिया जिन्होंने उस विद्रोह को दबाने के लिये अंग्रेजों को सेना और धन मुहैया कराके अपनी अंग्रेज परस्ती का प्रमाण दिया था।
संघ परिवार और रजवाडों की घनिष्ठता दो आपसी स्वार्थों पर आधारित थी। पहला, संघ एक घोर सामतंवादी और वर्णव्यवस्था का समर्थक संगठन होने के चलते दलितों और पिछडों के सामाजिक-राजनीतिक उभार को रोकने और पूर्ववर्ती ब्राह्मणवादी ढांचे को बनाये रखने का आग्रही था। इसलिये इन राजघरानों को, जो अंग्रेजों के कृपापात्र होने के चलते ही अस्तित्व में थे, को हिंदुत्व का ‘शक्ति केंद्र’ मानता था। जिसके मजबूत होने से भविष्य में भारत को हिंदु राष्ट् बनाने की बुनियाद पडती।
वहीं दूसरी ओर रजवाडों को यह लगता था कि गांधी और नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस जो भारत को एक आधुनिक प्रजातंत्र बनाना चाहती थी, में उनका अस्त्वि समाप्त हो जाएगा। ऐसे में यह उनके हित में था कि वे सामंती ढांचे की पक्षधर हिंदुत्ववादियों का साथ दें।
हिुदुत्ववादियों और अंग्रेज परस्त रजवाडों के बीच इस नाभि-नाल सम्बंध के कई शर्मनाक उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। मसलन, मैसूर रियासत के राजा की सेना ने छब्बिस लोगों को इसलिये मार डाला क्योंकि उन्होंने तिरंगे को सावर्जनिक स्थल पर सलामी देने की हिम्मत की थी। इस हत्या काण्ड की जब देश भर में निंदा हो रही थी तब सावरकर ने 17 अप्रैल 1941 को शिमोगा में हो रहे मैसूर हिंदू सभा के सम्मेलन में इस हत्या काण्ड को जायज ठहराते हुये कहा ‘‘हिंदू सभा का प्रमुख लक्ष्य हिंदू रियासत में हिंदु शक्ति को मजबूत करना और संकट की घडी में महाराजा और हिंदु रियासत के साथ खडे रहना, गैर-हिंदू ताकतों या छद्म राष्ट्वादी संगठनों के धोखेबाज हिंदुओ की विद्रोही गतिविधियों के खिलाफ वहां के राजकुमार और रियासत को अति वफादारी भरा समर्थन देना है।’’ जाहिर है, सावरकर तिरंगे को सलामी देने वालों को छद्म राष्ट्वादी मानते थे। ठीक वैसे ही जैसे आज के भाजपाई मोदी पर सवाल उठाने वालों को छद्म सेकुलरवादी कहते हैं।
हिंदुत्वादियों औैर रजवाडों के बीच षडयंत्रकारी और आपराधिक घनिष्ठता का शर्मनाक चेहरा हिंदुत्ववादी नाथू राम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के बाद भी दिखा। जब राष्ट्ीय स्वंय सेवक संघ और हिंदु महासभा के प्रति मित्रवत ग्वालियर, भरतपुर और अलवर जैसी रियासतों में गांधी जी की हत्या पर खुशियां मनाई गयीं। जवाहर लाल नेहरू ने गृहमंत्री सरदार पटेल को गांधी जी की हत्या के छः दिनों बाद लिखे पत्र में इन शर्मनाक रिश्तों का खुलासा करते हुये लिखा ‘‘ऐसा लगता है कि आरएसएस के प्रमुख लोग देसी रियासतों में चले गये हैं। वे अपने साथ तरह-तरह की सामग्री भी ले गये हैं। संभव है वे अपनी गुप्त गतिविधियां चलाने के लिये वहां अड्डे बनाएं।’’
इन तथ्यों के आलोक में यह समझना मुश्किल नहीं है कि ‘खूब लडी मरदानी’ से ‘अंग्रजों के मित्र सिंधिया ने छोडी राजधानी थी’ को हटाना ‘भूल’ नहीं बल्कि एक विचारधारात्मक कदम था। जिसके मूल में सिर्फ सिंधिया परिवार के भाजपा नेताओं को खुश करना नहीं बल्कि अपने शर्मनाक अतीत को छुपाने की कोशिश भी थी।
दरअसल हिंदुत्ववादियों के साथ सबसे बडी दिक्कत यह है कि जिस रााष्ट्वाद की पीठ पर वह सवारी करने की कोशिश करती है उसमें उसका रिकार्ड काफी शर्मनाक है। ऐसे में इतिहास से उसका मुठभेड, और उसमें जीत-हार उसके असितत्व का सबसे निर्णायक पहलू बन जाता है। इसीलिये सत्ता में आने के बाद उसका सबसे मुख्य एजेण्डा इतिहास से छेड-छाड और उसकी गलत व्याख्या हो जाती है। जैसा कि उसने एनडीए शासन काल में किया भी था। लेकिन चूकि इतिहास किसी मस्जिद या क्रिकेट पिच की तरह मूर्त ढांचा भर नहीं होता जिसे तोड या खोद कर मिटाया जा सके। वह त्रिशूल या कुदाल की पहुंच से परे एक अमूर्त शक्ति होती है। इसलिये इतिहास के साथ इस मुठभेड में बैकफुट पर आना संघ और भाजपा की नियति है, जैसा कि मध्य प्रदेश में हुआ।
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