14 अगस्त 2011

आंतरिक शत्रु निर्माण के चौंसठ वर्ष

राजीव यादव
राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता, संप्रभुता जैसे तमाम सवालों के बीच जब एक बार फिर स्वतंत्रतता दिवस का जश्न मनाने जा रहे हैं तो ऐसे में स्वतंत्रता की ऐसी अनकही-अनसुनी कहानियों को भी स्वतंत्र भारतीय राज्य के इतिहास में दर्ज करना ही होगा। राष्ट्र-राज्य के सिद्धांत को जिस तरह परिभाषित करते हुए राष्ट्र यानी जनता के जीवन जीने की आजादी जैसे मूलभूत सवालों को राज्य के खिलाफ बगावत घोषित किया गया है, उसमें आज भारतीय राज्य का मूल्यांकन किया जाय तो वह एक असफल राज्य बनने की प्रक्रिया में तेजी से बढ़ रहा है। और यह पूरी व्यवस्था बेरोजगारी, भुखमरी, सरकारी दमन पर टिकी है। या कहें कि हर कत्ल को मुठभेड़ का नाम देकर अपने ऊपर उठ रहे सवालों को दबाया गया है। इस प्रकिया में जनता और राजनीति दोनों को अप्रासंगिक बनाने की एक सोची समझी रणनीति है।
आज जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के सात राज्यों समेत सरकारी आकडों के अनुसार 13 से 15 राज्यों में 156 से 170 जिले नक्सल क्षेत्र हैं। ऐसे में भारतीय राज्य को मूल्यांकन करना होगा कि जिस विश्व शक्ति बनने की बात वह कर रहा है, उसके पास क्या बचा है? जब देखो तब कहा जाता है कि नक्सलवादी पूरी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिए हैं। तब तो यह भी बताना चाहिए कि एक गांव से शुरु हुआ नक्सलवाद आज चार दशक से भी ज्यादा उम्र का हो गया है, क्या भारतीय राज्य की जनता ने उसकी व्यवस्था को नकार दिया है? जो नक्सलवाद का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। आखिर आप क्या कर रहे हैं? आपरेशन ग्रीन हंट, कोबरा न जाने क्या-क्या पर आप के साथ नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता नहीं है, इसे स्वीकारना होगा। अगर वो आपके साथ नहीं है तो, आपको कोई हक नहीं है कानून व्यवस्था के नाम पर उसके संसाधनों का दोहन करने का। आगे आप जनता को अपने पक्ष में खड़ा करिए।
क्या मोदी का गुजरात उसका माडल होगा? जहां राज्य प्रयोजित जनसंहार के बाद आज तक न्याय नहीं मिल पाया या मजबुत दरख्त के उखड़ने के बाद सिखों के खून से रंगा खूनी पंजा उसका माडल होगा? या फिर बाटला हाउस जहां एक लोकतांत्रिक राज्य भारत के तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल और मुख्यमंत्री शीला दिक्षित की मानिटरिंग में आजमगढ़ के दो मासूमों साजिद और आतिफ की ठंडे दिमाग से की गई हत्या। उनके जिस्म पर लगी गोलियां आज भारतीय राज्य के लिए एक अनुत्तरित सवाल बनकर रहा गई हैं, जिसका उत्तर वो नहीं दे सकता। आतंकवाद के नाम पर पूरे देश को जम्मू-कश्मीर बना डाला गया है। पर भारतीय राज्य को यह भी स्वीकारना होगा कि जम्मू-कश्मीर सिर्फ दमन के लिए नहीं बल्कि लोकतांत्रिक आजादी का नाम है, जिसको पाना उसका हक है। और ऐसे सवालों से भागते-भागते राज्य सिर्फ दमन के सहारे पूरे देश में जगह-जगह जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़ और झारखंड बनाने पर तुला है।
आज हर कथित आतंकी घटना के बाद जो कथित आतंकी संगठनों के संदेश आते हैं वो बाबरी मस्जिद से आहत होकर या गुजरात के जनसंहार के बाद न्याय न मिलने की हताशा की वजह से ऐसा करने की बात करते हैं। क्या ऐसे में इन आतंकी घटनाओं का जिम्मेवार वो लोग हैं या राज्य? बड़ी आसानी से आतंकी धमाकों के शोर में एक समुदाय के प्रायोजित जनसंहार को सही ठहरा दिया जाता है, जबकि सांप्रदायिक दंगा मानवीय सभ्यता के इतिहास का सबसे क्रूर अध्याय होता है। क्योंकि धमाकों में लोग छुप के वार करते हैं, पर दंगा आमने-सामने होता है। आखिर क्यों बाबरी विध्वंस या फिर गुजरात जनसंहार में न्याय अब तक नहीं मिला? इसका जवाब भारतीय राज्य को देना होगा? क्योंकि उसके इस कृत्य का भुगतान जनता को आतकी घटनाओं में अपना खुन बहाकर चुकाना पड़ रहा है।
अब तक के पूरे स्वतंत्रता के इतिहास में भारतीय राज्य ने हर सवाल के जवाब में एक आंतरिक शत्रु के निर्माण का संगठित प्रयास किया है। उसी पर यह पूरी व्यवस्था टिकी है। आज हर सवाल को देशद्रोह या राष्ट्रिय हित में नहीं है, कह कर खारिज कर दिया जाता है। यहां राज्य हित और राष्ट्रिय हित के अंतर को मिटा दिया गया है। जनता के जीवन जीने का अधिकार उसके संसाधनों पर उसका अपना अधिकार यह उसका राष्ट्र हित है जो हो सकता है कि वर्तमान की पूंजीवादी-ब्राहृमणवादी व्यस्था या राज्य के हित में न हो। पर पूंजीवादी समर्थक यह व्यवस्था आज हर राष्ट्रहित जो व्यवस्था के हित में नहीं होता को देशद्रोह कह देती है। जबकि वह राज्य द्रोह हो सकता है क्योंकि राज्य के निरंकुश हो जाने या फासीवादी हो जाने के बाद जनता अपने हितों के अनुरुप ही सोचेगी, क्योंकि राज्य के अनुरुप सोचने पर उसको बेरोजगारी, विस्थापन, भुखमरी और फर्जी मुठभेड़ स्वीकारना होगा।
भारतीय सेनाओं द्वारा पूर्वोत्तर के राज्यों में किए जा रहे दमन और जिस भारत माता की बात आज आजादी के दिन मुखर हो रही है उसकी बेटियों के साथ खुलेआम भारतीय सेना के जवान बलात्कार करते हैं और वो नग्न होकर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ का बैनर लेकर कर प्रदर्शन करती हैं क्या इसे भुलाया जा सकता है? नहीं। इरोम में भारतीय राज्य की निरंकुशता के खिलाफ आफ्स्पा के खिलाफ जो एक दशक से अनशन कर रहीं हैं, उसने एक ‘फेल्ड स्टेट’ के स्वरुप को ही उजागर किया है। आज जिस जम्मू-कश्मीर की बात हो रही है वहां सेना के बल पर हजारों अनाम कब्रें खोदी गई है। एक छोटे से आकड़े के मुताबिक पचपन गावों में 2700 कब्रों में 2943 लाशें दफ्न की गईं। कश्मीर से लेकर हाशिम पुरा, कंधमाल, भागलपुर-गुजरात तक ऐसी कब्रें आज भारतीय राज्य पर एक सवाल हैं, जो उनके साथ हुआ, क्या होता जो ऐसा उनके साथ न होता? 
आज भी मुसलमानों को विभाजन का दोषी करार देते हुए हर साल न जाने कितनों को राज्य अपने हित में बलि दे देता है तो वहीं आदिवासी जिन्होंने इसके ब्राहृमणवादी स्वरुप को हर वक्त नकारा को विकास विरोधी के बतौर स्थापित करके उनका हस्र भी यही हो रहा है। इसका प्रमाण है कि देश में राज्य द्रोह के सर्वाधिक मुकदमें मुस्लिमों और आदिवासियों पर ही चलाकर इन्हें जेलों में ठूंसा गया है। इनकी पहचान एक आंतरिक शत्रु के बतौर स्थापित कर दी गई है।
भारत एक विशुद्ध ब्राहृमणवादी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना पर आधारित व्यवस्था को संचालित करता है। जिसे इस बात से समझा जा सकता है कि जब पहला, चुनाव जीतने पर भारत समेत दुनिया के अपने तमाम उपनिवेशों से वापसी के वादे के साथ 1946 के चुनावों में लेबर पार्टी की अप्रत्याशित जीत के बाद नेहरू ने रातों-रात तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद से कार्यकाल पूरा होने के पहले ही इस्तिफा ले लिया। यहां यह याद रखना जरूरी होगा कि तब कांग्रेस में यह परम्परा थी कि जो पार्टी का अध्यक्ष होगा वही सरकार का भी मुखिया होगा। और कांग्रेस ने मौलाना आजाद को अध्यक्ष इस रणनीति के तहत बनाया था कि वो मुसलमानों को यह संदेश दे सके कि उनकी असली प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है, मुस्लिम लीग नहीं और मुसलमानों का भविष्य कांग्रेस जैसी सेक्यूलर पार्टी में सुरक्षित है। मौलाना आजाद के साथ ही उन तमाम राज्यों के कंाग्रेस अध्यक्षों और जिला अध्यक्षों से भी जो गैर हिंदु थे या ब्राह्मण नहीं थे से इस्तिफा ले लिया गया। कंाग्रेस के इस हिंदुत्ववादी रवैये के चलते बम्बई कंाग्रेस के अध्यक्ष खुर्शीद फरामजी नारीमन, जो पारसी थे तो जबरन इस्तिफा ले लेने की शर्मीन्दगी बदार्श्त नहीं कर पाये और उन्होंने आत्म हत्या कर लिया। जिस पर काफी बवाल हुआ जिसे कंाग्रेस ने उनके नाम पर बम्बई के एक पॉश इलाके का नामकरण-नारीमन हाउस, करके एक चिरपरिचित ब्राह्मणवादी तरकीब से दबाने की कोशिश की। परिणाम स्वरूप एक घोषित इस्लामिक राष्ट् पाकिस्तान के साथ ही एक अघोषित हिंदु राष्ट् भारत का भी उदय हुआ। जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर सभी राज्यों के मुख्यमंत्री तक ब्राह्मण थे। दूसरा, बंटवारे के बाद मुसलमान और इसाई दलितों को आरक्षण के दायरे से हटा दिया गया जो उन्हें अंग्रेजों के जमाने से ही मिल रहा था। यानि भारतीय राज्य ने दलितों के समक्ष यह शर्त रखा कि उन्हें रोजगार तभी मिलेगा जब वे हिंदु ही बने रहेंगे।

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