03 मार्च 2014

मुजफ्फरनगर सांप्रदायिकता और अखबारों की भूमिका

बतौर पत्रकार, शब्द हमारे सबसे ताकतवर औजार हैं, इसलिए हमें इस औजार का इस्तेमाल लोगों के बीच समझदारी बढ़ाने के लिए करना चाहिए न कि भय या झूठ फैलाने के लिए।– माहीन रश्दी

भूमिका - आज के समय में जनसंचार के माध्यमों का बहुत महत्व है। वे बहुत असरकारी हैं और पल भर में किसी भी घटना की जानकारी लाखों, करोड़ों लोगों तक पहुंचा सकते हैं। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि कैसे बेंगलूरू में उत्तर पूर्व के लोगों पर हमले की आशंका फेसबुक पर फैलाई गई थी और इसका असर ये हुआ कि हजारों की तादाद में उत्तर पूर्व के लोग अपने घरों के लिए पलायन करने लगे। इस प्रकार जनसंचार के माध्यम किसी भी मामले पर लाखों करोड़ों लोगों के विचारों को बनाने में मदद करते हैं और इस तरह कहा जा सकता है कि जनसंचार के माध्यम लोगों के विचारों को बहुत हद तक नियंत्रित भी करते हैं।

किसी एक घटना को अलग-अलग लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से देखा व समझा जा सकता है। कोई किसी घटना को किस नजरिए से समझेगा या देखेगा, यह बहुत कुछ उसकी पृष्ठभूमि से निश्चित हो जाता है। यहां पृष्ठभूमि का तात्पर्य सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व ऐतिहासिक से है। इसमें भी सामाजिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि का ज्यादा महत्व है क्योंकि इसमें बहुत सी अन्य बातें भी शामिल होती हैं। एक आम नागरिक के लिए निजी तौर पर बनी समझ व्यक्तिगत स्तर या अधिक से अधिक एक छोटे समूह के स्तर तक सीमित रहती है। लेकिन अगर किसी घटना की एक निश्चित किस्म की समझ जनसंचार के किसी माध्यम पर सवार हो जाए तो वह बहुत से लोगों को प्रभावित करती है। यह अच्छी भी हो सकती है और चिंताजनक भी।

एक पत्रकार का काम इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। किसी घटना को वह जिस तरीके से देखता और समझता है, वह टेलीविजन, अखबार या न्यूज पोर्टल के मार्फत लाखों करोड़ों लोगों तक पहुंचती है। चूंकि सभी लोग उस घटना के वास्तविक अर्थों में साक्षी नहीं हो सकते अतएव पत्रकार का नजरिया ही पाठक या दर्शक का नजरिया बन जाता है। किसी भी लोकतंत्र में जनसंचार के स्वतंत्र माध्यमों की बहुतायत इसीलिए अच्छी समझी जाती है क्योंकि तब नागरिकों को किसी एक घटना के बहुत से नजरिए, पढ़ने या देखने को मिल जाते हैं और इस प्रकार उस घटना पर किसी को एक मुकम्मल राय कायम करने में मददगार साबित होते हैं।

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में सांप्रदायिक हिंसा की शुरूआत बड़े स्तर पर 7 सितंबर 2013 से शुरू हुई। हालांकि वास्तविक अर्थों में इसकी भूमिका काफी पहले से तैयार हो रही थी। हमारा अध्ययन सांप्रदायिक दंगों में मीडिया की भूमिका पर केंद्रित है। मीडिया में भी हमारा अध्ययन मुख्य रूप से प्रिंट मीडिया तक सीमित है। सितंबर के शुरूआती दिनों में अखबारों में छप रही खबरों और उसके बाद सितंबर के अंतिम और अक्टूबर के शुरूआत में पुलिस की कार्रवाइयों की खबरों की कटिंग हमारे पास उपलब्ध है। इन्हीं के आधार पर हम अखबारों की भूमिका की पड़ताल करेंगे।

शोध पद्धति इस शोध हेतु अंतर्वस्तु विश्लेषण पद्धति का चयन किया गया है। अखबारों में दंगों से संबंधित छप रही खबरें इस अध्ययन का विषय हैं। इस अध्ययन हेतु हिंदी के समाचार पत्रों में छपी खबरों को लिया गया है। जिन अखबारों की कटिंग हमारे पास उपलब्ध है वे हैं - दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, अवाम-ए-हिंद एवं दैनिक प्रभात। हिंदी पट्टी में दैनिक जागरण, अमर उजाला और हिंदुस्तान ही प्रमुख रूप से पढ़े जाने वाले अखबार हैं। इसके अंतर्गत हम इन अखबारों में छपी खबरों के कई पहलुओं का अंतर्वस्तु विश्लेषण करेंगे। इस अंतर्वस्तु विश्लेषण की प्रमुख संदर्भ सामग्री के तौर पर कसौटी के लिए भारतीय प्रेस परिषद द्वारा जारी की गई “पत्रकारों के लिए आचरण एवं मानदंड-2010 संस्करण” को आधार बनाया गया है जो सामुदायिक संघर्षों के माहौल में रिपोर्टिंग के लिए दिशा-निर्देश की व्याख्या करता है। इस प्रकार इस अध्ययन को दंगों के दौरान मुख्य धारा की मीडिया के चरित्र प्रमुख अध्ययन कहा जा सकता है।

सीमा (Limitations)- इस अध्ययन के लिए अखबारों में छपी खबरों का चयन उपलब्धता के आधार पर किया गया है। अध्ययन के लिए उपलब्ध खबरें प्रमुख रूप से हिंसा शुरू होने के समय, यानी सितंबर के शुरूआती दिन तथा हिंसा समाप्त होने के समय और पुलिस कार्रवाई शुरू होने के समय, यानी सितबंर के आखिरी दिन और अक्टूबर की शुरूआत, की हैं। आमतौर पर सभी कतरनों में खबर छपने की तारीख का जिक्र है पर कुछ ऐसी कतरने भी हैं जिनमें छपने की तारीख का जिक्र नहीं है। हालांकि अन्य खबरों से तुलना करने पर यह पता लगाना मुश्किल नहीं है कि वह कतरन किस तारीख की होगी।

यद्दपि कि अध्ययन के लिए उपलब्ध खबरों की कतरनों के चुनाव में कोई नियमितता नहीं है और यह भी पता नहीं है उन अखबारों में अध्ययन के विषय से संबंधित और खबरें भी छपी थीं या नहीं। लेकिन फिर भी खबरों के अंतर्वस्तु विश्लेषण के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। साथ ही अखबारों में छपी खबरें हमें पत्रकारों के नजरिए और इस तरह अखबार की भूमिका को बताने के लिए एक दृष्टि तो प्रदान करती ही हैं।

पत्रकारों के लिए आचरण एवं मानदंड-2010 (भारतीय प्रेस परिषद)

सांप्रदायिक दंगों/ झड़पों की रिपोर्टिंग

1) सांप्रदायिक दंगों व धार्मिक झड़पों से संबंधित खबरों, विचारों या टिप्पणियों को काफी सावधानी, सतर्कता और प्रमाणित तथ्यों की पड़ताल के बाद ही प्रकाशित किया जाना चाहिए। ताकि सांप्रदायिक सौहार्द्ध और शांति व्यवस्था का वातावरण तैयार किया जा सके।

समाचर पत्रों और पत्रिकाओं को सनसनीखेज, उत्तेजक और खतरनाक सुर्खियां लगाने से बचना चाहिए। सांप्रदायिक हिंसा या बर्बर कृत्यों से संयमित तरीके से निपटा जाना चाहिए जिससे आम लोगों का राज्य की कानून व्यव्स्था में व्याप्त विश्वास और भरोसे को ठेस न पहुंचे। ऐसा करने से राज्य की शासन प्रणाली को कमजोर होने से बचाया जा सकता है। दंगा प्रभावित समूहों में पीड़ितों की संख्या या इससे जुड़ी घटनाओं को इस तरह लिखा जाना चाहिए जिससे तनाव कम करने औऱ शांति व्यव्स्था कायम करने में मदद मिले। लेखन की शैली का रुख, दो समुदायों, धर्मों या चिंतित समूहों के बीच के रिश्ते को फिर से जोड़ने के रास्ते पर आ सके।

2) पत्रकारों और स्तंभकारों पर देश के विभिन्न सामुदायिक समूहों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द और मेलजोल का भाव बढ़ाने की विशेष जिम्मेदारी होती है। उनका लेखन अपनी भावनाओं का एक मात्र प्रतिबिंब नहीं होता है। लेकिन बड़े पैमाने पर वे अपनी भावनाओं के जरिये सामाजिक मानस को प्रभावित करने में काफी हद तक मदद करते हैं। मतलब उनके लेखकीय चरित्र में स्वयं की भावनाएं परिलक्षित नहीं होनी चाहिए। व्यक्ति भावना से दूर रहकर ही निष्पक्ष लेखन को अंजाम दिया जा सकता है। ऐसे मामलों में पत्रकार इन अत्यंत एहतियातों के साथ अपनी कलम का उपयोग करें और इससे ही सामाजिक कलह को नियंत्रित किया जा सकता है।

3) सांप्रदायिक दंगों जैसे हालातों में (जैसे कि गुजरात नरसंहार/संकट) मीडिया की भूमिका शांति कायम करने वाले की होनी चाहिए, न की दंगा को उकसावा देने वाले की। ऐसे हालात में मीडिया को लोगों के बीच शांति और सौहार्द कायम करने में बेहतरीन भूमिका निभाने देना चाहिए। व्यवस्था और भाईचारे को प्रत्यक्ष व अप्रयत्क्ष रूप से क्षति पहुंचाने की किसी भी कोशिश को राष्ट्र विरोधी करतूत करार दिया जाना चाहिए। आजादी मिलने के शुरुआती दिनों में मीडिया ने देश में राष्ट्रीय एकता की भावना तैयार करने में बड़ी नैतिक जिम्मेदारी निभाई थी। मीडिया ने उस दौरान अपने श्रेष्ठ दायित्व के साथ सामाजिक सौहार्द का निर्माण किया था।

4) मीडिया आने वाले कल के लिए इतिहास का निर्माण करता है और इस वजह से भविष्य के प्रति यह उसकी असंदिग्ध जिम्मेदारी है कि वह आज के तथ्यों को सही और स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत करे। तथ्यों का विश्लेषण और उस पर लोगों की राय का मामला एक बिलकुल ही एक अलग तरह की विधा का मामला है। इस तरह इन दोनो ही तरह के मामलों का निर्धारण निश्चित तौर पर अलग ही होना चाहिए। संकट के समय संयम और तर्कपूर्ण तरीके से तथ्यों को रखने पर लोकतंत्र में कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन लेखकों को यह सुनिश्चत करना होगा कि उसका विशलेष्ण न केवल पूर्वाग्रहों, व्यक्तिगत भावनाओं तथा विचारों से मुक्त हो बल्कि वह प्रमाणित और सत्यापित तथ्यों पर आधारित हो। ताकि लेखक के विश्लेषण से समाज, समुदाय, जाति और धार्मिक समूहों में द्वेष न पैदा हो।

5) यद्दपि कि सांप्रदायिक दुर्भावना को रोकने और राष्ट्रहित तथा लोगों में सद्भाव कायम करने में मीडिया की भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रता को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय प्रेस को इन दोनों चीजों में संतुलन कायम करने की जरूरत है।

शीर्षक, सनसनीखेज और उत्तेजक नहीं होना चाहिए। शीर्षक का चयन करते समय खबर में दी गई सामग्री का ध्यान रखा जाना चाहिए।

(अंग्रेजी से अनुवाद – वरूण शैलेश)

1.सामान्य और विशेष रूप से सांप्रदायिक विवाद या संघर्ष के संदर्भ में
A) शीर्षक सनसनीखेज और उत्तेजक नहीं होना चाहिए।
B) खबर के शीर्षक में उसकी सामग्री की झलक दिखनी चाहिए।
C) अगर किसी के आरोप को शीर्षक के रूप में चुने तो उसके नाम, स्रोत या जिसने यह बात कहीं उसका उल्लेख किया जाना चाहिए।

अवाम-ए-हिंद, 4 सितंबर, मुजफ्फरनगर
शीर्षक- दो समुदायों में संघर्ष, एक मरा,तनाव जारी

खबर का पहला पैरा – ...शामली में कूड़ा फेंकने को लेकर दो समुदायों के बीच हुए संघर्ष में एक व्यक्ति की कथित रूप से गोली लगने से मौत हो गई, जबकि कई अन्य लोग घायल हुए हैं।...
...पुलिस से प्राप्त जानकारी के अनुसार बीती शाम कूड़ा फेंकने को लेकर एक सफाईकर्मी और एक व्यक्ति के बीच बहस होने लगी। जल्दी ही वहां कई सफाईकर्मी और दूसरे समूह के लोग इकट्ठा हो गए जो घरों और दुकानो को क्षतिग्रस्त करने के अलावा वाहनों में भी आग लगाने लगे। उन्होने बताया कि दोनो समूहों के बीच हुई गोलीबारी में अहसान (26) की गोली लगने से मौत हो गई....
...नगर में भारी दंगे के बाद अहसान की मौत से शामली के अल्पसंख्यक समुदाय में भारी शोक की लहर फैल गई....

खबर के साथ ही आगजनी और पुलिस की तस्वीरें भी लगी हैं। इसी खबर में साथ ही एक कालम में रंगीन बाक्स में एक खबर है जिसकी शीर्षक है – दंगा भड़काने की भगवा साजिश।
यह खबर कवाल गांव की घटना के बाद इंटरनेट पर भड़काउ तस्वीरे डालने के आरोप में भाजपा विधायक संगीत सोम के खिलाफ जांच शुरू होने के बारे में बता रही है।

विश्लेषणः खबर का शीर्षक उत्तेजक है। खबर पढ़कर कोई भी स्थानीय व्यक्ति सहज ही यह अंदाजा लगा सकता है कि दो समुदाय कौन से हैं। “एक की मौत” और “तनाव जारी” आग को और हवा देते नजर आ रहे हैं। खबर का शीर्षक इस मामले में झूठा है कि शुरूआती झगड़ा महज कूड़ा फेंकने को लेकर हुआ था। दरअसल यह बात खबर पढ़कर पता चलती है कि यह दो समुदायों का झगड़ा नहीं बल्कि दो व्यक्तियों का झगड़ा था। जैसाकि आम तौर पर होता है दो लोगों के बीच के झगड़े में पहले परिवार, फिर सगे संबंधी और फिर पहचान वाले भी शामिल हो जाते हैं। खबर में इस बात का जिक्र प्रमुखता से है कि दूसरे समुदाय के लोगों ने आगजनी की और गोली चलाकर एक आदमी की जान ले ली। निश्चित ही मरने वाले का नाम देना ठीक नहीं था क्योंकि ऐसा करने से मरने वाले के समुदाय का बोध होगा और यह उसके समुदाय वालों के लिए गुस्से का सबब बनेगा। खबर में इस बात का खुलकर जिक्र करना कि “नगर में भारी दंगे के बाद अहसान की मौत से शामली के अल्पसंख्यक समुदाय में भारी शोक की लहर फैल गई...” बिलकुल ही आग में घी डालने जैसा है। इस खबर में तस्वीरें देने से ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो कि कोई बहुत गंभीर बात हो गई हो।

इसी खबर के साथ रंगीन बॉक्स में यह खबर देना कि यह “दंगा भड़काने की भगवा साजिश” का नतीजा है, निश्चित तौर पर दूसरे पक्ष को आरोपी साबित करने और पहले पक्ष को उकसाने की कार्रवाई है।
अमर उजाला, मेरठ, 6 सितंबर, शामली से

शीर्षक- ‘बाज आए जिला प्रशासन’ 

लिसाढ़ में गठवाला खाप की सर्वाजातीय पंचायत ने दी नसीहत
खबर का पहला पैरा यहां से शुरू होता है – ...लिसाढ़ गांव में गठवाला खाप की सर्वजातीय पंचायत में कवाल और शामली कांड में पुलिस-प्रशासन पर एकपक्षीय कार्रवाई का आरोप लगाते हुए सात सिंतबंर को नंगला मंदौड़ महापंचायत में हजारों की संख्या में पहुंचने का आह्वान किया गया।...

...पंचायत में जाट आरक्षण समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष यशपाल मलिक ने कहा कि प्रदेश भर में पुलिस प्रशासन एकपक्षीय कार्रवाई कर रहा है, जिससे लोगों में असंतोष की भावना जागृत हो रही है, आने वाले चुनाव में इसका जवाब जनता केंद्र और प्रदेश दोनो सरकारों को देगी।....
...बाबा हरिकिशन मलिक ने बताया कि 31 को नंगला पंचायत में किसी भ्रांतियों के कारण गठवाला खाप के लोग नहीं जा सके थे लेकिन सात सितंबर को नंगला मंदौड़ में होने वाली पंचायत में गठवाला खाप के लोग बड़ी संख्या में वहां पहुंचेगे। इसके लिए खतौली बाईपास पर सुबह सब एकत्रित होंगे।....
लिसाढ़ की इस पंचायत में सात प्रस्ताव पारित हुए।

...सांप्रदायिक तनावग्रस्त इलाकों में शांति सद्भाव बनाकर रखें।..
...गठवाला खाप का प्रतिनिधिमंडल बाबा हरिकिशन मलिक के नेतृत्व में मलिक पुरा जाएगा।...
...सात सितंबर को नंगला मंदौड़ की पंचायत में बड़ी संख्या में जाएंगे।...
...कार्रवाई के नाम पर प्रशासन पक्षपात न करे। निष्पक्ष कार्रवाई हो।...
...कवाल में शाहनवाज की हत्या में निर्दोषों के नाम निकाले जाएं। विशाल सचिन के हत्यारोपियों की गिरफ्तारी।...
...शोरम-कवाल-शामली में प्रशासन के रवैये की भर्त्सना।...
...शामली के एसपी अब्दुल हमीद का तत्काल तबादला हो।...
...उमेश मलिक-हरेंद्र मलिका पर दर्ज केस तत्काल वापस लिए जाएं।...

विश्लेषणः खबर का शीर्षक उत्तेजक और चेतावनी भरे लहजे में है। पुलिस प्रशासन पर एकपक्षीय कार्रवाई का आरोप यह आरोप भी लगा रहा है कि दूसरे पक्ष को बढ़ावा दिया जा रहा है। पहले पैरे में “सात सिंतबंर को नंगला मंदौड़ महापंचायत में हजारों की संख्या में पहुंचने का आह्वान किया गया।.” इस खबर का जिक्र महज तथ्य नहीं है बल्कि यह समुदाय के लोगों के लिए एक सूचना, प्रचार का भी काम कर रहा है। इसका नतीजा भी आप आगे देखेंगे कि कैसे नंगला मंदौड़ की पंचायत में भारी संख्या में लोग जुटे और उसी शाम से दंगा शुरू हो गया। इसी तरह दूसरे पैरे में यह खबर कि “खतौली बाईपास पर सुबह सब एकत्रित होंगे..” भी एक ऐसी जानकारी है जो अखबार की सवारी कर घातक बन जाती है। ऐसा लग रहा है मानो रिपोर्टर रिपोर्ट लिखने की बजाए पैंफलेट लिख रहा हो। पंचायत में पास हुए प्रस्तावों को दिए जाने से बचा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस संदर्भ में एक प्रस्ताव महत्वपूर्ण है – “..कवाल में शाहनवाज की हत्या में निर्दोषों के नाम निकाले जाएं। विशाल सचिन के हत्यारोपियों की गिरफ्तारी।..” प्रस्ताव शाहनवाज की हत्या में निर्दोषों के नाम निकालने की बात करता है लेकिन उसके हत्यारों को पकड़ने की बात नहीं करता। वहीं दूसरी तरफ विशाल और सचिन के हत्यारोपियों की गिरफ्तारी की बात तो करता है पर निर्दोष न पकड़े जाएं, इसका जिक्र नहीं करता। निश्चित ही यह रिपोर्ट सिर्फ एक पक्ष के लिए लिखी गई है और इसका पूरा स्वरूप रिपोर्ट की बजाए इश्तिहार की तरह प्रस्तुत हो रहा है।

दैनिक प्रभात, मेरठ, शनिवार 7 सितंबर

शीर्षक – महापंचायत में जाने से रोकने को बिछाया जाल


...शनिवार को नंगला मंदौड़ में होने वाली हिंदू महापंचायत को विफल करने के लिए प्रशासन जी जान से लगा है। क्षेत्र की सभी सीमाओं पर लोगों को पंचायत में जाने से रोकने के लिए पुलिस तैनात है...
...वहीं दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन द्वारा की जा रही इस कार्रवाई से अंदर ही अंदर हिंदू समाज में रोष फैलता जा रहा है।...

विश्लेषणः शीर्षक, पुलिस प्रशासन के खिलाफ शिकायत के लहजे में है जो पंचायत करने वालों की तरफ से की जा रही है। यानी रिपोर्ट लिखने वाले का पंचायत करने वालों के साथ सहानुभूति साफ नजर आ रही है। खबर में भी यही लहजा झलक रहा है। जब रिपोर्ट कहती है - “हिंदू महापंचायत को विफल करने के लिए प्रशासन जी जान से लगा है” तब रिपोर्टर और अखबार का पक्ष जाहिर हो जाता है। साथ ही यह कहना कि – “इस कार्रवाई से अंदर ही अंदर हिंदू समाज में रोष फैलता जा रहा है।..” उकसावे की कोशिश नजर आ रही है। पूरी खबर एक समुदाय को सीधे-सीधे संबोधित कर रही है और उनको पंचायत में पहुंचने का चैलेंज दे रही है।

अमर उजाला, 8 सितंबर,

शीर्षकः फैसला आते – आते भड़क गया दंगा


उपशीर्षकः
अनिश्चितकालीन धरने का किया था ऐलान
अखबार अपने ब्यूरो के हवाले से खबर लिखता है-...कवाल प्रकरण में इंसाफ के लिए नंगला मंदौड़ के भारतीय इंटर कॉलेज के मैदान में लाखों की भीड़ जुटी और इंसाफ के लिए अनिश्चितकालीन धरने का फैसला हुआ। ....भीड़ घरों को लौटने लगी तो हिंसा की खबरें आने लगीं। हिंसा की खबरें आने के बाद धरना भी खत्म कर दिया गया। सभी नेता भी घरों को लौट गए।...
अखबार आगे इसी खबर में एक रंगीन बॉक्स में प्रमुखता से खबर देता है। शीर्षक है – पंचायत से लौटते लोगों पर गोलियां बरसाई।
खबर बताती है - ....पंचायत से लौट रहे लोगों पर गांव मुझेड़ा सादात के पास एक धर्मस्थल से निकले लोगों ने पथराव कर दिया। हमलावरों ने फायरिंग कर दो लोगों की हत्या कर दी। मीरापुर के मेन बस स्टैंड पर मोहल्ला कमलियान की ओर से आई भीड़ ने पथराव तथा फायरिंग कर दहशत फैला दी।....
खबर में आगे बताया जाता है- ....धर्मस्थल से निकले लोगों ने सुनियोजित तरीके से गांव जा रहे दो ट्रैक्टर ट्राली पर सवार लोगों पर सुनियोजित तरीके से पथराव किया और कई राउंड गोलियां चलाई जिससे दो लोगों की मौत हो गई।...

विश्लेषणः शीर्षक, पंचायत के फैसले और दंगे में एक संबंध स्थापित कर रहा है। फैसले के आने के साथ ही दंगे की शुरूआत हुई, यानी जिन्हें फैसले से आपत्ति थी उन्होने फैसला आते ही दंगा शुरू कर दिया। यह एक समुदाय के खिलाफ बिना नाम लिए सब कुछ कह देने जैसा है।

उपशीर्षक धरना करने वालों से सहानुभूति जता रहा है। रिपोर्टर के लिए ये सदमें की बात है कि धरने को स्थगित कर दिया गया। वह रिपोर्टर की बजाए धरने के लिए इकट्ठा होने वाले समुदाय की भाषा बोल रहा है। खबर के पहले पैरे में ही रिपोर्टर की पक्षधरता सामने आ जाती है। जब रिपोर्टर कहता है “...भीड़ घरों को लौटने लगी तो हिंसा की खबरें आने लगीं” तो यह सिर्फ तथ्य नहीं है। यह एक समुदाय को सायास आरोपी साबित करने और दूसरे समुदाय को पीड़ित साबित करने की कवायद है। शीर्षक से रिपोर्टर यह कहना चाहता है कि एक समुदाय तो न्याय की मांग के लिए धरने पर बैठ रहा था और न्याय के लिए अहिंसक तरीकों में विश्वास करता है लेकिन दूसरे समुदाय की हिंसा के कारण धरना नहीं हो सका।

इसी खबर के साथ बॉक्स में उभरी हुई खबर भी है, जिसका शीर्षक है - पंचायत से लौटते लोगों पर गोलियां बरसाई। स्पष्ट है कि यह एक उत्तेजना फैलाने वाला शीर्षक है। पहले से व्याप्त तनाव के बीच पाठक को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि किसने गोलियां बरसाई, भले ही शीर्षक में इसे न कहा गया हो। रिपोर्टर के लिए यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि गोलियों का शिकार कौन बना, जबकि आमतौर पर गोलियां किसने बरसाई यह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। लेकिन यह बात रिपोर्टर पाठक के विवेक पर छोड़ देता है, जिसके बारे में उसे पता है कि पाठक समझ ही जाएगा कि ऐसा कौन कर सकता है। लेकिन फिर खबर में रिपोर्टर इस बात का इशारा भी करता है जब वह कहता है कि - ....पंचायत से लौट रहे लोगों पर गांव मुझेड़ा सादात के पास एक धर्मस्थल से निकले लोगों ने पथराव कर दिया...गांव की अवस्थिति से परिचित स्थानीय लोगों को यह समझते कितनी देर लगेगी कि मुझेड़ा सादात के पास किस “धर्मस्थल” की बात कही जा रही है। फिर रिपोर्टर इसे और खुलकर कहता है – “मोहल्ला कमलियान की ओर से आई भीड़ ने पथराव तथा फायरिंग कर दहशत फैला दी।...”

रिपोर्टर कहीं भी हमला करने वाली भीड़ के समुदाय का जिक्र नहीं कर रहा है। वह इसके परिणाम समझता है। लेकिन वह इस बारे में सारे इशारे कर रहा है। मोहल्ला कमलियान की ओर से कौन सी भीड़ आ सकती है?
रिपोर्टर के लिए यह हमला सुनियोजित भी है - ...धर्मस्थल से निकले लोगों ने सुनियोजित तरीके से गांव जा रहे दो ट्रैक्टर ट्राली पर सवार लोगों पर सुनियोजित तरीके से पथराव किया और कई राउंड गोलियां चलाई जिससे दो लोगों की मौत हो गई।..” यहां रिपोर्टर खबर के तथ्य नहीं लिख रहा है बल्कि वह अपनी सहानुभूति वाले समुदाय से तकरीर कर रहा है कि देखो कैसे सुनियोजित तरीके से हमला हुआ है। यह असंदिग्ध तौर पर एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ उकसाने की कार्रवाई है, जो एक रिपोर्टर अपने अखबार की मार्फत बहुत की कारीगरी से कर रहा है।

इसी खबर के साथ एक तस्वीर भी है जो चार कॉलम की है और खबर से ठीक उपर यानी पेज शुरू होने के साथ ही लगी है। तस्वीर के साथ अखबार ने “महापंचायत” कैप्शन लगाया है। इस तस्वीर में एक समुदाय के लोगों की बड़ी मौजूदगी दिख रही है। अधिकांश लोग लाठी, डंडों, फरसों और अन्य देसी हथियारों को लहराते हुए दिख रहे हैं। लोगों के चेहरे पर गुस्से की अभिव्यक्ति साफ देखी जा सकती है।

खबर से पहले तस्वीर छापना, तस्वीर की प्रमुखता को बताता है। तस्वीर महापंचायत में इकट्ठा हुए समुदाय के हजारों सदस्यों की है। तस्वीर में दिख रहा है कि लगभग दूसरे आदमी के हाथ में कोई हथियार है। ऐसा लग रहा है जैसे वे लाठी उठाए हुए जैसे किसी बात की घोषणा कर रहे हों। तस्वीर देखकर किसी को जोश आ सकता है और कोई डर सकता है। यह इस बात से तय होगा कि तस्वीर देखने वाला किस खेमे में है। निश्चित रूप से यह तस्वीर उत्तेजना फैलाती है और भय का माहौल बनाती है।

हिंदुस्तान, मुजफ्फरनगर, 8 सितंबर 2013

शीर्षक बसीकलां में कवाल जाते काफिले पर पथराव



खबर की शुरूआत इस तरह है - ...नंगला मंदौड़ में पंचायत जा रहे लोगों पर गांव बसीकलां में पथराव होने पर कस्बे सहित आस-पास तनाव फैल गया। घटना के बाद यहां बाजार बंद हो गया। भीड़ थाने के सामने दो बाइकें फूंककर थाने में घुस गई।

...इसमें छह से अधिक लोग घायल हुए। एक पक्ष ने लाठी डंडों व धारदार हथियारों से भी हमला किया। इसमें बच्चों सहित 12 से अधिक घायल हो गए।...

खबर में तीन तस्वीरें हैं। बड़ी साइज की इन तीनों तस्वीरों में पहली तस्वीर सड़क पर ली गई है जिसमें लोग ट्रैक्टरों से पंचायत की तरफ जा रहे हैं। दूसरी तस्वीर पंचायत जाते लोगों की पैदल भीड़ की है और तीसरी तस्वीर पंचायत में एक गाड़ी और उसपर खड़े लोगों की है जिसके बारे में बताया गया है कि इस गाड़ी को हमला कर तोड़ दिया गया। पंचायत को गाड़ी के टूटने के बारे में बताया जा रहा है।

विश्लेषणः पहली नजर में ही शीर्षक सनसनी, उत्तेजना और भय से भर देता है।
पाठक के मन में आशंका होती है कि पथराव हुआ होगा तो फिर क्या हुआ होगा। पथराव करने वाले के खिलाफ गुस्सा भी आता है। दो समुदायों के बीच वैमनस्य को और बढ़ाने में यह शीर्षक कमाल का काम करता है।
खबर में रिपोर्टर जिक्र करता है – “...एक पक्ष ने लाठी डंडों व धारदार हथियारों से भी हमला किया। इसमें बच्चों सहित 12 से अधिक घायल हो गए।..” खबर के इस हिस्से से पता चलता है कि ये हमला सुनियोजित था। धारदार हथियारों के प्रयोग से मौतें होने की भी आशंका भी रहती है। घायलों में बच्चे भी हैं, रिपोर्टर यह बताना नहीं भूला है। लेकिन सवाल यह उठता है कि महापंचायत में बच्चे कैसे पहुंच गए। पथराव से आस-पास के कस्बों और गांवों में तनाव फैल गया, इस जानकारी को भी प्रमुखता से बताया गया है। इस जानकारी का स्रोत क्या है, इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है। यह भी नहीं बताया गया है क्या पथराव होते ही तनाव फैल गया ? तनाव के रूपों के बारे में भी कोई बात नहीं कही गई है। यानी यह तनाव रिपोर्टर द्वारा जानबूझकर बनाया जा रहा है।

तस्वीरों का उपयोग भी इस तनाव को बढ़ाने के लिए ही किया गया है। ध्यान देने की बात ये है कि हर खबर के साथ पल-पल की तस्वीर दी गई है। इस खबर के साथ भी तीन तस्वीरें हैं जिनमें से एक बड़ी तस्वीर है जिसमें मैदान में जुटी भीड़ के बीच में एक चार पहिया वाहन है। उसकी छत पर 3 लोग चढ़े हुए हैं। इसके बारे में बताया गया है कि यही वह गाड़ी है जिसे शनिवार को शाहपुर में तोड़ दिया गया है। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि तस्वीर आम लोगों में भय और एक समुदाय के प्रति घृणा का माहौल बना रही है।

हिंदुस्तान, मुजफ्फरनगर, जानसठ
शीर्षकः हिंसा होने पर धरने से उठाया


..सिखेड़ा के मंदौड़ इंटर कालेज में हुई महापंचायत के बाद जिले में भड़की हिंसा के बाद धरने पर बैठे पंचायत के जिम्मेदारों को भी पुलिस ने मैदान से हटवा दिया।...

....शनिवार को मंदौड़ गांव के इंटर कॉलेज के मैदान में महापंचायत में बनी 11 लोगों की समिति ने अपनी कई मांगें रखी थीं। यह मांगे पूरी न होने तक अनिश्चितकालीन धरने का फैसला लिया गया था।...

...जब लोग अपने घरों को जाने लगे तो रास्ते में कई स्थानों पर ट्रैक्टर टालियों पर हमले कर दिए गए। इसमें मीरापुर के गांव मुझेड़ा में दो लोगों के मरने की सूचना मिली।...

इस खबर में दो तस्वीरें हैं। पहली बड़ी तस्वीर महापंचायत की है जिसे भाजपा नेता हुकुम सिंह संबोधित कर रहे हैं। यह तस्वीर अखबार पर सबसे उपर लगी है। यानी अखबार का वो पन्ना तस्वीर से ही शुरू हुआ है और खबर नीचे है। दूसरी तस्वीर खबर के बगल में है जिसमें महापंचायत को भाजपा के सरधना विधायक संगीत सोम संबोधित कर रहे हैं।

विश्लेषणः यहां भी शीर्षक, धरने और दंगे में संबंध स्थापित कर रहा है। साथ ही वह धरना देने वाले समुदाय के प्रति सहानुभूति जता रहा है। दंगे की वजह से धरना खत्म करना पड़ा, यह बात एक पक्ष को पीड़ित और एक पक्ष को आक्रामक साबित कर रही है।

खबर में इस बात का प्रमुखता से जिक्र है कि पंचायत से वापस लौटते समय हुए हमले में दो लोगों की मौत हो गई। यह जानकारी एक समुदाय के लिए गुस्सा और उकसावे वाली है।


अमर उजाला, मेरठ संस्करण, 8 सितंबर

तस्वीर का विश्लेषणः 8 सितंबर के अमर उजाला ने अपने मुख्य पृष्ठ पर ही एक बड़ी सी तस्वीर छापी है। तस्वीर को इतना ज्यादा प्रमुखता दी गई है कि अखबार का मास्टहेड भी तस्वीर के अंदर ही बनाया गया है। तस्वीर शनिवार के नंगला मंदौड़ में हुई पंचायत की है। तस्वीर में साफ दिख रहा है कि हजारों लोग हाथों में डंडा, लाठियां और सरिया, फरसे और तलवारें उठाए आक्रामक मुद्रा में हैं। तस्वीर के नीचे मोटे अक्षरों में लिखा है – हिंसा में टीवी पत्रकार की भी मौत, 40 से ज्यादा लोग घायल, कई की हालत गंभीर, सेना की आठ टुकड़ियां बुलाई। इस तस्वीर का एक विश्लेषण इस मायने में भी किया जा सकता है कि खबर पूरी नहीं लिखी जा रही है और काफी कुछ पाठक के विवेक पर छोड़ दिया जा रहा है। जब अखबार ये सूचना देता है कि हिंसा में टीवी पत्रकार की मौत हो गई और 40 लोगों से ज्यादा घायल हैं तो वह यह नहीं बताता कि यह हिंसा किसने की। लेकिन अखबार इस बात को एक समुदाय की तरफ इशारा करके पाठक को समझने के लिए छोड़ देता है। अब इस सूचना के बाद अखबार जब हाथों में फरसे, तलवारें, लाठियां, सरिया और डंडे लिए आक्रामक मुद्रा वाली तस्वीर छापता है तब वह उसे हिंसा और मौत के खिलाफ लोगों के आक्रोश के रूप में न्यायसंगत सिद्ध करता है।

अमर उजाला, शामली-मुजफ्फरनगर का पेज, 8 सितंबर
शीर्षक – दुश्मन जैसे हमले


बड़े और मोटे शीर्षक के नीचे छह तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर एक खाली कारतूस की है। दूसरी तस्वीर में एक गली में कुछ लोग जमा हैं और रास्ते में मोटरसाइकिलें और स्कूटर गिरे पड़े हैं, तीसरी तस्वीर में एक गली में कुछ पुलिस वाले कुछ लोगों को खदेड़ रहे हैं, चौथी तस्वीर में लोंगों की एक भीड़ सड़क पर एक बाइक में आग लगाने की तैयारी कर रही है और पांचवी तस्वीर भाकियू की पंचायत की है जिसमें लोग हथियार लहरा रहे हैं।
निश्चित तौर पर खबर का शीर्षक उत्तेजित करने वाला है। आपके अपने देश में “दुश्मन जैसे हमले” कौन कर सकता है? रिपोर्टर ने पहले ही मान लिया है कि एक समुदाय दूसरे का दुश्मन है। यह दुश्मन बनाने का सिद्धांत आगे चलकर पाकिस्तान से संबंध स्थापित करने के काम आता है, चूंकि पाकिस्तान ही हिंदुस्तान का जन्म-जन्मांतर का दुश्मन है।

अखबार के आधे पन्ने पर दंगे की तस्वीरें हैं जिनका जिक्र उपर किया जा चुका है। ये तस्वीरें यह साबित करने के लिए हैं कि एक पक्ष ने किस बर्बरता से दूसरे पक्ष पर प्रहार किया है। सबसे पहले खाली कारतूस, फिर गली में तोड़-फोड़, फिर दंगाइयों को खदेड़ा जाना और फिर सड़क पर बाइक को आग लगाने की तैयारी और अंत में पंचायत में हथियार लहराते लोग। तस्वीरों को क्रम से देखने पर ऐसा लगता है मानो पहले एक पक्ष ने दंगा शुरू किया और अंत की तस्वीर देख कर ऐसा लगता है कि दूसरे पक्ष ने आक्रोश में हथियार उठा लिया हो।

हिंदुस्तान, मेरठ, सितंबर, जानसठ डेटलाइन
शीर्षक – पुलिस प्रशासन के बैरियर नहीं रोक सके भीड़ को


उप शीर्षक-
गांव नगला मंदौड़ में स्थित भारतीय इंटर कालेज के मैदान में जुटे 40 से अधिक गांवों के हजारों ग्रामीण

खबर का पहला पैरा है - ...कवाल में छह दिन पूर्व सांप्रदायिक संघर्ष में मारे गए दो युवकों को श्रद्धांजलि देने के लिए मंदौड़ के इंटर कालेज में बुलाई गई महापंचायत में शनिवार को भारी भीड़ को रोकने के लिए प्रशासन के किए सारे इंतजाम धरे रह गए। बैरिकेडिंग तोड़कर हजारों लोग पंचायतस्थल पहुंच गए।...
खबर के साथ दो तस्वीरें हैं जिनमें पहली एक सड़क पर पुलिस द्वारा लगाई गई बैरिकेडिंग और वहां कुछ पुलिस वाले और कुछ आदमी नजर आ रहे हैं। दूसरी तस्वीर में सड़क पर जुटी भारी भीड़ की है जिसमें हजारों की संख्या में लोग पंचायत की तरफ जाते दिख रहे हैं।


विश्लेषणः शीर्षक प्रशासन को मुंह चिढ़ाता हुआ और एक समुदाय के उत्साह को बढ़ाने वाला है। खबर में कवाल के मृतक युवकों को श्रद्धांजलि देने की बात की जा रही है। ध्यान देने की बात ये है कि कवाल में उस दिन तीन युवक मारे गए थे। यह महत्वपूर्ण है कि नंगला मंदौड़ की महापंचायत का नाम “बहू बेटी बचाओ महापंचायत” था। लेकिन खबर में पंचायत का उद्देश्य श्रद्धांजलि देना बताया जा रहा है।
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दंगे के पश्चात जब मामले के आरोपी लोगों की गिफ्तारियों का दौर शुरू हुआ तब अखबारों का क्या रूख रहा यह नीचे की खबरों से साफ होता जाएगा।

दैनिक जागरण, मुजफ्फरनगर, भोपा
शीर्षकः बीरबानियों की हुंकार, बजा देंगे ईंट से ईंट

अखबार लिखता है - ...शासन प्रशासन की तरफ से एक पक्षीय कार्रवाई के खिलाफ भोपा थाना क्षेत्र के धीराहेड़ी गांव की महिलाओं ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की।… पुलिस की कार्रवाई को अखबार सिरे से खारिज करता नजर आ रहा है। शीर्षक में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है आमतौर पर उन शब्दों का प्रयोग वीरता और हिंसा एवं अन्य कृत्यों को न्यायोचित तरीके से पेश करने के लिए किया जाता है। प्रशासन की कार्रवाई एकतरफा है, यह रिपोर्टर ने पहले ही मान लिया है और इस तरह बीरबानियों के पक्ष में खड़ा हो गया है। इस बारे में प्रशासन का पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की गई है।

....दंगा शांत होने पर भी क्षेत्र के गांव में तनाव है। खेतों में लगातार नकाबपोश बदमाश दिखाई दे रहे हैं। लड़कियों का स्कूल-कॉलेजों में जाना मुश्किल हो गया है। चार सप्ताह बीतने पर भी किसानों के ट्रैक्टरों का कोई मुवाअजा नहीं मिला है।.... इस जानकारी का खबर में कोई स्रोत नहीं दिया गया है। प्रदर्शन कर रही महिलाएं यदि ये बात कह रही हैं तो इस आरोप के साथ उनका नाम जाना चाहिए। पर खबर में ये बात एक तथ्य के तौर पर शामिल कर ली गई है। यह पाठक के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि वह नकाबपोश के बारे में अनुमान लगाए। लड़कियों का स्कूल जाना क्यों छूट गया है इसकी कोई वजह नहीं बताई गई है, बल्कि तथ्यों को इस तरीके से रखा गया है कि पाठक स्वयं ही वजह की पड़ताल एक खास दिशा में कर ले।

खबर आगे कहती है - ...महिलाओं ने पंचायत कर कहा कि प्रशासन बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ फर्जी नामजदगी कर उन्हें जेल भेज रहा है।...आक्रोशित महिलाओं ने चेतावनी दी कि यदि एकपक्षीय कार्रवाई बंद नहीं हुई तो महिलाएँ सरकार की ईंट से ईंट भिड़ा देंगी।... दुनिया के इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा जब बहुसंख्यक वर्ग पीड़ित हुआ हो। यहां महिलाओं के साथ रिपोर्टर की भावनाएं भी जुड़ गई हैं और वह उन्हीं महिलाओं की भाषा बोलने लगा है, या शायद उसे भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।
इस खबर के साथ एक फोटो भी है जिसमें महिलाओं का एक बड़ा समूह हाथों में डंडा उठाए आंदोलन की मुद्रा में दिख रहा है। तस्वीर का इस्तेमाल हमेशा घटना की प्रभावशीलता का बयान करने के लिए होता है। यहां भी उसका यही इस्तेमाल है और यह बताने की कोशिश है कि महिलाओं की यह पंचायत अपने आप में बड़ा संदेश लिए हुए है।

जानसठ कार्यालय से जागरण की एक अन्य खबर की तस्वीर का कैप्शन है – मुजफ्फरनगर के सिखेड़ा क्षेत्र के एक गांव में तमंचे लेकर प्रदर्शन करती महिलाएं। तस्वीर में महिलाओं के हाथ में तमंचे दिख रहे हैं।

...सपा सरकार के खिलाफ महिलाओं का उग्र प्रदर्शन लगातार जारी है। बुधवार को नूनीखेड़ा, राजपुर व नंगला मुबारिक में महिलाओं ने सीएम अखिलेश यादव व आजम खां के पुतले जलाए। नूनीखेड़ा में एक मुस्लिम महिला ने सीएम के पुतले में आग लगाई।... खबर का यह हिस्सा यह बताने की कोशिश है कि महिलाओं का प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है और जायज है। मुस्लिम महिला के पुतला जलाने का जिक्र करना यह साबित करना है कि प्रशासन के इस “अत्याचार” में मुस्लिम महिलाएं भी दूसरे समुदाय की महिलाओं के साथ हैं।

...महिलाओं का आरोप था कि सरकार एकपक्षीय कार्रवाई कर रही है। पुलिस ने सैकड़ों लोगों को फर्जी मामलों में फंसाया हुआ है।...यहां अखबार लगातार ये दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है कि प्रशासन कोई कार्रवाई न कर पाए। पुलिस की कार्रवाईयों को एकतरफा बताकर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि वह दूसरे समुदाय के खिलाफ कोई एक्शन नहीं ले रहा है।

अमर उजाला, 28 सितंबर, मुजफ्फरनगर
शीर्षक – उफ! ये गुस्सा, गांवों में हल्ला बोल


अमर उजाला के इस पूरे पेज पर तीन चौथाई हिस्से तस्वीरों से भरे हैं। पहली तस्वीर मोहम्मदपुर राय सिंह गांव की है जहां महिलाएं और लड़कियां हाथों में डंडा, हंसिया और चप्पल लिए आक्रामक मुद्राओं में दिख रही हैं। दूसरी तस्वीर में महिलाएं पुतला फूंक रही हैं और तीसरी तस्वीर में पुतले को डंडे से पीट रही हैं।
चौथी तस्वीर मुंडभर की है जहां बहुत सारी बूढ़ी और जवान महिलाएं इकट्ठा हैं। उनमें से कुछ खड़ी और कुछ बैठी हुई हैं। लगभग सभी महिलाओं के हाथों में डंडा और चप्पलें दिख रही हैं।
इन तस्वीरों के बीच में एक कॉलम की खबर है। खबर का शीर्षक है – क्या कराएगा ‘आधी आबादी’ का गुस्सा।

...गांव की महिलाओं का गुस्सा देख पुलिस को पसीने आने लगे हैं। दबिशों का सिलसिला थम चुका है। हिंसाग्रस्त गांवों में पुलिस की फर्जी नामजदगी को लेकर महिलाएं सड़क पर हैं।...रिपोर्टर पूरी तरह से आंदोलनरत महिलाओं की भाषा बोल रहा है। इन आंदोलनों का पुलिस पर क्या असर है, इस पक्ष को जानने की कोई कोशिश नहीं की गई है लेकिन यह साबित करने की कोशिश पूरी है कि “..पुलिस को पसीने आने लगे हैं..”

रिपोर्ट लगातार पुलिस को दोषी बनाने में लगी हुई है। वे पुलिस की कार्रवाईयों को नाजायज मानते हैं। यहां रिपोर्टर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर रहा है जब वह कहता है कि “...फर्जी नामजदगी और पुलिस की वक्त बेवक्त दबिशों से तंग आई महिलाओं को सड़कों पर उतरना पड़ा। उनमें सरकार को लेकर नाराजगी है तो प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भरोसा नहीं।...”

इस खबर के साथ की तस्वीरें भी एक पक्ष को ही प्रमुखता से उभार रही हैं। हाथों में चप्पलें और डंडे लिए महिलाओं की तस्वीर पुलिस-प्रशासन के लिए एक चुनौती की तरह पेश आ रही है। तस्वीर यह जाहिर करती है कि प्रशासन व्यवस्था पर किसी का भरोसा नहीं है।

दैनिक जागरण, 3 अक्टूबर, मेरठ, मुजफ्फरनगर
शीर्षक – महिलाओं व बच्चों ने थामें लाठी और तमंचे


खबर के अलावा बोल्ड टाइप में कुछ प्रमुख बाते लिखी गई हैं।-...वेस्ट यूपी का एक बड़ा हिस्सा इस वक्त अराजकता की चपेट में है। मारपीट, कत्ल और हमले की वारदात थमने का नाम नहीं ले रही है। अपने सुहाग और बेटों की फर्जी नामजदगी को लेकर मुजफ्फनगर और मेरठ में महिलाएं देहरी लांघ सड़कों पर हैं। उनका आक्रोश चंडी का रूप धारण करता जा रहा है। मीठा बोल झरने वाली जुबान मुर्दाबाद रूपी आग उगल रही है। चुनरी के बोझ से झुक जाने वाले कंधे सरकार के नुमाइंदों के पुतले ढो रहे हैं। चूड़ियों की खनखनाहट नारेबाजी के शोरगुल में खो गई है। मेंहदी रचे हाथों में लाठी-डंडे और तमंचे तक लहरा रहे हैं। एकपक्षीय कार्रवाई को लेकर गुस्साई महिलाओँ का यह आक्रोश सरकार के लिए किसी नई आफत का इशारा कर रहा है।...

इस खबर के साथ दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर नूनीखेड़ा गांव की है जहां महिलाएं हाथों में डंडा, हंसिए और तमंचों के साथ आक्रामक मुद्रा में दिख रही है। इस तस्वीर में कम से कम दो महिलाओं के हाथ में देशी तमंचे दिख रहे हैं। दूसरी तस्वीर में महिलाएं और कुछ पुरूष दिख रहे हैं जो पुतला दहन कर रहे हैं। इसी खबर के उपर बुलेट प्वाइंट खबरों में एक खबर है - ..एक मुस्लिम महिला ने दी पुतले को आग...

विश्लेषणः शीर्षक यह बताने की कोशिश है कि प्रशासन का “अत्याचार” इतना बढ़ गया है कि महिलाएं तमंचा उठाने को मजबूर हो गई हैं। अवैध तमंचे रखना और उनका सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन यहां रिपोर्टर को कानून व्यवस्था का मामला नहीं नजर आता। वह इसे जायज ठहराता दिख रहा है। खबर के साथ बोल्ड टाइप में जो जानकारी लिखी है वह किसी खबर का हिस्सा नहीं बल्कि वीर गाथा की चौपाई नजर आती है। साफ दिखता है कि रिपोर्टर का झुकाव कहां है।

अमर उजाला, 28 सितंबर, शामली से
शीर्षक – अखिलेश सरकार गद्दी छोड़ो
महिलाओँ ने फर्जी नामजदगी पर नाराजगी जताई 


पूरे पेज की इस खबर में पुलिस की गिरफ्तारियों के खिलाफ महिलाओं का आक्रोश बयां किया गया है - ...जिले में भड़की हिंसा के बाद ग्रामीणों के विरूद्ध दर्ज हो रही रिपोर्ट से महिलाएं पुलिस प्रशासन के रवैयै से आजिज आ गई हैं। सिंभालका गांव की महिलाओं ने सूबे की सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई शुरू करने का ऐलान किया है।...

...महिलाओं ने बताया कि हिंसा के बाद कथित रूप से गांव के सैकड़ों लोगों के खिलाफ झूठे मुकदमें दर्ज कराए जा रहे हैं। पंचायत की अध्यक्षता कर रही ईश्वरी देवी ने कहा कि एक आदमी थाने पहुंचकर सैकड़ों लोगों के खिलाफ मुकदमें दर्ज कराने में सफल हो जाता है। पुलिस भी बगैर जांच किए सपा सरकार के दबाव में काम कर रही है। निर्दोषों के विरूद्ध रिपोर्ट दर्ज होने से लोगों में काफी गुस्सा है। पुलिस के डर से पुरूष और नौजवान गांव छोड़कर छिपते घूम रहे हैं। स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले उनके बच्चों को भी झूठे मकदमों में फंसाया जा रहा है।...

...सरकार षड़यंत्र रचकर नौयुवकों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही है।...
...महिलाओं ने चेतावनी दी कि अगर उनके बच्चों की गिरफ्तारी हुई तो सबसे पहले वे जेल जाएंगी।...

विश्लेषणः शीर्षक एक आदेश की तरह छपा है, लेकिन यह आदेश कौन दे रहा है, इस बात का जिक्र नहीं है। अगर ये बात किसी ने कही है तो शीर्षक के साथ उसका नाम जाना चाहिए ताकि पाठकों को पता चल सके कि ऐसा कौन कह रहा है। अगर नाम नहीं दिया जा रहा है तो कम से कम इस बात को उद्धरण चिन्ह के अंदर लिखा जाना चाहिए और खबर में इस बात का उल्लेख करना चाहिए। पर ऐसा लगता है मानो अखबार ही गद्दी छोड़ने का आदेश दे रहा हो। पत्रकारिता के आचरण के मानदंडों के हिसाब से यह बिलकुल गलत है।
यहां भी रिपोर्टर और अखबार एक पक्ष में खबरें छाप रहे हैं। एक पक्ष को प्रमुखता से लगातार छापने का यह प्रयास सायास है। पुलिस की कार्रवाई पर समुदाय की महिलाओं द्वारा दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है।

अमर उजाला, सितंबर, शामली से
शीर्षक – ‘सुन ले सरकार, नहीं सहेंगे अत्याचार’


फर्जी नामजदगी के विरोध में प्रदेश सरकार के खिलाफ प्रदर्शन जारी
...सांप्रदायिक हिंसा के मामले में दर्ज मुकदमों का विरोध जारी है...
...बहावड़ी में महिलाओं ने प्रदेश सरकार का पुतला फूंकते हुए बेकसूरों पर दर्ज मुकदमों को वापस लेने की मांग की। उन्होने चेताया कि यदि उन्हें न्याय नहीं मिला तो वह अपने बच्चों और पशुओँ के साथ अफसरों के यहां डेरा डाल देंगी।...

...महिलाओं ने कहा कि हिंसा के बाद दर्ज मुकदमों में गांव वालों को कुछ लोगों ने गुमराह कर फर्जी मुकदमें दर्ज करा दिए हैं।...
न्याय मांग रही महिलाओँ की इस खबर के साथ ही दो तस्वीरें भी हैं। पहली तस्वीर में महिलाएं भारी संख्यां में इकट्ठी हैं और उनके हाथों में लाठी डंडे और फरसे हैं। दूसरी तस्वीर में पुरूष प्रदेश सरकार का पुतला फूंकते नजर आ रहे हैं।

अमर उजाला, मुजफ्फरनगर से
शीर्षक – ‘पहले म्हारी लाश उठैगी’


विश्लेषणः
शीर्षक उत्तेजक है और यह बताता है कि ये कर्ता किसी भी हद तक जा सकता है। इस तरह यह पाठक के मन में भी उत्तेजना पैदा करता है। खबर का पहला पैरा यहां से शुरू होता है - ...दंगे में फर्जी नामजदगी और एकपक्षीय कार्रवाई को लेकर देहात की महिलाओं का आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा है। चूल्हा चौका छोड़कर महिलाओं ने सरकार के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक दिया है।...
...भाकियू के गढ़ मुंडभर गांव की महिलाओं ने ऐलान किया कि अगर उनके गांव के निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी हुई तो पहले म्हारी लाश उठैगी।...
...लोकसभा चुनाव में सपा के बहिष्कार का ऐलान किया।...
खबर में उन लोगों को लगातार निर्दोष साबित करने की कोशिश हो रही है जिनके खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज किया है। दूसरी तरफ महिलाओं के बयानों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है और जरूरत से अधिक तूल दिया जा रहा है ताकि उसको कुछ ज्यादा ही प्रभावशाली बनाया जा सके।

अमर उजाला, 28 सितंबर, मेरठ
शीर्षक- मुजफ्फरनगर- दंगा और सियासत

अखबार के पेज 4 पर शीर्ष में ही एक बड़ी तस्वीर है जिसके दाईं तरफ एक कालम में दंगे से जुड़ी तीन छोटी – छोटी खबरें हैं। यहां तस्वीर में आगे बहुत सी महिलाएं, लड़कियां और बच्चियां खड़ी हैं जो डंडा, लाठी और चप्पलें हाथ में लिए हुए हैं। पीछे कुछ पुरूष खड़े दिख रहे हैं।

अमर उजाला, 28 सितंबर, मेरठ
शीर्षक – गांवों में उबाल, हल्ला बोल (बोल्ड शीर्षक)


अखबार के इस पेज पर भी तस्वीरों की भरमार है जो विभिन्न गांवों में महिलाओं के समूह की है। तस्वीरें काफी बड़ी-बड़ी हैं और उनमें भारी संख्या में महिलाएं हाथों में डंडा और चप्पलें लिए दिख रही है। मुद्रा आक्रामक है। भीड़ में कुछ छोटे बच्चे और बच्चियां भी दिख रहे हैं।

दैनिक जागरण, सितंबर, मेरठ
शीर्षक – बेटियों को छेड़ा तो सिखा देंगे सबक


अखबार निज प्रतिनिधि के हवाले से लिखता है - ...भौराकलां थाना क्षेत्र के गांव मौहम्मदपुर राय सिंह, मुंडभर और हड़ौली में फर्जी नामजदगी और गिरफ्तारियों को लेकर महिलाओं का गुस्सा फूट पड़ा। स्कूल जाती लड़कियों के साथ संप्रदाय विशेष के युवकों द्वारा छेड़खानी को लेकर महिलाओं ने मौके पर ही सबक सिखाने की चेतावनी दी।...

...महिलाओं व छात्राओं ने समुदाय विशेष के युवकों पर छेड़खानी का आरोप लगाते हुए कहा कि जब तक पुलिस उनकी सुरक्षा का जिम्मा नहीं ले लेती तब तक वे स्कूल नहीं जाएंगी।...

यहां भी खबर के बाकी हिस्से तो पहले जैसे ही हैं जो प्रशासन की कार्रवाईयों को गलत ठहरा रहे हैं और साथ ही गांव की महिलाओं के पक्ष में खड़े हैं लेकिन यहां एक नया तथ्य जुड़ गया है। अखबार कहता है - ...कहा जा रहा है कि हुसैनपुरा के शिविर से आ रहे अल्पसंख्यक युवक गांव में फायरिंग व चोरी की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं।... यहां बात ...कहा जा रहा है...से शुरू है। कहने वाला साफ नहीं है। यानी आरोप लगाने वाले का तो पता नहीं है पर आरोपी बिलकुल साफ है। इस आरोप की बुनियाद का कोई हवाला नहीं है।
इस खबर के साथ ही एक बड़ी सी तस्वीर लगी है जिसमें बहुत सी महिलाएं दिख रही हैं। सभी के हाथ में डंडे हैं और वे डंडे उठाए हुए हैं।

दैनिक जागरण, सितंबर, मेरठ
शीर्षक – ठाकुर चौबीसी में कायम है तनावपूर्ण शांति


विरोध के डर से हटी फोर्स, पहरा दे रही महिलाएं, खेड़ा में सन्नाटा
भाकियू व भाजपा प्रवक्ता ने पोंछे पीड़ितों के आंसू
रूक गई गांव में दबिश, ग्रामीण ढूंढ रहे ‘विभीषण’

...सरधना की ठाकुर चौबीसी में बुधवार को पुलिस और सुरक्षा बल कम होने शुरू हो गए हैं। पुलिस की दबिश भी कम हुई है और ग्रामीण थानों में अपना नाम लिखवाने वाले ‘विभीषणों’ को ढूंढ रहे हैं।....
...महिलाएं हाथों में डंडे लिए छतों पर खड़ी हुई नजर आ रही हैं। उनका कहना है कि पुलिस लाठीचार्ज व फायरिंग से गांव के करीब 500 लोग घायल हुए हैं।...

दैनिक प्रभात, 28 सितंबर, मेरठ
शीर्षक – एक पक्षीय कार्रवाई बर्दाश्त नहीः हुकुम


खबर यहां से शुरू होती है -
...मुजफ्फरनगर व शामली में गत दिनों हुई सांप्रदायिक दंगों के बाद प्रदेश सरकार द्वारा आरोपित किए गए भाजपा विधान मंडल दल के नेता बाबू हुकुम सिंह ने जनपद शामली व मुजफ्फरनगर के दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। पीड़ित लोगों को आश्वासन दिया कि जल्द ही एक पक्षीय कार्रवाई करने वाली सरकार के खिलाफ आंदोलन किया जाएगा।...

...भाजपा नेता बाबू हुकुम सिंह ने कहा कि शासन प्रशासन फर्जी नामजदगी के आधार पर एक पक्षीय कार्रवाई कर रहा है। जिसका सड़कों पर उतर कर विरोध होगा।...
...उन्होने कहा कि असली मुजरिम पुलिस की पकड़ से बाहर हैं।...


दैनिक जागरण, 28 सितंबर, बड़ौत से
शीर्षक – छावनी में तब्दील हुआ वाजिदपुर


गांव में अघोषित कर्फ्यू जैसे हालात,गलियां रहीं सुनसान
...मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद फर्जी मुकदमों के आरोप और विरोध प्रदर्शन जिला प्रशासन का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। वाजिदपुर गांव में महिलाओं द्वारा मेरठ-बड़ौत मार्ग जाम करने की घोषणा और फतेहपुर पुट्ठी महापंचायत के मद्देनजर पूरे जनपद में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया।...

...चक्का जाम न करने के आश्वासन के बावजूद मंगलवार रात से ही पूरी एहतियात बरतते हुए पुलिस-प्रशासन ने वाजिदपुर गांव की सीमाएं सील कर दी। अलसुबह करीब पांच बजे से ही वाजिदपुर में मेरठ-बड़ौत मार्ग के पूरे टुकड़े पर पुलिस पीएसी और अर्धसैनिक बलों ने हजारों की संख्या में डेरा जमा लिया।...
...अघोषित कर्फ्यू जैसे हालात हो गए और लोग घरों में कैद होकर रह गए।...

अमर उजाला, शामली से
शीर्षक – रणसिंघा बजते ही होगा संग्राम


लिसाढ़ में गठवाला खाप के थांबेदारों ने पुलिस रवैये के विरोध में बनाई रणनीति
....कवाल कांड प्रकरण में खाप चौधरियों पर दर्ज मुकदमें और उनकी संभावित गिरफ्तारी से पुलिस प्रशासन के खिलाफ ग्रामीणों में आक्रोश व्याप्त हो गया है। उत्पीड़न के विरोध में गठवाला खाप के थांबेदारों ने लिसाढ़ गांव में जुटकर आगे की रणनीति बनाई। निर्णय लिया गया कि किसी भी सूरत में खाप चौधरियों की गिरफ्तारी नहीं होने दी जाएगी। जबरन गिरफ्तारी की कोशिश होने की स्थिति में रणसिंघा बजते ही गांव के लोग संग्राम के लिए सड़कों पर उतर आएगें।...

...किसी भी खाप चौधरी का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।...
...चौधरियों के गांवों की पूरी तरह किलेबंदी की जा चुकी है।...

विश्लेषणः यहां शीर्षक एक सूचना दे रहा है जो समुदाय के बाकी लोगों के लिए है। यह प्रशासन को चेतावनी देने के लिए भी है और अखबार के माध्यम से यह उन लोगों को भी सूचित करती और ऐसी ही तरीके अख्तियार करने के लिए प्रोत्साहित करती नजर आती है। खबर के अंदर फिर से प्रशासन की कार
अमर उजाला, शामली से

शीर्षक – गम भुलाने के लिए दुख किया साझा
(लांकः गलियों में सन्नाटा, गुस्से में महिलाएं)- मुख्य शीर्षक के उपर


...सांप्रदायिक हिंसा के बाद दर्ज हो रहे मुकदमों और पुलिस की दबिश से लांक गांव दहशत में है। गांव की गलियां सूनी हैं और नौजवान पकड़े जाने के डर से छिपते घूम रहे हैं। घर संभालने की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं के जिम्मे है।...

...महिलाएं बाला, वंदना, कमला, शशि आदि का कहना था कि पुलिस ने गांव के सैकड़ों लोगों पर मुकदमें दर्ज किए हैं। साथ ही सैकड़ों अज्ञात दिखा दिए हैं। पुलिस गांव में आती है, लोगों को उठाकर ले जाती है। महिलाओं का आरोप था कि गांव के लोगों पर फर्जी रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। महिलाओं ने कहा कि लोग रिपोर्ट दर्ज होने के बाद लोग पकड़े जाने के डर से घर न आकर कहीं छिपते घूम रहे हैं।...

इस खबर के साथ ही दो तस्वीरें भी हैं जिनमें एक में गांव के आर्य समाज मंदिर में गांव की महिलाएं बैठी दिख रही हैं। दूसरी तस्वीर में एक गली दिखाई दे रही है जहां कोई दिखाई नहीं दे रहा है।

दैनिक प्रभात, 28 सितंबर, मेरठ, शामली से
शीर्षक – ‘म्हारे गांव के लोगों को पकड़ा तो बजा देंगे ईंट से ईंट’


सिंभालका गांव की महिलाओं ने पंचायत कर पुलिस प्रशासन को दी चेतावनी- (मुख्य शीर्षक के नीचे)
...जनपद के गांव सिंभालका की महिलाओं ने गांव में पंचायत कर पुलिस प्रशासन को चेतावनी दी कि अगर म्हारे गांव के लोगों को पकड़ा तो ईंट से ईंट बजा देंगे। महिलाओं ने पुलिस प्रशासन पर एक पक्षीय कार्रवाई करने का आरोप लगाया।...

...जनपद में गत दिनो हुई सांप्रदायिक हिंसा में आरोपी लोगों को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस गांवों में दबिश दे रही है। जिसमें गांव सिंभालका के लोग पुलिस से बचकर छुपे फिर रहे हैं।....

...महिलाओं ने कहा कि प्रशासन एक पक्षीय कार्रवाई कर रहा है जबकि गांव के लोग निर्दोष हैं।...
खबर के बीच में महिलाओं की एक बड़ी सी तस्वीर है जिसमें बहुत सी महिलाएं हाथों में लाठी डंडा और चप्पल उठाए दिख रही हैं। मुद्रा आक्रामक है।

निष्कर्षः – दंगे से संबंधित खबरों के विश्लेषण से अखबारों की भूमिका का पता चलता है। लगभग सभी अखबारों ने खबरों को सनसनीखेज और उत्तेजक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शीर्षक को खबर की भावना का मुखौटा कहा जा सकता है। इस लिहाज से देखें तो शीर्षकों की भाषा, भाव और उनमें प्रयोग किए गए शब्द लोगों की भावनाओं को भड़काने वाले हैं, न कि दोनो संप्रदायों के बीच संबंधों को सुधारने वाले।
खबरों को लिखते समय भी संयम से काम नहीं लिया गया है। आमतौर पर यह देखने में आया है कि वाक्य भड़काउ हैं और दूसरे समुदाय पर दोषारोपण करने वाले हैं। कई जगह तो यह दोषारोपण साफ-साफ दिखता है लेकिन अधिकांश जगहों पर बहुत चालाकी से सीधे आरोप लगाने से बचा गया है और बात को बहुत ही सावधानी से ऐसा मोड़ा गया है ताकि पाठक एक विशेष संदर्भ में ही बात को समझे।

इसके साथ ही खबरों में बहुत से ऐसे तथ्य शामिल किए गए हैं जिनका कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है। कई बार ये बातें, जो कि वास्तव में दूसरे समुदाय के उपर आरोप हैं, को किसी के बयान के मार्फत कहलवाया गया है पर बहुत बार ऐसे भ्रामक और ज्वलनशील तथ्य अनायास ही शामिल कर लिए गए हैं। ऐसा लगता है जैसे कि ये बातें रिपोर्टर खुद कहना चाहता हो या फिर यही उसकी भी भावना हो। इस तरह के तथ्यों से दोनो समुदायों के बीच वैमनस्य की खाईं बढ़ती ही जाती है, न कि इससे दोनो समुदायों के बीच संबंधों को सुधारने में मदद मिलती है।

शोध में शामिल सभी खबरों में जो एक खास बात देखने में आती है वो ये है कि सभी एक ही भाषा में बात करते नजर आते हैं। दंगे के समय अखबारों में जो रिपोर्ट छप रही हैं वे सिर्फ और सिर्फ एक समुदाय के बारे में हैं। दूसरे समुदाय का न तो पक्ष लिखा गया है और न ही उसकी तरफ से पक्ष जानने का प्रयास दिखता है। यहां तक कि खबरों में दूसरे समुदाय का जिक्र तक नहीं किया जा रहा है पर यह साफ पता चल रहा है कि इशारा किसकी तरफ है।

दंगों में हुए नुकसान का जो आंकलन अखबार पेश कर रहे हैं उनमें भी रिपोर्टर का पूर्वाग्रह साफ झलक रहा है। एक तरफ तो बहुसंख्यक समुदाय के हर नुकसान का जिक्र है और उसे खबरों में बार-बार दोहराया जा रहा है और उसके लिए मुआवजे की मांग भी की जा रही है लेकिन दूसरी तरफ अल्पसंख्य समुदाय को हुए नुकसान की कहीं बात नहीं की जा रही है। सर्वविदित है कि अल्पसंख्यकों को मारा गया, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, उनके घर जला दिए गए, जानवरों को मार डाला गया और उन्हें गांव छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया गया। लेकिन उनकी कठिनाइयों का इन खबरों में कहीं भी जिक्र नहीं है। दंगे के बाद आरोपियों की हो रही गिरफ्तारियों को प्रभावित करने का काम भी अखबार कर रहे हैं। जब आरोपियों के घरों में पुलिस की दबिश पड़ने लगी तो पुलिस की इन कार्रवाइयों को लगातार खबरों के माध्यम से हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया। पुलिस की कार्रवाइयों के खिलाफ महिलाओं के आंदोलन को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। अखबार खुद पुलिस की कार्रवाईयों को निर्दोषों पर जुल्म साबित करने की कोशिश में लगे रहे।

जैसा कि भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारों के आचरण के संबंध में दिशा-निर्देश कहते हैं कि दंगों के समय खबरें बहुत ही सावधानीपूर्वक लिखी जानी चाहिए ताकि दोनो पक्षों में संबंधों को सामान्य किया जा सके। यह दिशा निर्देश साफ-साफ कहता है - समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को सनसनीखेज, उत्तेजक और खतरनाक सुर्खियां लगाने से बचना चाहिए। सांप्रदायिक हिंसा या बर्बर कृत्यों से संयमित तरीके से निपटा जाना चाहिए जिससे आम लोगों का राज्य की कानून व्यव्स्था में व्याप्त विश्वास और भरोसे को ठेस न पहुंचे। दंगा प्रभावित समूहों में पीड़ितों की संख्या या इससे जुड़ी घटनाओं को इस तरह लिखा जाना चाहिए जिससे तनाव कम करने औऱ शांति व्यव्स्था कायम करने में मदद मिले।

लेकिन ऐसा लगता है कि शोध हेतु संदर्भित सभी अखबारों ने इन निर्देशों का खुला मखौल उड़ाया। इसके बजाए कि दंगों को रोकने और उसकी भयावहता को कम करने में अखबार सहायक होते, वे इसे और भड़काते और हवा देते नजर आते हैं। एक ऐसे देश में जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, अखबारों की यह साजिश खतरनाक है। में व्याप्त विश्वास और भरोसे को ठेस न पहुंचे। दंगा प्रभावित समूहों में पीड़ितों की संख्या या इससे जुड़ी घटनाओं को इस तरह लिखा जाना चाहिए जिससे तनाव कम करने औऱ शांति व्यव्स्था कायम करने में मदद मिले।

लेकिन ऐसा लगता है कि शोध हेतु संदर्भित सभी अखबारों ने इन निर्देशों का खुला मखौल उड़ाया। इसके बजाए कि दंगों को रोकने और उसकी भयावहता को कम करने में अखबार सहायक होते, वे इसे और भड़काते और हवा देते नजर आते हैं। एक ऐसे देश में जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, अखबारों की यह साजिश खतरनाक है। - See more at: http://hindi.mediastudiesgroup.org.in/hindi/research/paper/paper_detail.aspx?TID=4#sthash.ojMn6Px2.dpuf

अवनीश 

अवनीश मीडिया स्टडीज ग्रुप से जुड़े शोधार्थी और पत्रकार हैं।


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