19 मार्च 2014

संघ का सियासी ड्रामा ...

मौलाना मौदूदी का पाकिस्तान को एक इस्लामी राष्ट्र के रूप में देखने का जो सपना था, उसमें पारिवारिक सम्बन्धों, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मसलांे, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका इत्यादि को इस्लामी शरियत के अनुसार डील किए जाने की व्यवस्था थी।

उन्होंने नागरिकों की दो श्रेणी बनायी थी। एक मुस्लिम और दूसरे जिम्मी। उन्होंने अपनी किताब ’मीनिंग आॅफ कुरान’ में लिखा है कि ‘‘राष्ट्र गैर मुस्लिम को तभी सुरक्षा दे सकता है जब, वे दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने के लिए तैयार हो जायें, और जजिया तथा शरियत के कानून को मानें।

इस संदर्भ को अगर आगे बढ़ाया जाए तो हम पाते हैं कि आज हिन्दुस्तान और पाकिस्तान मौदूदी और गोलवलकर के सपनों का मुल्क बनने की राह पर चल पड़े हैं, अभी हाल ही में नरेन्द्र मोदी ने पूर्वोŸार की एक रैली में कहा था कि पूरी दुनिया में हिन्दुओं पर जहां कहीं अत्याचार होगा, वह भारत ही आयेंगे क्योंकि, उनके लिए भारत अब सुरक्षित होगा।

वास्तव में मोदी जिस राजनीति से आते हंै उसका उद्देश्य ही भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने का है, और मोदी जो आज-कल बोलते हंै उसमें संघ परिवार का हस्तक्षेप होता है। 19 जनवरी 2014 को सोशल साइटों पर ‘माई आइडिया आॅफ इण्डिया’ के कार्यक्रम के तहत सभी नये स्वयं सेवकों से यह लिखने के लिए कहा गया कि प्रधानमंत्री के तौर पर वह मोदी से क्या चाहते हैं?

इन सारे नोट्स को मोदी के भाषणों में शामिल किया जाता है। संघ के लोग नेपाल के धर्म निरपेक्ष घोषित हो जाने के बाद अब भारत को ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में देखना पसंद करते हंै। आज मोदी भले मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित करने में लगे हंै कि उनकी रैली-सभाओं के लिए मुसलमान अपनी जमीन दे रहा है, परन्तु यदि हम इतिहास की गर्त में डुबकी लगाएं तो हकीकत कुछ दूसरी ही है। इतिहास के पास कई ऐसे गवाह हंै जिनका सामना संघ परिवार या भाजपा के लोग नहीं कर सकते हैं।

इसका एक नमूना हम ‘आर्गनाइजर’ में प्रकाशित हुए लेख ‘लेट मुहम्मद गो टू द माउण्टेन’ में देख सकते है-‘‘मुसलमान महसूस करते हैं कि स्वतन्त्र भारत में उनके साथ अच्छा सलूक नही किया गया, लेकिन हिन्दू गहरे तौर पर महसूस करता है कि मुसलमानों ने पिछले 1000 वर्षों से उनके साथ बदसलूकी की है। मेरी इच्छा है कि भारतीय मुस्लिम प्रतीकात्मक कदम उठाकर ‘साॅरी’ कहें। इससे देश में एक महान मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आएगा (3 जून, 1979, पृष्ठ-7)। यह सारी चीजें सिर्फ इसलिए कि एक समुदाय को अहसास करवाया जाए कि वह दोयम दर्जे का नागरिक है।

संघ के लोगों की यह धारणा रही है कि देश के मुसलमानों की वफादारी देश के सीमा-पार के मुल्कों से है। आरएसएस हमेशा आग्रहपूर्वक यह विचार प्रकट करता रहा है कि पाकिस्तान की स्थापना मुसलमानों के देश के रूप में हुई। अतः उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। खुद गोलवलकर ने ‘बंच आॅफ थाॅट्स’ में लिखा है कि देश में ‘अनेक छोटे-छोटे पाकिस्तान’ हैं।

बड़े मार्के की बात है कि ‘वी आॅर आवर नेशनहुड डिफाइन’ जिसे संघ के आन्दोलन का वैचारिक घोषणा पत्र समझा जाता है, अपने शीर्षक से ही घोषित करता है कि इसके अन्दर जिस राष्ट्रीयता की बात की गयी है वह ‘हम’ और ‘वे’ में अंतर करती है। जाहिर है कि वह ‘हम’ में भारत में रहने वाले सभी लोग नही हंै। कुछ ‘वे’ भी हैं जो गैर हिन्दू है। ध्यान देने की बात है कि संघ के लोग भौगोलिक राष्ट्रवाद नही बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं।

तभी तो मोदी सांस्कृतिक रूप से दूसरे देशों में रहने वाले हिन्दुओं की सुरक्षा की गारण्टी ले रहे है। जबकि ‘भौगोलिक राष्ट्रवाद’ के अन्र्तगत ‘सुरक्षा की गारण्टी’ मुलसमानों को नही दे रहे हंै। गोलवलकर और उनके साथी मुसलमानों को कोई अधिकार नहीं देना चाहते हैं, यही कारण है कि भारत-पाक संघर्ष में उच्चतम देश भक्ति और पराक्रम दिखाने पर जब वीर अब्दुल हमीद और कीलर बंधु को सम्मानित किया गया तो गोलवलकर ने आपŸिा की थी। (स्वतन्त्र भारत-दिसम्बर 24, 1965)

हालांकि कभी-कभी संघ के ही इशारे पर भाजपा के नेता धर्मनिरपेक्षता का ड्रामा भी करते है। यह संघ का पुराना ट्रेंड है। एक दौर में अटल बिहारी इसके सटीक उदाहरण रहे हैं। अटल बिहारी बाजपेयी बतौर विदेश मंत्री व प्रधानमंत्री नेहरू की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति पर चले। अरब के देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया। पाकिस्तान की यात्रा पर गये और संघ परिवार ‘उर्दू’ जिसे एक खास तबके की भाषा समझता है में अच्छी-खासी शायरी भी की।

यह सारी चीजे संघ परिवार के वैचारिक रूप से प्रतिकूल थीं परन्तु यह भी संघ परिवार के ही रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। जैसा कि देशराज गोयल ने अपनी किताब ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक’ में लिखा है कि ‘‘आरएसएस से वाजपेयी के अलग होने का सवाल ही पैदा नही होता है। यह पूरी समझदारी के साथ किया जा रहा है।

अगर वाजपेयी की कुछ अदाओं से साम्प्रदायिकता का कलंक धुल जाएं तो आरएसएस का क्या नुकसान होगा। (पृष्ठ संख्या-152) अब चुनाव के समय भाजपा के तमाम नेता यही फार्मूला अपना रहे हैं। भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का माफी मांगना-सिर झुकाना इसी रणनीति का एक हिस्सा है। माफी मांगने से इंसाफ के लिए भटक रहे लोगों के जीवनचर्या में क्या कोई परिवर्तन होगा?

संघ की शाखाओं मंे एक कहानी बार-बार सुनाई जाती है कि शिवाजी ने अपनी विजय के उपरांत अपना राजमुकुट और राजदण्ड रामदास के चरणों में रख दिया था। रामदास ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनकर शासन करने की आज्ञा दी। हो सकता है कि इससे शिवाजी को शासन करने में मदद मिली हो, परन्तु आरएसएस की दृष्टि से यह उसके और राजनीति के सम्बन्धों का आदर्श है।

यानी राजसŸाा को संघ के आगे झुकना चाहिए और उसी की रणनीति के तहत ही काम करना चाहिए। मोदी बार-बार स्वयं को सेवक कहते है। वस्तुतः वह जनता के सेवक नही हैं बल्कि दलित, वंचित, अल्पसंख्यक विरोधी संघ के सेवक हैं। संघ में वैचारिक रूप से ऐसा परिवर्तन कभी नही हो सकता है क्यांेकि रूढि़वादी विचार ही उसके अस्तित्व का आधार है। इसलिए राजनाथ की मुसलमानों से माफी केवल एक सियासी नाटक से ज्यादा कुछ नहीं है जिसकी पूरी पटकथा ही आजकल केवल नागपुर से लिखी जा रही है।

अनिल यादव

(लेखक युवा पत्रकार हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति में सक्रिय हैं.)
इनसे  anilmedia24@gmail.com, मो .न.09454292339पर संपर्क किया जा सकता है।)

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय