26 अप्रैल 2014

संप्रदायिकता नहीं, जातीय वर्चस्व की जंग में आजमगढ़ में मुलायम

मुलायम सिंह यादव आजमगढ़ से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी हो सकते हैं, समाचार माध्यमों में इस इस तरह की अटकलें पहले से ही थीं परन्तु हर बार पार्टी की ओर से इसका खण्डन किया जाता रहा। मंथन इस बात पर चल रहा था कि सपा के इस क्षेत्र में खिसकते जातीय आधार पर कैसे काबू पाया जाए? ऐसे में सपा द्वारा यह कहना कि सांप्रदायिकता के खिलाफ आजमगढ़ में मुलायम सिंह चुनाव मैदान में हैं, यह महज एक शिगूफा है, जिसे क्षेत्र का मुसलमान समझ रहा है।

गौरपलब है कि आजमगढ़ में कभी मुलायम के सिपहसालार रहे रमाकांत यादव पिछली लोकसभा में भाजपा के टिकट पर निर्वाचित हुए थे और यह साबित कर दिया था कि स्थानीय यादव मतदाताओं का बड़ा वर्ग उनके साथ है। इससे पहले भी दो बार सपा के कद्दावर यादव नतोओं को इस मामले में उनके सामने मुंह की खानी पड़ी थी। अपने इस जातीय आधार को पार्टी में वापस लाने का सपा नेताओं का हर प्रयास विफल साबित हो रहा था।

अब यह समस्या मात्र आजमगढ़ तक सीमित नहीं रह गई थी। इसी राह पर चलते हुए एक तरफ गाजीपूर में एकता मंच गठबंधन की तरफ से प्रत्याशी बन कर आए डीपी यादव और दूसरी तरफ जौनपूर में पार्टी से बगावत करके चुनावी रण में कूद पड़ने वाले केपी यादव ने भी सपा की मुश्किलें बढ़ा दी थीं। कुल मिला कर सपा के लिए यह पूरा इलाका ’चिन्ता क्षेत्र’ में तबदील होने लगा था।

जातिवाद की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी को उसके उसी हथियार से सपा के इन पूर्व यादव क्षत्रपों ने इस चुनाव में पार्टी के घोषित और अघोषित भावी प्रत्याशियों को हाशिए पहुंचा दिया था। इन परिस्थितियों में अवश्यकता थी इस क्षेत्र में किसी ऐसे बड़े नेता की, जो इन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो और आसपास के क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सके। जाहिर सी बात है इसके लिए सपा प्रमुख से ज्यादा उपयुक्त और कौन हो सकता था।

दूसरी तरफ सपा शासन में होने वाले दंगों और अखिलेश सरकार द्वारा उससे निपटने के संदिग्ध तौर तरीकों से मुसलमान वोटर भी नाराज है। इस स्थिति में मुसलमानों को साथ लाने का एक ही मंत्र बचा था और वह था-अपने आपको भाजपा का विकल्प बना कर पेश करना, जिसका इस पूरे क्षेत्र में सपा दूर से भी कोई संकेत नहीं दे पा रही थी।

मोदी के वाराणसी से प्रत्याशी बनते ही सपा के रणतीतिकारों को लगा कि उनकी यह समस्या भी हल हो गई। मुलायम सिंह के आजमगढ़ से चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ यह प्रचारित किया जाने लगा कि पूर्वांचल में मोदी के प्रभाव को खत्म करने के लिए यह कदम उठाया गया है, लेकिन शायद समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया के लिए यह राह उतनी आसान साबित न हो।

आजमगढ़ में बसपा बनाम भाजपा की जंग अब मुलायम सिंह के प्रत्याशी बनने के बाद बसपा बनाम सपा तो होती दिखाई दे रही है, लेकिन ’मुसलमान सपा के साथ नहीं आया तो भाजपा जीत सकती है’ वाली सपा की पसंदीदा स्थिति यहां अभी नहीं है और उसके उत्पन्न होने की कोई संभावना भी कम है। वैसे तो पूरे प्रदेश में जातियों के राजनीतीकरण पर आधारित राजनीति स्थापित हो चुकी है, लेकिन पूर्वांचल की जलवायु इसके लिए अधिक अनुकूल साबित हुई है।

इस क्षेत्र में पिछड़ी तथा अनुसूचित जातियों के राजनीतिकरण ने छोटे-छोटे राजनीतिक दलों की संख्या हर चुनाव में बढ़ाई है। आजमगढ़ लोकसभा में यादव मतदाता का अनुपात सबसे अधिक लगभग 21 प्रतिशत है जबकि मुसलमान 19 प्रतिशत,  हरिजन लगभग 16 प्रतिशत और क्षत्रिय वोटों की संख्या 8 प्रतिशत है। बाकी मतदाताओं में बड़ी संख्या अति पिछड़ा वर्ग और अन्य दलितों की है, जिनकी पहचान किसी एक दल के वोटर के रूप में नहीं है। ऐसे में इस चुनाव में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका निर्णायक हो सकती है। लेकिन यह स्थिति भी किसी भी तरह समाजवादी पार्टी सुप्रीमों के पक्ष में जाती नजर नहीं आती।

यदि यह मान लिया जाए कि भाजपा हार जीत की लड़ाई से बाहर हो गई है तो मुसलमानों को कई टुकड़ों में बंटने से रोक पाना मुश्किल हो जाएगा। अगर भाजपा की जीत की दावेदारी बरकरार रहती है तो यह उसी हालत में सम्भव होगी जब यादव मतदाताओं का एक वर्ग अपने क्षेत्रीय क्षत्रप के साथ खड़ा हो। इसका दूसरा अर्थ होगा मुलायम सिंह की दावेदारी का कमजोर होना। ऐसी हालत में मुसलमान इस आशंका के बावजूद कि चुनाव पश्चात सपा के मुकाबले में बसपा की राजग के साथ चले जाने की सम्भावना अधिक है, लामबंद होकर बसपा के साथ जा सकता है।

कुल मिला कर जहां तक मुस्लिम मतदाताओं का सवाल है, यह दोनों ही परिस्थितियां मुलायम के खिलाफ जाती नजर आती हैं। इस प्रकार की किसी प्रतिकूल स्थिति से बाहर निकलने के लिए अति पिछड़ों और गैर हरिजन दलितों का एक बड़ा भाग शेष रह जाता है, जिस पर सभी पार्टियों साथ साथ प्रदेश के सत्ताधारी दल की निगाह भी अवश्य होगी। चनावी दंगल के अंतिम चरण में आजमगढ़ एक बड़ा अखाड़ा बनने वाला है यह तो निश्चित है, लेकिन सपा रणनीतिकारों की योजना कितनी सफल होती है इसमें राजनीतिक विश्लेषकों दिलचस्पी जरूर रहेगी।

मसीहुद्दीन संजरी
 
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र पत्रकार हैं)
(इनसे  masanjari@gmail.com, मो .न.09455571488 पर संपर्क किया जा सकता है।)

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