05 फ़रवरी 2008

इस अयोध्या को भी जानें !और समझें!

१८५७ की साझी शहादत-साझी विरासत की अयोध्या आज दुस्वप्न की तरह याद आती है.छः दिसम्बर १९९२ की बाबरी विध्वंस की घटना को पंद्रह साल होने को आये हैं.पर अब तक उस सदमें से अयोध्या उबर नहीं पाया है.इस सच्चाई को इसकी गलियां बयान करती हैं.कहने को तो धर्म नगरी है पर वास्तविकता में इस धर्म नगरी में बजनें वाली घंटियों का मातमी शोर यहाँ के लोगों को बार-बार धमकी देता है.एक नहीं अयोध्या की सारी गलियां गवाह हैं कि बानबे के बाद यहाँ मकानों का कोई नव निर्माण नहीं हुआ,है भी तो इक्का-दुक्का.यही हाल नई दुकानों का भी है.पूरे शहर की वीरानी को देख ऐसा लगता है कि ये लोग रंग-रोगन का मतलब शायद नहीं जानते.पर शायद ये भूल होगी क्यों कि अवध के लोग अपने आराध्यों के साज-सृंगार को ही पूजा मानते हैं.निश्चय ही जिन लोगों की जिन्दगी में धर्म मछली के कांटे की तरह अटका हो उनके लिए रंगों का मतलब ख़त्म हो जाता है.आज अयोध्या अपनी पहचान स्वीकार नहीं कर पा रहा है.एक तरफ अवधी नवाबों द्वारा बसाई साझी शहादत -साझी विरासत की परंपरा है तो दूसरी तरफ हिंदुत्व वादियों द्वारा ६ दिसम्बर १९९२ को धहाई बाबरी विधवंस की कलंकित परंपरा है। अगर पहले रूप को स्वीकार करता है तो 'हिंदुत्व कि राजनीति' उसे अधर्मी कह कर नर संघर पर उतारू होती है । अगर वह दूसरे रूप को स्वीकार करता है तो उसे घुटन महसूस होने लगती है। क्योंकि अयोध्या के लोगों ने अपने ही लोगों को धर्म की सेज पर लाशों में तब्दील होते देखा है। और जब भी आवाज उठाने की कोशिश की तो उसे 'जय श्री राम' के नारों के बीच दबा दिया जाता है।

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