24 मार्च 2008

तूफानी दौर में राजनीति - गोपाल प्रधान

जेएनयू में रहते हुए सिवान में पार्टी से उनका जुडाव हो गया था। अगर जिलों के हिसाब से देखा जाय तो बिहार के सिवान जिले के सर्वाधिक छात्र जेएनयू आते थे। इसीलिए चुनावों में पार्टी के प्रत्याशियों के प्रचार में जब वे सिवान जाते तो अनेक जगहों पर परिचित छात्र या उनके घर वाले मिल जाते थे । जब उन्होंने सिवान जाने का निर्णय लिया तो बिहार में पार्टी के नौजवान नेताओं की पुरी फौज के साथ मिलकर नए बिहार के सपने को प्रक्षेपित कराने की सोच के साथ गए थे। यह सपना सामन्तों की पोषक शक्तियों के लिए खतरे की घंटी था। उनकी हत्या किसी चुक या दुर्घटना के कारन नहीं हुई , वरण ठंढे दिमाग से सोची- समझी योजना के साथ इसे अंजाम दिया गया था। इसीलिए उनकी हत्या का खून जिन लोंगो के माथे पर है उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता

उनकी हत्या के विरुद्ध उमड़ा राष्ट्रव्यापी विक्षोभ ही इस बात का प्रमाण है की कहीं न कहीं वे ने ज़माने की छात्र राजनीती के आदर्श के रूप में समझे जाने लगे थे। दरअसल छात्र समुदाय की अध्ययनोंपरांत सामाजिक भूमिका का प्रश्न हमारे देश में अभी अनसुलझा है। कोई भी संवेदनशील छात्र जब नौकरी कराने जाता है तो उसे संतुष्टि नहीं होती। इस व्यवस्था में जो भी कीमत नौकरी पेशा व्यक्ति को दी जाती है,वह उसके लिए जाने वाले काम , उसकी स्वतंत्रता पर लगी बंदिशों और उसके निचोड़े गए लहू के मुकाबले कुछ कम नहीं होती। चन्द्रशेखर ने इस घुटनभरी जिंदगी के मुकाबले मध्यवर्गीय मोह की हर एक सीमा का अतिक्रमण करके ऐसी राह चुनी जो प्रचंड संकल्पशक्ति की मांग करती है।
चन्द्रशेखर जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपनी सार्वजनिक सक्रियता से विक्षोभ और प्रतिरोध की जो कविता लिखी , संघर्ष की जो कहानियाँ रचीं , उनके बारे में अपनी शालीन विनम्रता के व्हालाते कभी बड़े दावे नहीं किए। इसी के कारन वे सैकड़ों लोगों के जीवन में रासायनिक परिवर्तन लाने में सफल हुए। आज भी कोई बहाना बनते हुए उनकी नाखुशी भरी लाचारी याद आ जाती है। इसके मुकाबले मंचाभिलाशी विद्वानों के थोथे विचार कितने तुच्छ लगते है! काश कि हमारे देश का बौद्धिक वर्ग अपनी औपनिवेशिक विरासत से थोड़ा पीछा छुडा कर रंचमात्र निराहंकारी हो पाता! काश कि हमारे देश के शिक्षण संस्थान कुछ - कुछ जनोंमुखी भूमिका निभाते है ! तब वे नौकरशाही और बौद्धिक कुलीगीरी के प्रशिक्षण केन्द्र न होकर
आचरण में दीक्षित प्रतिभाओं को सृजीत कर पाते जिनकी आवश्कता आज अधिक है उतनी शायद पहले कभी नहीं थी।
सार्वजनिक जीवन में प्रकट मूल्यों की छाप उनके व्यक्तिगत लेखन में भी है। महज़ चन्द्रशेखर के लिखे पत्रों को पढ़ें तो उनमें भावनाओं ,विचारों और प्रतिबद्धता का ऐसा विस्फोट है जिसने पावेल ब्लासोव की तरह अपनी माँ को राजनितिक जीवन में उतार दिया। यह सब कुछ इसी अमूल्य विरासत है जिसे सुरक्षित रखने और अपनी सक्रियता के जरिये समृद्ध कराने का भार आइसा पर है। यह उसका अधिकार भी है और कर्तव्य भी ।
नई पीढ़ी में प्रकाशित लेख का अंश
गोपाल प्रधान आइसा के संस्थापको में से एक है और फिलहाल सिलचर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय