10 अक्तूबर 2008

फिर कटघरे में पुलिस - फिरदौस ख़ान

जामिया नगर के बाटला हाउस में हुए 'एंकाउन्टर' को लेकर एक बार फिर दिल्ली पुलिस सुर्खियों में है। वजह, जिस तरह से पुलिस ने एक मकान पर जाकर ताबड़-तोड़ गोलियां दागनी शुरू कर दीं, उसने पुलिस की कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान लग गया है। इस मुठभेड़ को लेकर जांच की मांग भी लगातार उठ रही है।गौरतलब है कि वर्षों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आनंद नारायण ने एक फैसला सुनाते हुए कहा था कि हमारे देश की पुलिस गुंडों का सर्वाधिक संगठित गिरोह है। भारतीय पुलिस पर की गई इस टिप्पणी को साबित करने वाले बेहिसाब शर्मनाक मामले हैं, जिन्हें पुलिस ने अपनी शान समझते हुए अंजाम दिया है। शराब के नशे में धुत्त पुलिस कर्मचारियों द्वारा लोगों से बदसलूकी करने, महिलाओं के कपड़े ही नहीं उनकी अस्मत को भी तार-तार करने और लोगों से पैसे वसूलने जैसे कितने ही मामले अकसर सुर्खियों में रहते हैं। अपराधियों के साथ सांठ-गांठ करने के आरोप भी पुलिस पर हमेशा से लगते रहे हैं। जब भी किसी बड़े मामले का खुलासा होता है तो साथ में यह भी पता चलता है कि इसकी जानकारी पुलिस को पहले से ही थी, लेकिन इसके बावजूद उसने कोई कदम नहीं उठाया। निठारी मामले में भी पुलिस की खासी किरकिरी हुई थी। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों से भला कौन अनजान है। मानवाधिकार आयोग के सतत् प्रयासों के बावजूद भी पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों की तादाद में कमी नहीं आई है। पुलिस की क्रूर और तानाशाही मानसिकता को पहले अंग्रेज अफसरों की कोठियों से बढ़ावा मिलता था और आजादी के बाद यही सहारा प्रभावशाली लोगों की अट्टालिकाओं से मिलने लगा। प्रभावशाली लोगों में पुलिस के जरिये विरोधियों को 'सबक' सिखाने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया तो पुलिस के चरित्र में यह बात शामिल हो गई कि झूठे केस बनाकर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाए और उसे सीधा किया जाए। इसी 'सबक सिखाओ' नीति का पालन करते हुए पुलिस ने कितनी ही वारदातों को अंजाम दे डाला है। पुलिस पर जब आरोप लगते हैं तो वह चुप्पी साधकर सह जाती है। किसी भी आरोप पर पुलिस पहले तो अपना पक्ष रखने से कतराती है, लेकिन किसी स्थिति में पुलिस को अपना स्पष्टीकरण रखना पड़ जाए तो तो आगे चलकर अदालत में वह झूठा साबित हो जाता है। इसी तरह कई मामलों में पुलिस के आला अधिकारियों को अदालत से सजा भी हुई है, लेकिन पुलिस अधिकारियों को सजा और प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद पुलिस की कार्य प्रण्ााली में बदलाव नहीं आया है। पुलिस द्वारा जनता को प्रताड़ित करने की घटनाओं में दिनोदिन भारी इजाफा हो रहा है। ऐसी घटनाओं ने जनता में पुलिस की छवि को धूमिल किया है। आखिर क्या वजह है कि पुलिस में भर्ती आम आदमी वर्दी पहनकर खूंखार हो जाता है? वह नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को तिलांजलि दे देता है। पुलिस की इस क्रूर छवि को साफ-सुथरा बनाने के मकसद से आए-दिन पुलिस प्रशासन कोई न कोई बयान जारी करता रहता है। पुलिस सम्मेलनों में भी पुलिस को आम आदमी से जोड़ने के दावे किए जाते हैं। देश में अंग्रेजी शासनकाल में पुलिस प्रणाली, प्रथम राष्ट्रीय पुलिस आयोग 1860 की सिफारिश के आधार पर 1861 से लागू हुई है और तब से ही देश में पुलिस अधिनियम 1861 लागू हुआ था। फिर 1902 में एएचएल फ्रेजर की अध्यक्षता में दूसरे राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने पुलिस प्रणाली में सुधार की कई सिफारिशें कीं, लेकिन उन पर अमल नहीं हो पाया। आजादी के करीब छह दशकों में भारतीय जनमानस की न केवल मानसिकता बदली है, बल्कि सामाजिक परिवेश की परिभाषा और मूल्य भी बदल गए हैं। अगर इस लम्बे अरसे में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है तो वह है पुलिस। गुलाम भारतीयों की मानसिकता पर खौफ बनाए रखने के उद्देश्य से लार्ड वारेन हस्टिंग ने जिस व्यवस्था की कल्पना को साकार किया था, भारतीय पुलिस तो आज भी सौ फीसदी उन्हीं पदचिन्हों पर चल रही है।हालांकि आजादी के बाद 1977 में सेवानिवृत आईपीएस अधिकारी धर्मवीर की अध्यक्षता में पहले राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया। अपनी पहली ही रिपोर्ट में आयोग ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए। रिपोर्ट पर विचार-विमर्श के लिए केंद्र सरकार ने 6 जून 1979 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। लेकिन नतीजा वही सिफर रहा। आयोग की दूसरी रिपोर्ट में आपातकाल के दौरान पुलिस द्वारा की गई ज्यादतियों का जिक्र था, इसलिए आयोग की सिफारिशों से सरकार तिलमिला गई और आखिर 31 मई, 1981 को आयोग को बंद कर दिया गया।सेवानिवृत आईपीएस अधिकारियों द्वारा पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए 1996 में सर्वोच्च न्यायालय में विशेष याचिका दायर किए जाने के बाद 25 मई 1998 को पूर्व आईपीएस अधिकारी जेएफ रिबेरी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। कमेटी को राष्ट्रीय पुलिस आयोग, मानवाधिकार आयोग और वोहरा समिति की सिफारिशों का अध्ययन करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। समिति ने सरकार को कुछ सुझाव दिए, जो शायद सरकार को पसंद नहीं आए। इसी तरह 2000 में पद्मनाभैया की अध्यक्षता में बनी कमेटी की सिफारिशों को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।22 सितंबर 2006 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि पुलिस की कार्यक्षमता में गिरावट इसलिए आई है, क्योंकि इसकी कार्यप्रणाली में जरूरत से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप है। इसलिए जरूरत है कि पुलिस को राजनीतिक दखल से दूर रखा जाए। इसके साथ ही पुलिस के दर्ुव्यवहार की सुनवाई और जांच के लिए मानवाधिकार आयोग, लोकायुक्त और राज्य लोकसेवा आयोग के सुझावों के आधार पर नागरिक नियंत्रण अथॉरिटी का चयन किया जाए। ब्रिटेन में पुलिस रिफार्म एक्ट-2002 के परिपालन में एक स्वतंत्र पुलिस कंप्लेंट कमीशन का गठन किया गया है। इसमें कमीशन की खुद की अपनी टीम है, जिसमें अमूमन नागरिक ही शामिल हैं। खास बात यह है कि पुलिस के खिलाफ जांच के लिए इन्हें वैसे ही अधिकार मिले हैं जो कि यहां पुलिस के पास हैं। ये किसी भी वांछित कागजात को तलब कर सकते हैं और पुलिस परिसर में बिना किसी इजाजत के दाखिल होने का भी इन्हें हक हासिल है। यहां नागरिक ही पुलिस के गंभीर आरोपों की सुनवाई करने वाले पैनल की अध्यक्षता करते हैं। प्रताड़ित लोगों के अलावा कमीशन खुद शिकायत के आधार पर संज्ञान लेते हुए मामले को सुनवाई के लिए पेश कर सकता है।इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में शिकायतों की सुनवाई के लिए ओम्बुड्समैन तैनात किए जाते हैं। यहां पुलिस के गंभीर अपराधों की सुनवाई पुलिस इंटीग्रिटी कमिश्नर करते हैं। न्यूजीलैंड में पुलिस के खिलाफ शिकायतें सुनने के लिए एक स्वतंत्र और अधिकार संपन्न पुलिस इंस्पेक्टोरेट हैं।काबिले-गौर यह भी है कि अपराध दंड संहिता की धारा-197 के तहत किसी पुलिसकर्मी पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है। इस हालत में विभाग आरोपी का बचाव करता है। मुकदमा चलाने की यह इजाजत लेना अपने आप में टेढ़ी खीर है। इसमें समय भी ज्यादा लगता है। इस दौरान आरोपी पदोन्नति प्राप्त कर पहले से ज्यादा प्रभावशाली हो जाता है या सेवानिवृत हो जाता है। इस सबके चलते पुलिसकर्मियों का सजा का खौफ नहीं होता। इसलिए इस धारा को समाप्त किया जाना चाहिए। आज पुलिस प्रशासन को आत्म विश्लेषण की जरूरत है। पुलिस जनता की अदालत के कटघरे में इस बात के लिए जवाबदेह है कि पुलिस का कर्तव्य क्या है? जनता की रक्षा करना या उन्हें प्रताड़ित करना? अगर उसका जवाब जनता की रक्षा करना है तो फिर आम आदमी को प्रताड़ित क्यों क्या जाता है, आखिर यह सिलसिला थमेगा कब? साभार - जनादेश

1 टिप्पणी:

हरिमोहन सिंह ने कहा…

जब पुलिस सही काम करती है तब पुलिस की कमियों का रोना क्‍यों

अगर वास्‍तव में पुलिस व्‍यवस्‍था में आप सुधार चाहते है जो होना भी चाहिये तो उसके लिये सही वक्‍त तब है जब पुलिस ऐसा कुछ नहीं कर होती

अपना समय