23 अक्टूबर 2008
एक आतंकवादी का घर - शम्स ताहिर ख़ान
सोचा था खुल कर लिखूंगा। पर लिखना शुरू किया तो अचानक ख्याल आया कि आखिर मैं क्यों लिखूं॥और आप क्यों पढ़ें? जबकि मैं जानता हूं कि ना मेरे लिखने से कुछ फर्क पड़ने वाला है और ना आपके पढ़ने से। टेक्नोलोजी के इस दौर मे ना लिख रहा होता, तो लिखता कि मैं स्याही बर्बाद कर रहा हूं और आप बस पलटने के लिए पन्ने पलटते जाइए। पर अब तो कमबख्त सयाही भी खर्च नहीं होता और माउज़ पलटने जैसे पन्ने को पलटने भी नही देता। बस क्लिक कीजिए, स्याही गायब और हरफ़ आंखों से ओझल।बटला हाउस एनकाउंटर के बाद मैं आजमगढ़ गया था। आतंक की ज़मीन तलाशने। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सभी आतंकवादी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा कि शम्स भाई यहां तक तो आ गए पर सराय मीर या सनजरपुर मत जाइए। वहां लोग गुस्से में हैं। दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को कई घंटे तक बंधक बना कर रखा। जाहिर है दिल्ली से जिस मकसद से निकला था उसके इतना नजदीक पहुंच कर उसे अधूरा छोड़ने का सवाल ही नहीं था। सो आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर निकल पड़ा।आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरा तो दुआ-सलाम के बाद एक भाई ने सड़क किनारे अपनी दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को ग्लास थमाने के बाद जैसे ही मेरी तरफ बढ़ा तभी दुकान के मालिक तिफलू भाई बोल पड़े--'अरे शम्स भाई को मत दना इनका रोजा होगा। क्यों शम्स भाई रोजे से हैं ना आप?' इतना सुनते ही जांघों पर से उठ कर ग्लास की तरफ बढ़ता मेरा हाथ वापस अपनी जगह पहंच गया।तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था। और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। लिहाजा उन्हें अपने साथ लिए हम सबसे पहले बीना पाड़ा गांव पहुंचे। ये गांव गुजरात बम धमाकों के मास्टरमइंड कहे जाने वाले अबू बशर का गांव है। तिफलू भाई ने पहले ही गांव के प्रधान को खबर कर दी थी। इसलिए जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी। कुछ पल बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। बताया गया कि ये बाकर साहब हैं अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। थोड़ी देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद अबू बशर को उसके वालिद के जरिए जितना टटोल सकता था टटोलने लगा। मगर बातचीत के दरम्यान ही तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिसे मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब का का पीठ उनकी घऱ की तरफ था जबकि मेरा मुंह ठीक घर के सदर दरवाजे की तरफ। बातचीत के दौरान अचानक 14-15 साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते ही फौरन दरवाजे के उसी तरह भिकड़ा कर बंद कर देता है। मैंने मुश्किल से बस पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का मंजर देखा होगा। और बस उसी मंजर ने मुझे घर के अंदर जाने को मजबूर कर दिया। लिहाजा कुछ देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद मैंने इशारे से तिफलू भाई को अलग से बुलाया और अपनी ख्वाहिश जता दी- 'मैं बशर का घर अंदर से देखना चाहता हूं।'फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात ब्लास्ट के मास्टर माइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था। जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईंटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने गुदड़ी जैसा बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव आठ ईंटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईंटों के बीच कुछ साबुत और अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था। घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे में भी देखना चाहते थे पर झिझक भी रहे थे कि कहीं अंदर घर की कोई लड़की ना हो। तिफलू भाई ने झिझक दूर की और कहा कि अंदर आ जाइए क्योंकि घर में सिर्फ अबू बशर की मां ही हैं। कमर या कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल फिर नहीं सकतीं। कमरे में एक उम्रदराज चारपाई पड़ी थी जिसपर एक मटमैला चादर बिछा था। कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। हमें ये भी बताया गया कि घर में खाना बशर के दोनों छोटे भाई ही बनाते हैं इसके बाद हम घर से बाहर निकल आते हैं। बाहर निकलते-निकलते तिफलू भाई हमें बशर के घर के सदर दरवाजे पर लगा नीले रंग का एक निशान दिखाते हैं। ये निशान सरकार की तरफ से गांव के उन घरों के बाहर लगाया जाता है जो गरीबी की रेखा से नीचे होते हैं।इसके बाद मैं और भी तमाम लोगों से मिला, बातें कीं.....पर ना मालूम क्यों अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा? साभार - सुप्रितम बनर्जी
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3 टिप्पणियां:
श्रीयुत शम्स
गरीबी की रेख के नीचे मौत को तड़पते तो आपने देख लिया, किंतु मौत की रेखा के नीचे छटपटाती ज़िन्दगी देखना अभी शेष है. आज नहीं तो कल आप यह भी देखेंगे. उस समय गरीबी की रेखा के उस पार फ़ालिज-ज़दा बूढे चेहरे नहीं होंगे. होगा एक महत्वाकांक्षी शैशव.
Sab musalman nek aur khuda ke bande hain; per sab aatankvadi muslman kyon hain.
जो तस्वीर आपने दिखाई है वह वाकई सोचने को मजबूर करती है। हो सकता है अबू निर्दोष हो और हो सकता है वह दोषी हो। दोनों हालात में उसके परिवार की पीड़ा काफी गहरी होगी।
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