17 अक्तूबर 2008

यह आतंकवाद नहीं, हताशा है

प्रीतीश नंदी
आतंकवाद को लेकर गुस्सा होना आसान है. हर कोई है, लेकिन इसका असल समाधान तलाशना मुश्किल है. आतंकवाद कोई 9/11 के बाद का घटनाक्रम नहीं है, जैसा कि हम मानना चाहते हैं. यह काफी समय से है. हमने पचास के दशक में नगाओं को आतंकवादियों के रूप में देखा. हमने भिंडरावाले के समय सिखों को आतताइयों के रूप में देखा. अब हम कश्मीरियों को आतताइयों के रूप में देखते हैं. असल में 9/11 के बाद तमाम मुस्लिम कट्टरपंथी समूहों को आतंकवादियों की तरह देखा जाने लगा. हम इतने भोले हैं कि हमें लगता है यदि पाकिस्तान घुसपैठियों को भेजना बंद कर दे तो आतंकवाद खत्म हो जाएगा. यह सच्चाई से कोसों दूर है. भारत में आतंकवाद घर में ही पनपा है और यह तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि हमने कुंठा और असंतोष को पनपने के लिए एकदम सही माहौल बना दिया. आतंकवाद को रोकने या इसकी रफ्तार धीमी करने के लिए हमें सबसे पहले ज्यादा न्यायी, ज्यादा समावेशी भारत का निर्माण करना होगा. हमें इस बात को भी मानना होगा कि आतंकवाद का किसी खास धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. पूरी दुनिया के लोग- राजनेता, विचारक, धर्र्माध, कट्टरपंथी, अलगाववादी और अपराधी इसे आसान औजार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. तो फिर समाधान क्या है? क्या आतंकवादियों को खुला छोड़ दें? बिलकुल नहीं. इसका अल्पकालीन समाधान सतर्क और सजग रहने और संदिग्धों की धर-पकड़ में है. इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कानून-व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियां किसी किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं और बिल्कुल निष्पक्ष हैं. न्याय में जरा-सी चूक समूचे समुदाय को अलग-थलग कर सकती है, जैसा हम देख चुके हैं. इसके नतीजे भारत की एकता और बेहतरी के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकते हैं. मीडिया भी अहम भूमिका निभाता है. वह अक्सर जांच-पड़ताल पर इस कदर दबाव डालता है कि कानून-व्यवस्था से जुड़े लोग जल्द कोई समाधान तलाश लेते हैं, जो तब बेअसर हो जाता है जब इन मुकदमों का ट्रायल होता है. असल में, आतंकवाद शब्द ही थोड़ा असंगत है. हमारे स्वाधीनता संग्राम के कई हीरो भी क्रांतिकारी थे. भगत सिंह से लेकर खुदीराम बोस और श्री अरविंदो तक सभी का यह मानना था कि क्रूर, निर्मम और बेपरवाह औपनिवेशिक व्यवस्था से न्याय पाने का सशस्त्र संघर्ष ही एकमात्र जरिया है. और भले ही न्याय की इस लड़ाई में उन्होंने कभी मासूम लोगों को निशाना न बनाया हो, जैसा आज के आतंकवादी करते हैं, लेकिन वे भी सत्ता के खिलाफ संघर्ष के लिए हिंसा का रास्ता अपनाना बुरा नहीं समझते थे.
हिंसा की राह पर चलने वाले आज के कई युवाओं के लिए सत्ता-व्यवस्था अभी भी वैसी ही क्रूर, बेपरवाह और निर्मम है, जैसी ब्रिटिशकाल में थी. यह आज भी गरीब और हाशिए पर पड़े लोगों को नजरअंदाज करती है और कभी कभार प्रतीकात्मक रूप से उनकी भलाई करने के अलावा उनकी जिंदगी आसान बनाने के लिए कुछ नहीं करती. इसके अलावा यह हमेशा अमीरों और सुविधा-संपन्न लोगों के पक्ष में होती है. जहां गरीब लगातार झुग्गियों में जीने को विवश हैं, वहीं भारत में धनकुबेर दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रहे हैं. भले ही वे मायावती, लालू और मुलायम सिंह जैसी शख्सियतों को सत्ता में जमे हुए देखते हों, लेकिन वे जानते हैं कि इसका यह मतलब नहीं है कि दलित और पिछड़े नए भारत का एक हिस्सा हैं. खैरलांजी जैसी घटनाएं आज भी होती हैं. गुजरात दंगों के दौरान एहसान जाफरी को निर्मम तरीके से मार दिया गया. हमने देखा कि उड़ीसा के ईसाई आदिवासियों को पिछले कुछ महीनों में किस तरह आतंकित किया गया. उनके घरों और चर्च को आग के हवाले कर दिया गया. उनके पादरियों का मारा-पीटा गया, ननों के साथ जोर-जबरदस्ती की गई. लेकिन सरकार आंख मूंदे बैठी रही. इसके परिणामस्वरूप ईसाई-विरोधी हिंसा फैल गई. धर्मांतरण तो महज एक बहाना है. असली मकसद तो आदिवासियों की जमीन और संपत्ति हड़पना और अल्पसंख्यकों को आतंकित रखना है, ताकि चुनाव के समय उनको राजनीतिक रूप से भरमाया जा सके. दूसरी ओर आरक्षण नीति ने समाज के कमजोर वर्गों के आत्मविश्वास को खोखला कर दिया है. आरक्षण से कभी गुणवत्ता नहीं मिल सकती. इसके उलट इसने हमारे समाज के मध्य पसरी खाई को और चौड़ा कर दिया है. कोई भी स्वाभिमानी समुदाय दूसरों की मदद नहीं चाहता. ये लोग सिर्फ समान शर्तो पर शिक्षा, न्याय और रोजगार तक अपनी पहुंच बढ़ाना चाहते हैं. ऐसा पंजाब में हुआ. ऐसा असम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड में हुआ. यह कश्मीर में हो रहा है. हमें आतंक को भड़काने के लिए विदेशी मुजाहिदीन की जरूरत नहीं है. हम खुद ही इस दिशा में बेहतर काम कर रहे हैं. कश्मीर की स्याह राजनीति ने सत्ता में बैठे सभी लोगों को राज्य और यहां की बदनसीब जनता को लूटते देखा है जबकि दिल्ली को इसकी कोई सुध नहीं है. ईसाई नए शिकार हैं. वे खुद पर हुए हमलों के खिलाफ न्याय पाने के लिए उड़ीसा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और यहां तक कि दिल्ली में दर-दर भटके, लेकिन किसी ने इसमें हस्तक्षेप नहीं किया. कोई भी आईएसआई या हूजी या सिमी भारत को आतंकित नहीं कर सकता यदि हम एक राष्ट्र के तौर पर आपसी विश्वास कायम करते हुए एक साथ रहें. ऐसा नहीं हो रहा है. जहां एक भारत विकसित और समृद्ध हो रहा है, दूसरा भारत झुग्गियों और शरणार्थी शिविरों में भयाक्रांत है, जो नहीं जानता कि उन पर अगला कहर कौन ढाएगा. जिस समावेशी समाज का सपना हमने कभी देखा था, उसे आज राजनीतिक, धार्मिक और आपराधिक हर तरह के शक्तिशाली समूहों द्वारा छिन्न-भिन्न किया जा रहा है. आतंकवाद को खत्म करने के लिए हमारे भीतर इन ठगों की निंदा करने का साहस होना चाहिए. विभाजन की यादें कबकी धुंधली हो चुकी हैं. युवा भारतीयों पर नफरत का कोई बोझ नहीं है. उनमें से कुछ लोग जो बोझ लेकर चल रहे हैं, वह हताशा का बोझ है. हम यूं ही सहज ढंग से उन्हें आतंकवादी नहीं कह सकते. भारतीय राष्ट्र के खिलाफ उनका गुस्सा, उनकी हताशा उन्हें चोट पहुंचा रही है. वे सोचते हैं कि उन्हें यहां का नहीं माना जा रहा है. यही उनका विषाद, उनका गुस्सा है. यद्यपि उन्हें साथ लेकर चलने की बजाय हम उन्हें अपराधी बना रहे हैं. कानून-व्यवस्था बरकरार रखना अच्छी बात है लेकिन कभी-कभार इससे भी परिस्थितियां बिगड़ सकती हैं। साभार रविवार डॉट कॉम

1 टिप्पणी:

Satyajeetprakash ने कहा…

लेख को पढ़ने के बाद लगा
-- लेखक को कानून-व्यवस्था और प्रशासन में भरोसा नहीं है.
-- लेखक शायद कंधमाल की हकीकत नहीं जानता है, उसे यह जानकारी नहीं होगी कि वहां इसाईयों की आबादी साठ प्रतिशत सलाना बढ़ी है जबकि आदिवासियों की महज दस प्रतिशत.
-- लेखक ने लक्ष्मणानंद सरस्वती के योगदान का नजरअंदाज किया.
--लेखक गरीब-अमीर की बात करता है, लेकिन उसे यह जानना चाहिए कि हाल ही पकड़े गए संदिग्घ आतंकवादियों में ज्यादा उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छे रोजगार युक्त है.

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