30 नवंबर 2008

आओ नम आँखों से ही सही लेकिन कुछ प्रश्न तो पूछ ही ले....

ऋषि कुमार सिंह
पिछले तीन दिन देश के लिए अत्यंत ही कष्टकारी रहे हैं....इस तरह की घटनाओं की हम हर तरह से निंदा करते हैं....मारे गए परिवारों के साथ पूरी सहानुभूति रखते हैं.......पूरा देश आतंकी घटनाओं की चपेट में है....लेकिन आतंकवाद से निपटने के क्या रास्ते हैं...खास कर जब आतंकी हमले अपने चरम पर हों.....ऐसे में अमेरिका और इजराइल के तरीके को अपनाने की बातें जोर-शोर से चल रही है....लेकिन यह कहां तक सही है कि आतंक को आतंक के जरिए रोका जाए...इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका और इजरायल ऐसे राष्ट्र हैं,जिन्होंने विश्व स्तर पर आतंकवाद को जन्म देने वाली परिस्थियां पैदा करने में भूमिका निभाई हैं........जबकि भारत के संदर्भ में आतंकी हिंसा को लेकर कई और जटिलताएं हैं जो उसे अमेरिका और इजराएल के आतंकवाद से अलग कर देती है..........भारत में एक ही समय में पुलिसिया हिंसा...नक्सली हिंसा है तो दंगों के जरिए फैलाया गया आतंक भी है...इसके अलावा वादा खिलाफी से उपजे असंतोष के बाद पनपी हिंसा भी है.....इन हालातों के बीच विदेशी सहायता पाने वाले दहशतगर्दों से फैलाया आतंकवाद रोज दर रोज जानें ले रहा है.....मुम्बई आतंकी घटना से जिस तरह की खबरें आई उससे साफ पता चलता है कि भारत की सुरक्षा व्यवस्था सांप गुजरने के बाद लकीर पीटने और सुरक्षा का दावा करने के नाम पर निर्दोषों को गिरफ्तार के अलावा कुछ नहीं कर सकती है....जिस तरह का सुनियोजित हमला था,उससे यह तो तय है कि इसकी तैयारी कई महीनों में की गई होगी...किसी भी आतंकी घटना के बाद 24 से 48 घण्टे के भीतर मास्टर माइंट का पता लगाने वाली एंजेसियां क्या कर रही थी....उस समय हमारे देश की नौसेना क्या कर रही थी...क्या कर रहा था कस्टम विभाग....क्या कर रही थी सतर्कता एंजेसियां....कोस्टल गार्ड क्या कर रहे थे.......यह ठीक वैसी ही आपदा है जैसे कारगिल...कारगिल की कमियां सबके सामने हैं....एक बात और कि कई मंचों से देश के रक्षा मंत्री समुद्र के रास्ते आतंकी हमले की बात कह चुके थे...लेकिन इन भाषणों के बावजूद क्या कदम उठाए गए...यह पूछने वाला कोई नहीं है.....यह दुखद है लेकिन सच है कि हमारे पास देश को न्याय पूर्ण और सक्षम राष्ट्र बनाने की कोई योजना नहीं है....वरना इस तरह की लापरवाही तो न ही बरती जा रही होती........यहीं से एक और बात सामने आ जाती है कि आजादी को जिस जज्बे से हमने पाया क्या वह जज्बा समाप्त हो चुका है....आखिर नैतिकता के लिहाज से आदर्शवादी राजनीति को महज 60 साल में ऐसा क्या हो गया कि आरोपियों के राजनेता बनने की मुहीम चल पडी ....और देखते ही देखते राजनीति अपराधियों और नासमझों के हाथ में चली गई........व्यवस्था, जनता के शासन का टूल्स बनने के बजाय जनता पर शासन करने लगी....यहीं पर राजनेताओं में जनता के प्रति जवाबदेही को लेकर बेफिक्री आ गई......इसके साथ ही संसदीय राजनीति की सफलता और असफलता की बात उठने लगी....जो बहुत कुछ पक्ष,विपक्ष और जनता की सक्षमता पर निर्भर करती है....भारतीय संसदीय राजनीति का सबसे खराब दौर कहा जा सकता है,जहां मुद्दों और नीतियों को लेकर पक्ष और विपक्ष का अंतर समाप्त हो चुका है...जिसका सीधा असर जवाबदेही पर आता है..... मुम्बई आतंकी आपदा से यह बात तो साफ है कि इससे वर्तमानजीवी राजनीति में राजनीतिक लाभ हानि के नजरिये इस्तेमाल कर लिया जाएगा....लेकिन जनता के बीच धीरे धीरे बैठ रहे डर का हिसाब कौन देगा....

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