09 फ़रवरी 2009

चीनी मिल का कड़वापन

- राजीव यादव
तो क्या चीनी मिल बेच दी जाएगी ?सठियांव चीनी मिल की दीवारों और गेट के पास बैठे-खड़े मज़दूरों के दिन की शुरुवात इसी वाक्य से होती है. वे हर रोज़ सुबह सात बजे इस उम्मीद में वहां आते हैं कि शायद आज का सूरज उनके लिए कोई अच्छी ख़बर लेकर उगा होगा. लेकिन बंद पड़ी चीनी मील की थोड़ी-सी कड़ुवाहट हर रोज़ उनकी ज़िंदगी में घुल जाती है और हर शाम उन्हें निराश लौटना पड़ता है.
यह 1974 की बात है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में जब द सहकारी चीनी मिल, सठियांव खुली तो लोगों को उम्मीद थी कि यह चीनी मिल लोगों के जीवन में भी मिठास घोल देगी. हुआ भी ऐसा ही. लेकिन जिस मिल के सहारे लोगों ने अपनी जिंदगी गुजारने का सपना देखा था, उस ने 34 साल में ही दम तोड़ दिया. पिछले दो सालों से आजमगढ़ जिले के एक मात्र औद्योगिक प्रतिष्ठान ' दि सहकारी चीनी मिल सठियाँव' की मशीनें बंद पड़ी हैं. बनकट के रामनिहोर बताते हैं- ''बाबू उख के बेला में काम मिले क कमी ना रहत रही, भले जाड़ा-पाला में रात दिन जागे के पड़त रहा पर कटाई, छोलाई, लदाई अउर मिल तक पहँचाए में कमाई होइ जात रही.''
पड़ोस के गाँव बैठौली की जुगरी मिल में सफाईकर्मी थी. लेकिन मिल बंद होने के बाद से उसके सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है. अपना दुखड़ा रोते हुए वे कहती हैं- ''साहब हमरे पास कौनों जमीन ना बा, मिल के सहारे दू रोटी मिल जात रही पर अब उहो के कौनो आसा ना बा, हम गरीबन के सुने वाला कोइ ना बा.'' राष्टीय-अन्तराष्टीय बहसों में रहने वाला आजमगढ़ वर्ष 2005 की आर्थिक जनगणना के अनुसार प्रदेश में 41वें पायदान पर है जो मिल बन्द होने के बाद और गर्त में चला गया है.6 दिसम्बर 07 को जब मिल के कर्मचारियों और गन्ना किसानों ने सठियाँव बाजार को जाम कर सब कुछ ठप्प कर दिया तो इसी क्षेत्र से विधानसभा पहुँचे लघु उद्योग राज्य मंत्री चन्द्रदेव राम यादव करैली ने तीन दिनों के भीतर मिल चलवाने का वादा किया था. इस बात को साल गुजर गये लेकिन मिल की अघोषित तालाबन्दी कब खत्म होग, इसका जवाब खुद लघु उद्योग के मंत्री के पास नहीं है. गौरतलब है कि चन्द्रदेव राम यादव ने चीनी मिल सुचारु रुप से चलवाने के मुद्दे पर ही पिछला विधानसभा चुनाव लड़ा था. वरिष्ठ समाजवादी नेता तेज बहादुर यादव बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि तमाम आन्दोलनों के बाद 1974 में जब मिल बनी तो हमलोगों में बड़ी उम्मीद जगी. इसके खुलने के बाद ऐसा लगा था कि हमारा जिला भी सहकारिता के औद्योगिक इतिहास में सुनहरा अध्याय लिखेगा. पर खुशहाली और सम्पन्नता का यह सफर महज 34 सालों में टूट जाएगा, ऐसा किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था.
पिछली सरकार में एक करोड़ रुपए वेतन भत्ते के लिए और सवा करोड़ रुपए रखरखाव के लिए आवंटित कराया गया था. लेकिन इस सरकार ने पिछले साल जो 35 लाख रुपये आये थे, उसे भी मंगवा लिया.
गौरतलब है कि मिल को चलाने की आधारभूत संरचना में गन्ना क्षेत्र की अहम भूमिका होती है जो इस मिल के आस-पास की मिलों की तुलना में सबसे अधिक है।लेकिन पहले समाजवादी पार्टी और बाद में बसपा की सरकार ने इस मिल को बेचने की लगातार कोशिश की. बसपा सरकार ने तो एक साथ राज्य के 28 चीनी मिलों को बेचने का निर्णय लेकर पूरे चीनी उद्योग को ही निजी कंपनियों को सौंपने की अघोषित योजना पर अमल शुरु कर दिया.सहकारिता क्षेत्र के संवर्धन में सहायता के लिए 1995 में संचालक मण्डल का गठन किया गया था. इसके उपसभापति आनन्द कुमार उपाध्याय मिल की दुर्दशा के लिए प्रदेश सरकार को जिम्मेवार बताते हुए कहते हैं- " प्लांट और भवन जर्जर नहीं है फिर भी इसे जर्जर बताकर सरकार निजीकरण करने की फिराक में बैठी है. हमने मिल को चलवाने के लिए पिछली सरकार में एक करोड़ रुपए वेतन भत्ते के लिए और सवा करोड़ रुपए रखरखाव के लिए आवंटित कराया था. पर वर्तमान सरकार ने पिछले साल जो 35 लाख रुपये रखरखाव के लिए आया था, उसे भी वापस मंगवा लिया."सीपीआई नेता हामिद अली कहते हैं कि जब सरकार प्रदेश चीनी मिलों के निजीकरण पर उतारु है तो वह क्यों चाहेगी कि मिल चले. इस निजीकरण के गोरखधंधे में जिले के कई बसपा सरकार के मंत्री भी शामिल हैं जो चाहते हैं कि जल्द से जल्द मिल का निजीकरण हो जाए और वे उसमें शेयर होल्डर बन जाएं. बूढ़नपुर और सगड़ी क्षेत्र जिले के सर्वाधिक गन्ना उत्पादक क्षेत्र हैं. यहाँ के किसान बाढ़ की मार पहले से ही सह रहे थे पर चीनी मिल बन्द होने के बाद उनकी कमर ही टूट गयी. यह विडंबना ही कहेंगे कि लघुउद्योग राज्य मंत्री खुद अपने ही क्षेत्र के उद्योगों को नहीं बचा पा रहे हैं.सगड़ी क्षेत्र के सर्वाधिक गन्ना उत्पादक भुवनेश्वर सिंह गन्ने की खेती को अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना बताते हुए कहते हैं कि मिल के बन्द होने के बाद फसल औने-पौने दाम पर बेचनी पड़ रही है.

दूसरे जिले कि चीनी मिल में गन्ना भेजना सबके बस की बात नहीं है. मिल बन्द हो जाने से बिचौलियों की सक्रियता काफी बढ़ गयी है. बिचौलिये गन्ना किसानों की मजबूरी का लाभ उठा कर फसल औने-पौने दाम पर खरीद रहे हैं.
चीनी मिल में काम करने वाले अमरनाथ कहते हैं -" हम रोज सुबह सात बजे मिल आ जाते हैं और देर शाम हाजिरी बना वापस लौट जाते हैं. यहाँ कर्मचारियों का बकाया वेतन नहीं दिया जा रहा है पर ठेकेदारों का भुगतान कमीशन लेके किया जा रहा है."खुझिया गाँव के राजेन्द्र बताते हैं कि गन्ना ही एक मात्र ऐसी फसल है जिसमें पैसा हाथ लगता है. शादी-व्याह जैसे लम्बे खर्चों में जिससे हमारी काफी मदद हो जाती थी.सामाजिक संगठन कारवां के विनोद यादव बताते हैं कि मिल बन्द होने के अंतिम सत्र में 6 लाख क्विंटल गन्ने की पेराई और 35 हजार क्विंटल चीनी का उत्पादन हुआ था. ऐसे में मिल को जो घाटा हो रहा है वह मिल के नीति-नियंताओं द्वारा अनउत्पादक जगहों पर फिजूलखर्ची और मिल के अधिकारियों के ठेकेदारी प्रथा में लिप्त होने के कारण हो रहा है. मिल क्षेत्र का गन्ना प्राइवेट मिलों को बार-बार आवंटित करके खुले रुप से मिल को नुकसान पहुँचाया जाता रहा है और उत्तर प्रदेश सहकारी चीनी मिल की उदासीनता के चलते मिल के तकरीबन साढे पाँच सौ कर्मचारियों के चूल्हे ठण्डे पड़ गए हैं.चीनी मिल मजदूर संघ के पूर्व अध्यक्ष श्याम नारायण सिंह बताते हैं कि कर्मचारियों का करोड़ो रुपए वेतन और भविष्यनिधि अधर में लटका हुआ है. जो भी सरकारें आयीं, किसी ने भी मिल को सुचारु रुप से चलाने की कोई कवायद नहीं की. यह पूछने पर कि मिल को कितने धन की जरुरत है तो वे कहते हैं- " मिल को चलवाने के लिए तीन से पाँच करोड़ रुपए और इसे सुव्यवस्थित करने के लिए पन्द्रह से बीस करोड़ रुपए की जरुरत है."
वरिष्ठ समाजवादी नेता तहसीलदार पाण्डे कहते हैं " जब प्रदेश की मुख्यमंत्री अपने जन्मदिन पर करोड़ो रुपए खर्च करेंगी तो जनता को तो भूखे मरना ही पड़ेगा. सर्वजन हिताय वाली सरकार में यह मिल मात्र कुछ करोड़ रुपए के चलते बन्द हालत में है, इस सरकार का असली हित निजीकरण और धन वसूली में है. इस सरकार के लघुउद्योग राज्य मंत्री जो इसी जिले के हैं उन्होंने फर्जी तरीके से जमीन लिखवाने का 'सर्वजन अभियान' चला रखा है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इस मिल को 1974 में स्थापित किया था. इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और उसके वरिष्ठ नेता मिल के निजीकरण की बात कर रहे हैं." प्रदेश कांग्रेस कमेटी सदस्य लालसा राय कहते हैं कि अगर सरकार मिल चलाने में समर्थ नहीं है तो उसे मिल को निजी हाथों में सौप देना चाहिए. वे साफ तौर पर कहते हैं कि सरकारी नियंत्रण में मिल को घाटे से उबारना मुश्किल है " क्योंकि जमाना बदल गया है."हालांकि इन तमाम बहसों के बीच किसान संघर्ष समिति हर हाल में मिल को चलवाने और निजीकरण न होने देने के लिए आंदोलित है. पिछले साल अक्टूबर में मिल के कर्मचारियों ने प्रधान प्रबंधक कार्यालय के अधिकारियों को जब बंधक बनाया तो प्रबंधक ने दीपावली का बोनस देकर तीन दिनों के भीतर वेतन देने का आश्वासन दिया था.
ये और बात है कि उसके बाद प्रबंधन ने पलटकर कर्मचारियों की तरफ नहीं देखा. लेकिन कर्मचारियों ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है. हर सुबह इसी उम्मीद में वे चीनी मिल तक आते हैं, शायद कोई सुबह उनकी अपनी हो.

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