27 अप्रैल 2009

चुनाव में नक्सली हिंसा !

केवल माओवादियों पर ही उंगली क्यों?

कविता कृष्णन,
राष्ट्रीय सचिव. एपवा

हिंसा सिर्फ माओवादी ही कर रहे हैं, यह कहना गलत है। उत्तर प्रदेश में हाल ही में एक दलित उम्मीदवार की हत्या किसने की? जाहिर है, बूजुüआ पाटिüयां भी साफ-सुथरी नहीं हैं। यह ठीक है कि पप्पू यादव जैसों को इस बार चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन पप्पू यादव हों या शहाबुद्दीन, ये सभी चुनाव प्रचार तो कर ही रहे हैं। दूसरे उम्मीदवारों को धमका ही रहे हैं। इसलिए हिंसा के लिए अकेले माओवादियों को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का असली चेहरा नहीं है। माकपा भी पश्चिम बंगाल और केरल में एक हाथ में बंदू्क और दूसरे हाथ में वोट रखती है। वह तो खुद बूजुüआ पाटिüयों के साथ मिलकर कभी किसी दल को सेक्यूलर और किसी को बूजुüआ कहती रहती है।

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इस बार चुनाव में माओवादी ज्यादा हिंसा फैला रहे हैं अथवा कम, यह तय कर पाना मुश्किल है। जहां तक उनके भारतीय संविधान में विश्वास कायम होने या चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने की बात है, तो वे चुनाव में सक्रिय तो हैं ही। हां, वे अपने तरीक से सक्रिय हैं। यानी वे चुनाव का बायकॉट करने की बात कर रहे हैं। लेकिन असलियत में वे लगभग सभी जगह सत्तारूढ़ दलों की मदद ही कर रहे हैं। मसलन, चुनाव के पहले चरण में माओवादियों ने झारखंड में कांग्रेस की मदद की। लातेहार की घटना गवाह है कि माओवादियों ने कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए बूथ कैप्चरिंग भी की। माओवादी चुनाव नहीं लड़ते, लेकिन बूथ कैप्चरिंग कराते हैं!

माओवादियों द्वारा मतदान के बहिष्कार का यह मतलब नहीं है कि उन्होंने आम जनता को पर्याप्त रूप से जागरूक कर दिया है और नतीजतन जनता चुनाव का बॉयकॉट कर रही है। ऐसा तो है नहीं। वास्तव में माओवादी सत्तारूढ़ पार्टी की मदद ही कर रहे हैं। चुनाव का बायकॉट करने के नाम पर वे लोगों को धमका रहे हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ वोट मत डालो। उत्तर प्रदेश के राबट्र्सगंज में भाकपा (माले) भी चुनाव बायकॉट कर रही है। लेकिन हमारे तौर-तरीेके अलग हैं। वहां आरक्षित सीट पर हमारे उम्मीदवार का नामांकन इसलिए रद्द कर दिया गया कि नामांकन पत्र में दो प्रस्तावकों ने हस्ताक्षर की जगह अंगूठे का निशान लगा दिया था। भाकपा (माले) ने इसके विरोध में आम जनता के साथ `अंगूठा लगाओ-वोट का बायकॉट करों अभियान चलाया। हम जनता को जागरूक कर रहे हैं। लेकिन माओवादी तो सत्तारूढ़ दलों के साथ हैं।

साभार अमर उजाला

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