29 अप्रैल 2009

मध्यवर्ग का चुनाव

ऋषि कुमार सिंह

लोकतंत्र में चुनाव हर हाल में खास होता है। ऐसा इस बार के लोक सभा के पांच साला चुनावी जलसे में भी देखा जा सकता है। पहली बार हैरान कर देने की हद तक वोट डालने की सिफारिशें हो रही हैं। इस काम में राजनीतिक दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों की सक्रियता तो है ही इसके साथ साथ सरकारी,गैर सरकारी और निजी क्षेत्र की शक्तियां भी तेजी से सक्रिय हैं। सहभागिता के लिहाज से ये सभी शक्तियां अपनी छिपी हुई भूमिका को छोड़कर बहुत कुछ खुलकर कहने लगी हैं। इस चुनाव में पप्पू वोट नहीं देता है,जागो रे,एक वोट करे चोट, वोट जरूर दीजिए, आपका वोट आपकी ताकत है,आपका वोट बहुमूल्य है, सही उम्मीदवार चुनें, य्योर वोट काउंट, वी मस्ट वोट,वोट जरूर दें जैसे विज्ञापनों की बाढ़ और अभिनेताओं की अपील देखी जा सकती है। इनका मकसद समझना जरूरी हो जाता है। विज्ञापन जारीकर्ताओं में अधिकांश गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं। इन विज्ञापनजारी कर्ताओं का स्पष्ट मकसद खुद को जनता और लोकतंत्र का शुभचिंतक साबित करते हुए उससे सहानुभूति पाना है। इस सहानुभूति के सहारे अपने कद और व्यापार को नई ऊंचाई देने की मंशा संजोई जा रही है। यह ठीक वैसा ही प्रयास है जैसा कि कार्पोरेट जगत सामाजिक दायित्व के नाम पर जनता के बीच अपने ब्रांड को लेकर सकारात्मक माहौल बनाने के लिए करता है। मंदी के इस दौर में सबसे ज्यादा छंटनी और बिना नोटिस दिए लोगों को नौकरी से निकालने का काम कार्पोरेट जगत में बड़े पैमाने पर हो रहा है। श्रम कानूनों का सबसे ज्यादा उल्लंघन इसी कार्पोरेट जगत में होने के बावजूद लोकतंत्र का ढिढोरा पीट कर अपनी कमियों को छिपाने की कोशिश कर रहा है। वे लोग देश में लोकतंत्र की वकालत कर रहे हैं,जो खुद अपने स्तर पर तानाशाही नीतियों को अपनाते हैं। इसके अलावा इस तरह के प्रचार और अपील के कुछ अन्य पहलू भी हैं। इस बार जिसको पोलिंग बूथ तक लाने के लिए सारे उपाय हो रहे हैं,वह कोई और नहीं बल्कि शहरी मध्यम वर्ग है। यहां पर पप्पूनुमा युवाओं का जो खाका खींचा जा रहा है,उसका हाव-भाव शहरी मध्य वर्ग की जीवनशैली से पूरी तरह मेल खाता है। लैपटॉप,मोबाइल, मेट्रो, पिकनिक यह सब चीजें मध्यमवर्ग की आदतें हैं। इसके साथ इस बार के चुनाव प्रचार को हाईटेक बनाने की कोई कसर राजनीतिक पार्टियों ने नहीं छोड़ी है। बेबसाइटों पर बडे़ पैमाने पर विज्ञापन जारी किए गये हैं। ज्यादातर राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने अपनी बेवसाइट बनाई हुई है। तथ्य है कि भारत में इंटरनेट की पहुंच मध्यम वर्ग और युवाओं तक ही है। इसमें शहरी क्षेत्र की पहुंच ज्यादा है।
गौरतलब है कि अगर यह वर्ग पोलिंग बूथ तक पहुंचता है,तो किसे वोट देगा यह कई मायनो में पेचीदा मसला हो जाता है। भारत के मध्यवर्ग में साम्प्रदायिकता को प्रश्रय देने का गुण मौजूद है। इस बात का सबूत है कि भारत में मध्यम वर्ग के विस्तार के साथ ही साम्प्रदायिक राजनीति को परवान चढ़ने का मौका मिलता है। यानी उदारीकरण के बाद महज आठ साल के भीतर मिथकों में जीने वाली भाजपा जैसी पार्टियां केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो जाती हैं। जबकि मौजूदगी के लिहाज से यह दशकों पुरानी हैं। भारत का मध्यम वर्ग प्रतिक्रियावादी भी है। जिसका अनुभव मुम्बई आतंकी हादसे के बाद सड़कों पर उतरे हुजूम में किया जा सकता है। पहली बार लाखों लोग सड़क पर मोमबत्तियां लिए खड़े दिखाई दिए। जबकि देश में इससे बड़ी-बड़ी वारदातें हुई तो इसने कभी भी बाहर बाहर आकर इस तरह का प्रदर्शन नहीं किया है। जिस समय मुम्बई आतंकी हादसा हुआ था उसी दौरान उड़ीसा के कंधमाल जैसी घटना हो रही थी। लेकिन उसके विरोध में ऐसा कोई आयोजन नहीं हुआ था। ध्यान रहे की 15 वीं लोक सभा के चुनाव से पहले देश में ऐसा बहुत कुछ हुआ है,जिससे शहरी मध्य वर्ग और उच्च वर्ग काफी आहत है और गुस्से में भी है। कारण कि ऐसी घटनाओं का सीधा असर इनकी सुविधाजीविता पर पड़ा है। मंदी की मार ने सीधा असर शहरी जीवन शैली पर डाला है,तो कार्पोरेट जगत से सम्बद्ध उच्च वर्ग की मुनाफाखोरी में बट्टा लगा है। ज्यादातर नौकरियां खोने वाले शहरों में रचते बसने वाले लोग हैं। सरकार निकम्मी है, प्रधानमंत्री कमजोर है जैसे नारे इसी मध्य वर्ग और उच्च वर्ग को आकर्षित करने की कोशिश है। तभी तो मुख्य विपक्षी दल तीन लाख तक की आय को कर मुक्त करने, स्विस बैंक में जमा काले धन की वापसी और मजबूत नेता,निर्णायक सरकार को राजनीतिक मुद्दा बनाए हुए है। सत्तासीन कांग्रेस पार्टी अपने पांच साल के कुछ बड़े कामों जैसे किसानों की कर्ज माफी और परमाणु डील जैसे बड़े निर्णयों को लेकर सामने नहीं आ रही है। क्योंकि इससे कर्ज माफी से शहरी वर्ग का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और परमाणु संधि से जिस खुशहाली के आकर्षण को पैदा होने की उम्मीद जताई गई थी,उसे मंदी ने धो दिया है। इसलिए कांग्रेस भी इसी मध्य वर्ग के अनुकूल देश की खुशहाली का बखान कर रही है। सड़कों के किनारे जुमलों वाला एक शब्दी विज्ञापन यह विश्वास दिलाने की कोशिश है कि हमने बेहतर काम किया है। घरेलू हिंसा कानून को लेकर जो विज्ञापन बनाया है उसमें भले ही ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली महिला की फोटो लगाई गई है,लेकिन यह सबको पता कि इसकी पहुंच कुछ हद तक शहरों में ही है। अन्य सभी पार्टियों ने अपने अपने स्तर पर अपने-अपने वोट बैंक के हितों के आधार पर चुनावी मु्द्दे तय किए हैं,जिसका कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है।
असल कवायद शहरी मध्यवर्ग को पोलिंग बूथ तक पहुंचाने की है। अगर यह वर्ग पोलिंग बूथ तक पहुंच जाए तो प्रतिक्रिया और निराशा के चलते मौजूदा सत्तासीन दल के खिलाफ मतदान करेगा। जिसका लाभ भाजपा जैसी मिथकों में जीने वाली पार्टियों को मिलेगा। अब बात उठती है कि निजी क्षेत्र क्यों इन्हें पोलिंग बूथ पर लाने की कोशिश कर रहा है। तो इसका सीधा सा जवाब है कि किसानों की कर्ज माफी और ताज हादसे जैसी घटनाओं के बाद पूंजी वर्ग को कांग्रेसी शासन में अपनी हैसियत बनती नजर नहीं आ रही है। इसका सबूत है कि भारत के बडे़ पूंजीपतियों ने मोदी को अपना अगला प्रधानमंत्री चुनने की घोषणा कर दी है। वैसे जिस तरह से गुजरात में इन पूंजीपतियों ने निवेश किया है उससे भी यह साफ है कि ये लोग गुजरात जैसे शासन के पक्षधर हैं। यही कारण है कि इस बार निजी क्षेत्र काफी सक्रिया दिखाई दे रहा है।
जहां तक सरकारी विज्ञापन में पप्पू न बनने देने की सलाह है,वह भी अपने बचाव के साथ-साथ न्यायिक सक्रियता की तर्ज पर अपनी सत्ता के विस्तार में है। चुनाव आयोग अपने पूरे काम काज के दौरान भेदभावपूर्ण और कमजोर के हित को नुकसान पहुंचाने का काम करता है। जिसके दो उदाहरण उत्तर प्रदेश से हैं। जहां जौनपुर से लोकसभा प्रत्याशी की कई शिकायतों के बाद उसे सुरक्षा नहीं मुहैय्या कराई गई और अन्त में उसकी हत्या हो गई। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के राबर्टसगंज जिले में अंगूठे का निशान प्रमाणित न होने के आधार पर 13 दलित और आदिवासी मतदाताओं के नामांकन खारिज कर दिए गए। अनपढ़ बनाए रखने की सरकारी योजना इससे बेहतर परिणाम क्या हो सकता है। अपनी इन्हीं सब कमजोरियों को छिपाने के लिए भारतीय चुनाव आयोग पप्पू को वोट दिलवाने की समाजसेवा करने में लगा है। संसदीय राजनीति में लोगों को पोलिंग बूथ तक लाने का काम मुख्यरूप से राजनीतिक दलों का था,लेकिन लोगों को पप्पू बनने से रोकने के लिए चुनाव आयोग ने जो कदम उठाया है उससे उसे भी एक राजनीतिक दल के बतौर माना जाना चाहिए। कुल मिलाकर विज्ञापनों के जरिए गढ़े गए पप्पुओं को फैशन के बतौर राजनीति के दायरे में लाने के पीछे का मकसद जाने और अनजाने में उसका समर्थन है,जो सत्ता में काबिज नहीं है।
यानि इस बार का चुनाव राजनीतिक दल कम देश की बदली हुई परिस्थियों गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोग ज्यादा लड़ रहे हैं। इसमें फिल्मी सितारों से लेकर कारपोरेट जगत इस नए तरीके के फैशनेबल जलसे का साझीदार है। यह यर्थाथ में उस राजनीति के लिए घातक है जिससे देश में गैर शोषक और जन हितैषी प्रक्रियाओं को मजबूती मिलती है।

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