20 अप्रैल 2009

जंगल नहीं रहेंगे

विजय प्रताप

दक्षिण पश्चिम राजस्थान में कोटा शहर से 50 किलोमीटर दूर राश्ट्ीय राजमार्ग 12 से शुरू होता है दरा अभयारण्य का क्षेत्र। 274 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में, दो समानांतर पहाड़ियों के बीच फैले इस अभयारण्य की लंबाई करीब 80 किलोमीटर है। यह पहाड़ियां मध्यप्रदेश की सीमा तक फैली है। कभी वन्यजीवों से भरा जंगल प्रकृति का खजाना कहा जाता था। 1996 से पहले तक इन पहाड़ियों में कई जगह खनन विभाग ने लाल पत्थरों की लीज दे रखी थी। लेकिन 1996 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यहां की खानों के लीज रद्द कर उन्हें बंद करने के आदेष जारी कर दिए गए। लेकिन आज यहां के जंगल इन आदेषों की कुछ अलग हकीकत बयां करते हैं।
एक छोटे से गांव दरा से शुरू होता यह जंगल कुछ क्षेत्रों में काफी घना है। बरसात के मौसम में पूरा अभयारण्य हरी चादर ओढ़ लेता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि कभी मुख्य सड़क से अंदर घुसने पर ही वन्यजीवों के कोलाहल सुने जा सकते थे। कुछ नहीं तो बंदरों की उछलकूद व चीतल सांभर की आंख मिचोली जरुर देखने को मिल जाती। लेकिन आज इस उम्मीद से जाने वाले लोगों के लिए यह सब कुछ दिवास्वप्न है। वन्यजीवों की आवाज के बजाए उसे टूटते पत्थरों की ठक-ठक और हथौड़ों की चोट ही सुनने को मिल सकती है। सरकारी कागजों में बारह साल पहले बंद कर दी गई खानों से अभी भी पत्थर निकालने का सिलसिला जारी है। यहां से न केवल पत्थर निकाले जाते हैं बल्कि उनका बड़े पैमाने पर व्यापार भी होता है। दरा अभयारण्य में बड़े पैमाने पर अवैध रूप से पत्थरों की खानें चल रही हैं। राश्ट्ीय राजमार्ग 12 को छोड़ जंगल में एक किलोमीटर चलने पर ही 30-40 फीट गहरी खानें नजर आने लगेंगी। हर खान में 8-10 मजदूर पत्थर तोड़ते दिखेंगे। अगर आप सर्तक न रहे तो कभी भी पथराव हो सकता है। क्योंकि इन मजदूरों को इस बात की खास हिदायत होती है, किसी अजनबी को खान तक न आने दे। सुबह को खान में उतरने वाला मजदूर षाम से पहले बाहर नहीं निकलता। बीच-बीच में ठेकेदार आकस्मिक दौरा कर यह जांच करता रहता है कि मजदूर काम कर रहे हैं या नहीं। करीब 12 घंटे पत्थर तोड़ने के बदले मजदूरों को 80-100 रुपए रोजाना की मजदूरी मिलती है। इस तरह की खानें कोटा से लेकर मध्यप्रदेश की सीमा तक फैली हैं।
इन खानों से निकलने वाले लाल पत्थर काफी कीमती होता है। यहां से निकलने वाले एक ट्ाॅली पत्थर की कीमत 7-9 हजार रुपए होती है। यही पत्थर तराशने के बाद बाजार में 20 रुपए प्रतिवर्ग फुट है। पूरे अभयारण्य क्षेत्र से ऐसी सैकड़ों ट्ाॅलियां निकलती हैं। पत्थरों की इस लालच ने आदमी को ऐसा पत्थरदिल बना दिया है कि वह जंगल को खोखला करने पर तुल गया है।
पिछले कुछ सालों से दरा व आस-पास के अन्य अभयारण्य में खनन माफियाओं का अघोषित कब्जा है। इनके डर से वन विभाग के रक्षक भी जंगलों में जाना बंद कर चुके हैं। कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी है जिसमें खनन रोकने गए वनकर्मियों पर पथराव कर उन्हें भगा दिया गया। खनन माफिया अभयारण्य में खनन के बदले वन विभाग के नीचे से लेकर उपर तक के अधिकारियों को मोटी रकम पहुंचाते हैं। दरा के मामले में यहां तैनात वन विभाग के एक क्षेत्रीय वन अधिकारी जयसिंह राठौड़ की भूमिका भी संदिग्ध रही है। क्षेत्रीय पत्रकार व जल बिरादरी से जुड़े बृजेश विजयवर्गीय बताते हैं इस अधिकारी के कार्यकाल में ही दरा अभयारण्य क्षेत्र में अवैध गतिविधियों को बढ़ावा मिला। राजनैतिक रसूख वाले इस अधिकारी की पत्नी हाल के विधानसभा चुनावों में अजमेर के केकड़ी सीट से भाजपा की प्रत्याशी थी। अपने राजनैतिक पहुंच का इस्तेमाल कर यह अधिकारी करीब 20 वर्शों से दरा व आस-पास के रेंजों में तैनात रहा।

जंगल बचाने वाले, जंगल खोद रहे हैं

दरा के जंगलों में चल रही खानों में काम करने वाले वही लोग हैं, जिनके पुरखों का जंगलों से पुराना नाता रहा है। अभयारण्य के आस-पास के गांव में ज्यादातर गुर्जर व भील समुदाय के लोग रहते हैं। गुर्जर जाति मूलरूप से ग्वाल जाति है, जिसका मुख्य पेशा पशुपालन है और भील लोगों के लिए जंगली उपज ही जीवन का आधार है। पिछले एक दषक से इन गांवों में बढ़े राजनैतिक हस्तक्षेप ने लोगों को विकास के नए सपने दिखाए। लेकिन चुनाव खत्म होते ही लोग को हकीकत का एहसास हो जाता। बाद में जब लोगों ने संगठित होकर रोजगार की मांग की तो नेताओं ने उनकी इस आवष्यकता को भी भुनाना षुरू कर दिया। रोजगार मांगने वाले सभी लोगों को नेताओं ने बंद पड़ी खानों में पत्थर तोड़ने के काम में लगा दिया गया और खुद इन खानों के अघोषित मालिक बन बैठे। खनन से जुड़े यहां के गुर्जर समुदाय के लोगों को भाजपा के बागी गुर्जर नेता प्रहलाद गुजंल की राजनैतिक वरदहस्त भी प्राप्त रहा है। जबकि भीलों का कोई ऐसा नेता नहीं उभरा जो उन्हें राजनैतिक संरक्षण प्रदान कर सके। ऐसे में गुर्जर बहुल गांवों के भील समुदाय के लोगों के सामने इन खानों में मजदूरी के सिवा और कोई चारा नहीं बचा। बाद में जब राश्ट्ीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना आई तो इसमें मिलने वाले काम पर भी गुर्जरों ने पहले हक जताना षुरू कर दिया। ऐसे में भील जाति के लोगों को नरेगा में भी काम मिलना मुष्किल हो गया। यही दर्द एक खान मे काम करने वाले मजदूर भैरू लाल के बातों में झलकता है। नरेगा के संबंध में पूछने पर भैरू कहते हैं कि ‘‘ नरेगा में गुर्जरों को काम मिलता है, उनका काम तो पत्थर तोड़ना है।’’
गैर सरकारी संस्था आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के संरक्षक प्रताप लाल मीणा इसे प्रषासन की कमजोरी बताते हैं। वह कहते हैं कि ‘‘सरकार सौ दिन के रोजगार को सही ढंग से लागू नहीं करा पा रही इसलिए लोग जंगलों की खुदाई कर रहे हैं।’’ हकीकत भी कुछ ऐसा ही है। नरेगा के अन्तर्गत लोगों को जितने दिन रोजगार मिलता है उसमें काम करते हैं बाकि दिन जंगल ही उन्हें रोजगार देता है। यहां के सभी लोगों को पता है ‘जंगल खोदना अपराध है’ लेकिन पेट के लिए वह अपराध भी करने को तैयार हैं। खानों में काम करने वाला बच्चा-बच्चा वन विभाग की ‘फ्लाइंग’ ;उड़न दस्ताद्ध को पहचानता हैं और उनसे निपटना ;पथराव कर खदेड देनाद्ध भी अच्छी तरह से जानता है।

राश्ट्ीय अभयारण्य का प्रस्ताव

दरा अभयारण्य के इस काले अध्याय से पहले इसका सुनहरा इतिहास भी रहा है। इसकी सुदंरता और भविश्य में वन्यजीवों के लिए आवष्यकता को देखते हुए वन विभाग ने करीब 20 वर्श पहले 1988 में ही राश्ट्ीय उद्यान बनाने का प्रस्ताव तैयार कर लिया था। इस प्रस्ताव में दरा अभयारण्य के अलावा इससे लगे जवाहर सागर अभयारण्य व राश्ट्ीय चंबल घड़ियाल अभयारण्य के कुछ हिस्से को लेकर करीब 469 वर्गकिलोमीटर क्षेत्रफल में इस उद्यान की कल्पना की गई। इन बीस वर्शों में राज्य में कई सरकारें आई गई। सभी ने उद्यान के नाम पर जमकर राजनीति की। इस दौरान चार बार इसका नाम बदला गया। 1989 में जब इसके प्रस्ताव को पूर्ण रूप दिया जा रहा था उस समय जवाहर लाल नहेरू के जनषताब्दी वर्श को देखते हुए प्रस्ताव में इसे ‘नेहरू जनषताब्दी राश्ट्ीय उद्यान’ का नाम दिया गया। 1992 में भारत छोड़ों आंदोलन के स्वर्ण जयंती वर्श के अवसर पर ‘अगस्त क्रांति उद्यान’ और 2003 में सोनिया गांधी ने उद्यान का हवाई दौरा किया तो उस समय इसका नाम ‘राजीव गांधी राश्ट्ीय उद्यान’ प्रस्तावित कर दिया गया। अन्ततः मार्च 2006 में वसुंधरा राजे सरकार ने ‘मुकुंदरा हिल्स राश्ट्ीय उद्यान’ के नाम से राश्ट्ीय पार्क बनाने की अधिसूचना जारी कर दिया। प्रस्ताव बनाने वाले वन संरक्षक विजय सालवान इसका बार-बार नाम बदले का रोचक किस्सा बताते हैं। सालवान कहते हैं कि नाम बदले का केवल एक मात्र उद्देष्य होता कि किसी तरह इस उद्यान को बनाने की मंजूरी मिल जाए। इसलिए जो सरकार इसमें थोड़ी भी रूचि दिखाती हम उसी के अनुरूप इसका नाम बदल कर प्रस्ताव भेज देते। हांलाकि 2006 में अधिसूचना जारी होने के बाद भी इसके राश्ट्ीय उद्यान बनने का सपना पूरा नहीं हो सका है। इसमें भी सबसे बड़ी बाधा इन जंगलों में चल रही अवैध गतिविधियां ही हैं। अवैध खनन के बदले अफसरों को मिलने वाली मोटी रकम ने उनके पांव बांध रखे हैं। कोटा के उपवन संरक्षक ;वन्यजीवद्ध अनिल कपूर का कहना है कि ‘अभयारण्य क्षेत्र में तीन गांवों को जिसकी जनसंख्या करीब 70 है, को वहां से हटाकर दूसरी जगह बसाना है। इसके लिए सर्वे कर लिया गया है।’ दरा से विषेश लगाव रखने वाले सालवान का मानना है कि ‘इस मुद्दे पर चाहे जितनी राजनीति कर ली जाए, लेकिन जरुरत है कि इसे तुरंत राश्ट्ीय उद्यान का दर्जा मिले। ताकि जंगल से जीवों के अस्तित्व को मिटने से बचाया जा सके।’


लुप्त हो गए वन्यजीव

जंगल में भारी पैमाने पर हो रहे अवैध खनन ने न केवल जंगल नश्ट किया है, बल्कि यहां के वन्यजीवों के वजूद पर भी खतरा मंडराने लगा है। पिछले दो दषक में बढ़े मानवीय हस्तक्षेप ने जंगल से कई जंगली जीवों के अस्तित्व को मिटा दिया है। कोटा के सेवानिवृत मंडल वन अधिकारी एच वी भाटिया बताते हैं कि 1980 तक दरा में बाघों का दिखना आम बात होती थी। लेकिन अब यहां एक भी बाघ नहीं बचा है। लगातार षिकार व खनन के चलते तेंदुआ भी गिने-चुने हैं। यह हकीकत वन विभाग के ही पिछले कुछ सालों के वन्यजीव गणना के आंकड़ें ही स्पश्ट करते है। इन आंकड़ों पर नजर डाले तो एक भयावह सच्चाई सामने दिखती है। 1996 तक दरा अभयारण्य में 39 पैंथर ;तेंदुआद्ध हुआ करते थे। 12 साल बाद 2007 में हुए वन्यजीव गणना में इनकी संख्या घटकर 7 रह गई। इसी तरह 1996 में इस अभयारण्य में 725 चीतल, 281 सांभर, 121 चिंकारा, 2926 मोर, 2100 जंगली सुअर, 88 लोमड़ी और 584 नीलगाय थीं। 2007 में हुई वन्यजीव गणना में क्रमषः 107 चीतल, 49 सांभर, 92 चिंकारा, 955 मोर, 302 जंगली सुअर व 58 लोमड़ी ही बची हैं। दरा से लगे जवाहर सागर अभयारण्य के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। सवाल उठता है कि 12 साल में बढ़ने की बजाए एक तिहाई वन्यजीव कम कैसे हो गए। और जब इस अभयारण्य से वन्यजीव गायब हो रहे थे, तो क्या वनविभाग के अधिकारी सो रहे थे? जबाव में राज्य के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक आर के मेहरोत्रा कहते हैं कि ‘‘जंगलों में अंधाधुधं बढ़ी चराई ने वन्यजीवों पर गहरा प्रभाव डाला है। जिसके चलते वन्यजीवों के चारे खत्म हो रहे हैं, और उनकी संख्या घट रही है।’’ सेवानिवृत्त वन संरक्षक विजय कुमार सालवान इसे आधी-अधूरी सच्चाई बताते हैं। सालवान कहते हैं कि ‘‘यह हालात केवल अवैध चराई से नहीं बल्कि बरसों से भारी पैमाने पर हो रहे अवैध खनन, पेड़ों की कटाई व मानवीय हस्तक्षेप ने पैदा किए हैं। इसके लिए वन विभाग भी उतना ही दोशी है जितना की अवैध खनन करने वाले माफिया।’’

बीहड़ों में बालश्रम

दरा अभयारण्य व आस-पास के जंगलों की छाती पर चल रहे हथौड़े केवल धरती का सीना छलनी नहीं कर रहे, बल्कि वह उन फूलों को भी रौंद रहे हैं, जो अभी ठीक से खिल भी नहीं पाए हैं। मौत से गहरी इन खाईंयों में काम करने वाले बच्चे ऐसे ही फूल हैं जिनके लिए सारी दुनिया इन जगलों व खानों की गहराईयों तक सिमटकर रह गई है। अभयारण्य क्षेत्र में चल रही हर खाने में 10-12 साल के बच्चे पत्थर तोड़ते मिल जाएंगे। बच्चों से यहां पत्थर तोड़ने व उनकी ढुलाई का काम लिया जाता है। ऐसी खतरनाक परिस्थितियों में काम करने के संबंध में पूछने पर 12 साल की प्रेमा सीधी सी बात कहती है ‘जंगल से बाहर दूसरा कोई काम नहीं मिलता।’ षिक्षा-स्वास्थ्य की मूलभूत आवष्यकताओं से दूर इन बच्चों तक सरकारी सहायता की कोई किरण नहीं पहुंच सकी है। षिक्षा के संबंध में एक मजदूर पिता मांगी लाल गुर्जर से पुछने पर वह भोलेपन से कहते हैं ‘ गुर्जर के बच्चे भी पढ़ते हैं क्या।’
2006 में केन्द्र सरकार ने बालश्रम (सुरक्षा व विनियम अधिनियम) 1986 में कुछ महत्वपूर्ण संषोधन कर उसे और कड़ा बनाया था। इसमें होटलों, ढाबों, घरों, फैक्ट्यिों व अन्य खतरनाक परिस्थितयों में बच्चों से काम लेने पर कड़ी सजा का प्रावधान किया गया। इस कानून के लागू होने के दो साल बाद भी उसकी परछाई दरा अभयारण्य के बीहड़ों में चल रहे इन अवैध खानों तक नहीं पहुंच सकी है।
अवैध खाने होने के कारण बालश्रम पर रोकथाम करने वाली सरकारी एजेंसियां भी इसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर का बता अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। कोटा के केन्द्रीय सहायक श्रमायुक्त जी एस राठौड़ का कहना है कि ‘‘अवैध खानों का सरकारी दस्तावेज में कहीं उल्लेख नहीं है। हम उन खानों में बालश्रम रोकने के लिए पाबंद हैं जो लीज की हैं। कोटा में लीज की खानों में कोई बालश्रम का कोई केस नहीं है।’’

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