16 अप्रैल 2009

माया का चुनावी लूट तंत्र

शाहनवाज आलम/इलाहाबाद
मुख्यमंत्री मायावती के राजसी जन्मदिन बीत जाने के बाद भी हाथी पर सवार माफिया तत्वों द्वारा अवैध धन उगाही का दौर जारी है। जिसे न तो औरैया के अभियंता मनोज कुमार गुप्ता की नृशंस हत्या से उपजा जनाक्रोश रोक पाया है और न ही अदालतों के फैसले। ऐसा शायद इसलिए है कि लोकसभा चुनाव भी आने वालें हैं और बहन जी को प्रधानमंत्री बनकर उत्तर प्रदेश की जनता के बाद अब पूरे देश की जनता को भय और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना है। जिसके लिए उन्हें और उनके सिपहसलारों को अकूत धन चाहिए, जिसके लिए जंगल और जमीन से वसूली के बाद अब जल के सहारे जीवन यापन करने वालों की बारी है। संगम नगरी इलाहाबाद के दर्जनों घाटों के लगभग पचास हजार नाविक परिवार मायावती के प्रधानमंत्री बनने के इसी आकंक्षा के चलते भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैें। जहां बसपा के विधायक, घोषित लोकसभा प्रत्याशी सहित तमाम छोटे बड़े नेता यमुना और गंगा के घाटों पर बालू ढोने वाले मल्लाहों पर जबरन गंुडा टैक्स देने का दबाव बनाये हुए हैं जो दिन पर दिन लोकसभा चुनावों के नजदीक आने के साथ नृशंस रूप धारण करता जा रहा है। जिसकी नाफरमानी की सजा कभी नंगा कर के बेंत से पिटाई है तो कभी हत्या। राजकुमार हेला जिनकी हत्या बालू माफिया और फूलपुर के बसपा प्रत्याशी कपिल मुनि करवरिया के गुर्गों ने मई 2008 में कर दी थी कि विधवा रामरति देवी कहती है ‘हमारे पति का दोष सिर्फ इतना था कि उसने गुंडा टैक्स देने से मना कर दिया और खनन विभाग के अधिकारियों से इसकी शिकायत कर दी थी।’ रामरति कहती हैं ‘आठ महीने थाना-पुलिस का चक्कर लगाते हो गया लेकिन पुलिस ने किसी को भी आजतक गिरफ्तार नहीं किया।’ समाजवादी गंुडाराज से मुक्ति दिलाने के दावे के साथ सत्ता में आई मायावती का राजकाज ऐसे ही चल रहा है। जहां सोशल इंजीनियरिंग के पर्दे के पीछे नये तरह के सामंती उत्पीड़न के अघ्याय रचे जा रहें हैं जो इस आत्मविशवास पर टिका है कि राज्यव्यवस्था का कोई भी उपकरण उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत से चार-पांच खेप बालू ढोने वाले मल्लाह जो बसपा के पारंपरिक वोटर हेैं आज अपने राज में ही इतना खुराक नहीं जुटा पाते कि दूसरे दिन वे फिर काम पर आ सकें। क्योंकि सत्ता पक्ष का बालू माफिया उनसे प्रत्येक खेेप के लिए अवैध दो सौ रुपया ले लेता है। महेवा घाट के चरण राम बताते हैं कि एक बड़ी नाव में दस से पंद्रह लोग लगते है, जिससे कुल मिलाकर 600की आमदनी होती है। जिसमें ‘टैक्स’ के बाद एक आदमी को बीस रुपए भी नहीं मिलते। दिन भर की मेहनत के बाद हाथ लगे 80-90 रुपए में छह सात लोगों का परिवार कैसे पल पता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। जलालपुर के भीमा निषाद बताते हैं ‘कभी-कभी तो दिन भर खाना नसीब नहीं होने के चलते दूसरे दिन काम पर नहीं आ पाते। लेकिन आय का कोई दूसरा जुगाड नहीं होने और शहर के काफी दूर होने के चलते इस बेगारी का कोई विकल्प भी नहीं है। इस पूरे लूटतंत्र का सबसे गौरतलब पहलू है गुंडा टैकस के रेट का चुनावों के नजदीक आने के साथ बढ़ता जाना। गउघाट के छेदीलाल निषाद बताते हैं ‘दो सौ वाला रेट नया है इससे पहले पचास और सौ चला था।’ वहीं उसी घाट के हीरालाल निषाद राजनीतिक टीकाकार की तरह कहते हैं ‘वोट आवन वाला है ना सब वो ही का तैयारी है।’ दरअसल इस पूरे क्षेत्र में दबंगई, वो चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, का अखाड़ा नदी और रेत ही रहा है। जिस पर करवरिया कुनबा शुरु से ही एक मजबूत पाला है। जिसके आतंक का अंदाजा इसी से लग जाता है कि कपिल मुनि करवरिया के पिता भुक्कल महराज जिन पर आधा दर्जन हत्या और डकैती के आरोप थे अपने विरोधियों को पालतू मगरमच्छों के आगे जिन्दा डाल देने के लिए कुख्यात थे। वहीं दूसरी और बालू खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना भी उनको बेरोजगारी और भुखमरी की और धकेल चुका है। जब कि सरकार और न्यायलयों ने अपने कई महत्वपूर्ण निर्देषों स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का उपयोग किसी भी सूरत में न हो। लेकिन भ्रष्ट प्रशासन और हाथी सवार माफिया की मिली भगत से उच्चन्यायलय के निर्देषों की खुलेआम धज्जीयां उड़ाई जा रहीं है। चायल के एस।डी.एम. अनिल कुमार उपाध्याय तो पूरी बेशर्मी से झूठ बोलते हुए बालू उत्खनन माफिया द्वारा मशीनों के इस्तेमाल को वैध बताते हुए दावा करते हैं कि हाईकोर्ट ने ही मशीनें लगाने का निर्देष दिया है। लेकिन वे न तो फैसले की तिथि बताने को तैयार है और न ही उसकी प्रतिलिपी ही दिखाने को। जबकि सच्चाई तो यह है कि जब बालू मजदूरों ने अपना रोजगार छिनते देख मशीनों को बंद करने के लिए दसियों हजार की संख्या में जिला मुख्यालय पर धरना दिया तब उच्च न्यायलय ने मामले को स्वतः ध्यान में लेते हुए इसमें हस्तक्षेप किया। मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय। आदेश में आगे सरकार सेे इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए बालू माफिया के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का आदेश भी दिया गया। लेकिन जब विधानसभा में पूर्ण बहुमत हो, विपक्ष भ्रष्ट और अलोकप्रिय हो, और सपना प्रधानमंत्री बनने का हो तब न्यायलयों की फैसलों की क्या औकात। हाथी के गणेश बनने के बाद उस पर सवार हुए कपिल मुनी करवरिया हों या कबीना मंत्री और ‘इनको मारो जूते चार’ के जमाने वाले ख़ाटी महावत इंद्रजीत सरोज सभी की मशीनें अपने ही पारंपरिक मल्लाह वोटरों को मुंह चिढ़ा रही है। जिस पर अगर कभी किसी ने सवाल उठाया और ना नुकूर कर दी तो खैर नहीं। मुरवल गांव के कल्लू निषाद जिनकी नाव को कपिल मुनि करवरिया के खास और गांव के प्रधान महादेव पासी ने सिर्फ इसलिए छीन लिया और मारा पीटा कि उसने पैसा न होने के कारण गुंड़ा टैक्स देने से मना कर दिया, बताते हैं ‘आज चार महीने से बारा थाने में एफआईआर दर्ज है लेकिन महादेव अभी भी खुलेआम गंुडा टैक्स वसूल रहा है।’ यही अंधेर बालू के पट्टों के खरीद फरोख्त में भी है। कानूनन एक पट्टा धारक को तो एक ही बालू खंड़ पर पट्टा मिल सकता है लेकिन करवरिया साहब के पास अठारह खंड़ है जिसे उन्होंने उनके अनुसार 36लाख रुपए में लिये हैं। ये अठारह खंड़ उन्हें किस कानून के तहत मिले हैं, एक वर्जीत सवाल है करछना के एस.डी.एम. श्री के एन उपाघ्याय जिनके अधिकार क्षेत्र में दर्जनों धाट आते हैं, का इस सवाल पर बस यही कहना है कि उनका काम केवल कानून व्यवस्था देखना है। जाहिर है कि वे बालू माफिया के खिलाफ उठते वाजिब सवालों को दबाना ही कानून समझ रहें हैं। अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा जो लंबे समय से बालू मजदूरों के सवाल उठाता रहा है के नेता सुरेश कहतेें हैं ‘गुंड़ा टैक्स के खिलाफ सड़क से लेकर कोर्ट कचहरी तक लड़ चुके हैं लेकिन इस राज्य में सर्वजन हिताय राज्य में कहीं कोई सुनवाई नहीं है। अब तो सरकार को चाहिए कि विधान सभा में बहुमत का लाभ उठाकर गुंड़ा टैक्स को कानूनी वैधता दे दिया जाय। कम से कम वह पैसा सरकारी राजस्व का तो होगा।’
ये देखना दिलचस्प होगा कि कभी बसपा के शैशवकाल में कांशीराम के बहुजनवाद की परिकल्पना की प्रयोगशाला रही संगम नगरी जहाॅं से उन्होंने खुद दो बार संसद पहंुचने की असफल कोशिश की अब बदले हुए सामाजिक फार्मूले में क्या अपनी जमीन तलाश

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