03 मई 2009

सेंदरा के लिए कुछ भी करेगा

जमशेदपुर, [भादो माझी]। आदिवासी समुदाय ने 'सेंदरा' का शंखनाद कर दिया है। एक ऐसी परंपरा का शंखनाद जो सदियों से चली आ रही है। इस परंपरा को आज भी बदस्तूर जारी रखने के लिए आदिवासी पुलिस-प्रशासन तक से लड़ने-भिड़ने तक को तैयार हैं।
सेंदरा यानि जानवरों का शिकार। आदिवासी दलमा जंगल पर चढ़ाई कर जानवरों का सेंदरा [शिकार] करने की परंपरा को पूरा करने की कवायद में जुट गए हैं। इसके लिए बाकायदा गांव-गांव में 'गिरा साकाम' [पारंपरिक संदेश पत्र] के जरिए फरमान जारी कर दिया गया है। अब इंतजार है चार मई का, जब दलमा में सेंदरा की इस सदियों पुरानी परंपरा को बरकरार रखने की औपचारिकता पूरी की जाएगी।
दोलमा राजा ने सेंदरा की दी अनुमति
-दोलमा बुरू सेंदरा समिति ने दलमा जंगल में आदिवासी समुदाय का पारंपरिक पर्व सेंदरा पर्व की तिथि चार मई को मुकर्रर की है। इसके लिए दोलमा राजा [आदिवासी समुदाय जिसे दलमा जंगल का राजा मानता है] राकेश हेम्ब्रम की अनुमति भी ले ली है। चार मई के तड़के सेंदरा के लिए समुदाय दलमा में चढ़ाई करेगा। प्रदेश के कोने-कोने से तीर-धनुष और बरछी-भाला लिए आदिवासी युवक तीन मई यानी रविवार को ही दलमा की तलहटी पर जुट जाएंगे।
परंपरा बनाम कानून की जंग
-सेंदरा के मसले पर आदिवासी परंपरा और कानून के बीच कभी न खत्म होने वाली जंग लंबे समय से जारी है। न तो आदिवासी झुकने को तैयार हैं, और ना ही कानून परंपरा के हिमायती। झामुमो के विधायक व आदिवासी समुदाय के नेता चंपाई सोरेन कहते हैं कि परंपरा जमाने से चलती आ रही है, जबकि कानून अब बना है। वहीं आदिवासी नेता रामदास सोरेन का कहना है कि कानून का सम्मान आदिवासी समुदाय करता है, लेकिन परंपरा से समझौता करना भी समुदाय के लिए संभव नहीं।
मारने की नहीं, मिलाने की है परंपरा
-सेंदरा सिर्फ शिकार करने, यानी जानवरों को मारने की परंपरा नही है। आदिवासी मामलों के जानकार भुगलू सोरेन बताते हैं कि सेंदरा की परंपरा जानवरों का मिलन कराने की परंपरा भी है। सेंदरा के लिए आदिवासी युवक जब हथियार लेकर जंगल में घुसते हैं तो जानवरों में भगदड़ मच जाती है। वो जंगल के एक कोने से दूसरी और भाग निकलते हैं। इसी दौरान कई नर जानवरों का मिलन मादा से हो जाता है तो कई मादाओं का नर जानवरों से।
गर्भवती जानवरों का नहीं होता शिकार
-सेंदरा के दौरान आदिवासियों द्वारा जंगल में किसी भी गर्भवती मादा जानवर को नहीं मारा जाता, बल्कि उन्हें देख कर सुरक्षित छोड़ दिया जाता है।
वन्य जीव संरक्षण को चुनौती
-आदिवासी सेंदरा को पर्व व परंपरा बताते हैं, लेकिन एक वास्तविकता यह भी है कि इस पर्व के द्वारा आदिवासी वन्य जीव संरक्षण की कवायद को चुनौती देते हैं। चूंकि सेंदरा में जंगल को जानवरों का शिकार किया जाता है, और तीर-धनुष लिए जंगल चढ़ने वाले आदिवासियों को जो जानवर दिख जाता है उसे मार गिराते हैं, इसलिए यह परंपरा खुले तौर पर वन्य जीव संरक्षण को चुनौती देती है।
वन विभाग की एक नहीं चलती
-वन विभाग हमेशा सेंदरा को रोकने का प्रयास में लगा रहता है। लेकिन अक्सर यह प्रयास विभागीय दौड़-धूप ही साबित हुआ। चूंकि वन विभाग पर वन्य जीवों की सुरक्षा का दारोमदार होता है, इसलिए इसे रोकने हेतु विभाग जनगाजगरण अभियान से लेकर सेंदरा न करने वालों को पुरस्कृत करने का प्रलोभन भी देता रहा है। लेकिन अब तक वन विभाग को न के बराबर ही सफलता प्राप्त हो पाई है।
सुनी रहेंगी आदिवासी सुहागिनों की मांग
आदिवासी समुदाय सेंदरा को एक युद्ध ही मानता है। सेंदरा पर जाने वाले युवक के लौटने का इंतजार तक नहीं किया जाता। परंपरा ऐसी है कि युवकों के सेंदरा जाने से लौटने तक के दौरान आदिवासी परिवार की महिलाएं सिंदूर भी नहीं लगातीं। सेंदरा के लिए रविवार को आदिवासी समुदाय के युवक पारंपरिक हथियारों से लैस होकर दलमा की ओर कूच कर जाएंगे। आदिवासी परिवारों में पारंपरिक विधि-विधान और पूजा अर्चना शनिवार से ही शुरू हो जाती है।
शनिवार को घर-घर में युवकों के लिए मन्नत मांगने को लोटा में पानी भर कर घर के अंदर रख दिया गया। शनिवार से ही सभी घरों में मसाला-तेल खाना भी बंद कर दिया गया। अब युवकों के लौटने के बाद ही तेल-मसाला का सेवन किया जाएगा। दलमा के लिए कूच करने से पहले आदिवासी युवक अगांव के बाहर टोटका कर बुरी नजर वालों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए पूजा करेंगे। दलमा में तलहटी पर 'गिपितिज टंडी' [आरामगाह] बनाया जाएगा, जहां रात भर आदिवासी सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा। दोलमा राजा राकेश हेम्ब्रम के नेतृत्व में पूजा अर्चना करने के बाद चार मई को तड़के तीन बजे आदिवासी समुदाय के लोग पारंपरिक हथियारों से लैस होकर जंगल में चढ़ जाएंगे और शिकार शुरू कर देंगे।

साभार - जागरण याहू इंडिया

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