07 मई 2009

क्यों रूठे हैं वोटर देवता

शालिनी वाजपेयी

चुनावी त्यौहारों का मौसम है। सूरज भी अपनी तपिश बढ़ाता जा रहा है। सूरज की तपिश इन एसी कमरों में बैठने वाले नेताओं की परीक्षा ले रही है। अगर देखा जाए तो अच्छा ही है। जितनी धूप में तेजी बढ़ेगी उतनी राजनीति में भी गरमी बढ़ती जाएगी। वैसे तो ये राजनेता कभी अपने बंद एसी घरों से बाहर नहीं निकलते होंगे लेकिन इस समय पर जनता इन्हें अपनी ही तरह धूप में चलने पर मजबूर कर रही है। बहुत मजा आ रहा है इन नेताओं को इस तपती धूप में देखकर। प्रियंका वाड्रा जैसे नेता जो शायद ही कभी ठंडी की धूप में भी बैठती होंगी और इन चुनावों में इन्होंने रायबरेली में इस तपती धूप में भी नीबू पानी पी-पीकर एक दिन में 20-20 सभाएं की हैं। प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी के चेहरे को देखकर तो लगता ही नहीं है कि ये आम जनता के नेता हैं। लेकिन पूरी तरह नहीं तो दबी जुबान से मानना ही पड़ेगा कि तथाकथित रूप से यही युवा नेता हैं जो कल मंदी से छिने रोजगार और बेरोजगार युवकों की तकदीर का फैसला करेंगे। ये उस किसान की भी किस्मत को बनाएंगे और बिगाड़ेंगे जो इसी तपती धूप में जिसमें ये नीबू पानी पी-पीकर चुनावी सभाएं कर रहे हैं, वह किसी नीबू पानी की तो बात छोçड़ए दो वक्त की रोटी भी जुटा पाए तो बड़ी बात है, ऐसे ही धूप में नंगे पांव दिन-रात हमारे लिए अपने खेत पर जुटा रहता है ताकि इस मंदी में भी देश को बचाया जा सके। यह उस मजदूर के पारिश्रमिक से भी खिलवाड़ करेंगे जो इस धूप में भी अपना काम उसी गति से जारी रखता है जैसे हमेशा।सोनिया जी तो बेचारी इटली से आई हैं उन्होंने तो कभी धूप के दर्शन भी नहीं किए होंगे। शादी करने के बाद उन्हें तो ससुराल के नेग में ही राजनीति मिल गई। बेचारी फासीवादियों के विदेशी बहू के व्यंग्य को झेलते हुए भी आज इस तपती धूप में वोट मांग रही हैं। यदि यह लोकतांत्रिक वोट प्रणाली न होती तो शायद चुनाव के वक्त भी नेताओं को धूप में निकलने का मौका नहीं मिलता। बलिहारी मनाइए इस लोकतांत्रिक वोट प्रणाली की जिसमें चुनाव के वक्त तो नेता जनता के नखरे झेलते हैं। इनके लिए तो यह जनता वैसे भी यूज एंड थ्रो है। वोट के समय यूज कर लिया और फिर फेंक दिया।इन सब के बीच बेचारे मनमोहन सिंह को भी पिसना पड़ रहा है। बेचारे ऑक्सफोर्ड में क्या-क्या सपने लेकर पढ़ाई कर रहे थे। वल्र्ड बैंक में रहा कर्मचारी बेचारा इस तपती धूप में जनता के सवालों का जवाब देता फिर रहा है। वैसे उन्हें जाने की जरूरत तो है नहीं, उन्हें न तो लोक सभा का चुनाव लड़ना है और न ही जनता को खुश करना है। वह सब तो सोनिया मैडम कर ही लेंगी, उन्हें तो बस पीएम की कर्सी पर बैठना है जैसे कि पहले हुआ।अब बात आती है आडवाणी की। बेचारे लखनऊ के मुंशी पुलिया चौराहे पर चेहरा लाल किए हुए जनता को स बोधित कर रहे थे। आडवाणी को तो इस समय कोई चौबीस घंटे धूप में खड़ा होने को बोले तो वह खडे़ हो जाएंगे, बस उनका पीएम बनने का सपना साकार कर दे। इस समय पर तो उनका एक ही ध्येय है एक ही लक्ष्य है कि कैसे भी वह पीएम बन जाएं। फिर चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़े। यह तो हुई सूरज की मेहरबानी नेताओं पर, अब देखते हैं मतदाता पर इस मेहरबानी का क्या असर होता है।मतदाताओं में भी जो मध्य वर्ग और उच्च वर्ग (एलीट) है वह तो चुनाव के दिन की छुट्टी का भरपूर आनंद लेता है और अपने परिवार के साथ पूरे दिन मौज मस्ती करता है, बजाय इस धूप में जाकर वोट डालने के। उसकी अपनी समझ कहती है कि वह क्या करेगा वोट डालकर क्योंकि उसके पास वह सब कुछ है जो ऐशो-आराम से जीवन बिताने के लिए जरूरी होता है। इन पर गौर कीजिए, ये मत कहिएगा कि ये अशक्षित हैं या कम पढ़े लिखे हैं। ये समाज के वेल एजूकेटेड वर्ग के लोग हैं। बेचारे वोट तो वो डालते हैं जिनके पास रोटी जुटाने के लिए पैसा नहीं है, जिन्हें अपने परिश्रम का सही मूल्य नहीं मिलता, पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिलता जिससे कि वह स्वस्थ रह सकें। इन्हें तो इन नेताओं को इन्हीं आशाओं के साथ ही वोट करना है। पता नहीं कब कौन इनका भाग्य बदल दे, इसी आशा के साथ ये धूप में भी ईवीएम की बटन दबाने जाते हैं। आप की नजर में ये अनपढ़ हैं ये उन लोगों की तरह शिक्षित नहीं है जो राजनीति को समय की बबाüदी बताते हैं। अब तो लोगों को यह मान लेना चाहिए कि नेता को चुनने में पढ़े लिखे या अनपढ़ होना मायने नहीं रखता है बल्कि अपनी सामाजिक जि मेदारी समझने वाला व्यçक्त ही सही प्रत्याशी चुनता है। इसलिए यदि आप यह सोचेंगे कि शिक्षा सब कुछ सुधार देगी, शिक्षा आपके लोकतंत्र को मजबूत करेगी तो यह बिल्कुल गलत धारणा है। पढे़ लिखे होने के साथ-साथ कढ़े होना भी बहुत जरूरी है। यही कढ़े होना ही आपको एक सामाजिक प्राणी बनाता है और जो सामाजिक प्राणी बनेगा वह अपने लोकतंत्र को मजबूत बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगा। देखा जाए तो वोटिंग प्रणाली का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करके लोकतंत्र को मजबूत बनाने में सबसे ज्यादा योगदान तो इस नि न वर्ग का ही है। पढे़ लिखे लोग ही तो सबसे ज्यादा जाति धर्म के आधार पर प्रत्याशियों को चुनते हैं। शिक्षा के प्रतिशत का दिन पर दिन बढ़ने के साथ ही जाति-धर्म की खाई भी बढ़ती ही जा रही है। क्या शिक्षा रोक पा रही है इस जहर को फैलने से। इसीलिए हमें शिक्षा का सही उपयोग कर जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले लोगों को जल्द ही इस समाज से बाहर कर देना चाहिए। हमें नहीं चाहिए ऐसी शिक्षा जो हमें आपस में लड़ाए। इस धूप में छात्र भी भागदौड़ से बचना चाहता है और अपनी पढ़ाई को ज्यादा से ज्यादा महत्व देकर वह अपने जन्म स्थान पर जाकर वोट डालने में समय बबाüदी मानता है। उसका मानना है उसे क्या मतलब है इस राजनीति से, लेकिन वह यह नहीं जानता है कि कल को जब वह पढ़-लिखकर रोजगार की तलाश में बाहर जाएगा तो रोजगार के लिए बेहतर अवसर उसे कौन देगा यही राजनीति। उसकी फीस कितनी बढ़ेगी कितनी कम होगी यह सबकुछ कौन तय करेगा यही राजनीति फिर भी हम कहते हैं कि हमें राजनीति से कोई मतलब नहीं है। आप मतलब रखें चाहे न रखें लेकिन राजनीति आपको प्रभावित करती है। इसलिए इस राजनीति को आप तय कीजिए। इन्हीं नेताओं की खुली अर्थव्यवस्था के लागू करनेे के कारण ही आज हम मंदी से जूझ रहे हैं और हमारे रोजगार छिन रहे हैं। आप अपने स्कूल के मेधावी छात्र होते हुए भी नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे हैं, क्यों, इसी राजनीति की वजह से, इसके लिए आप स्वयं जि मेदार हैं। इस दौरान छात्रों को मांग करनी चाहिए कि हमें वोट डालने के लिए इलेक्शन के दौरान दो-तीन दिन का अवकाश दिया जाए ताकि हम अपने देश और अपने भविष्य की बेहतरी में अपना योगदान दे सकें।आप तो वही कर रहे हैं जो ये नेता चाहते हैं। आप इन नेताओं के षडKंत्र के जाल में फंसते जा रहे हैं, ये नेता तो चाहते ही हैं कि वोट कम पड़ें ताकि कम वोट प्रतिशत में ही हार जीत का फैसला हो जाए। इन नेताओं के नापाक मंसूबों को सफल मत होने दीजिए। उस नि न वर्ग से सीखिए जिसे सबसे ज्यादा छला गया है लेकिन फिर भी वह हार नहीं मान रहा है और अपनी लड़ाई को जारी रखे हुए है। इन्हीं की तरह आप भी इस आग के गोले के सूरज से मत डरिए और अपने अधिकारों और जि मेदारियों को समçझए। आपके घर का आटा, दाल, चावल, चीनी, पानी ये सबकुछ आप को दिया जाए या नहीं यह राजनीति तय करती है तो आप इस राजनीति को क्यों नहीं तय करते हैं ताकि आपकी सुख सुविधाओं में खलल न पड़ सके। मध्य वर्ग और उच्च वर्ग (एलीट क्लास) को तो जरूर ही सोचना होगा और आगे बढ़ना होगा राजनीति को तय करने के लिए क्योंकि उसका रोल काफी निणाüयक है। उसे अपने एसी कमरों से बाहर निकलकर इस तपती धूप से दोस्ती करनी होगी ताकि आपके देश का बेहतर भविष्य बन सके।अब देखते हैं इस तपिश भरी धूप में आप अपने अधिकारों और जि मेदारियों पर कितना खरे उतरते हैं। तीन चरणों के मतदान हो चुके हैं और दो के अभी बाकी हैं। जहां पर मतदान हो चुके हैं वहां पर आप ने बुरा प्रदर्शन ही किया। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में मतदाताओंे ने तो बहुत ही बुरा प्रदर्शन किया हालांकि थोड़ा सा बढ़ा है लेकिन संतोषजनक नहीं है। सबसे ज्यादा आश्चर्य तो दक्षिण मु बई के वोटिंग प्रतिशत को देखकर हुआ। ये लोग जो मु बई के आतंकी हमले के समय सबसे ज्यादा शोर मचा रहे थे लेकिन अब जब जवाब देने का सही वक्त आया है तब मौन धारण किए हुए बैठे हैं, तब बड़ी उछल कूद मचा रहे थे। मो बçत्तयां लेकर कई दिनों तक गेट वे ऑफ इंडिया पर लाइन बनाकर चिल्ला रहे थे और राजनीति बदलने की बात करते थे। अब कहां गया वह जोश। बदल दीजिए अब राजनीति। यह तो आपके ही हाथ में है। लेकिन किसे पड़ी है बदलने की। इन्हें तो बस लोकतंत्र का उपभोग करना है और मौका पड़ने पर उसे गालियां भी देना है। लेकिन लोकतंत्र की मजबूती में अपना कोई योगदान नहीं देना है। यही है इस खाते पीते मध्य वर्ग का फंडा। ड्राइंग रूम में बहस करना इसे बड़ा भाता है लेकिन जहां बहस की जरूरत है वहां पर इनके मुंह पर पट््टी बंध जाती है। अब बहस करिए न कि किसे चुनना है और किसे नहीं चुनना है। लेकिन आप को तो इस दिन छुट््टी बितानी है। बहस करके क्या करेंगे। लोकतंत्र जाए भाड़ में हमारी बला से। राजनीति शास्त्र के शिक्षक सही कहते हैं कि जो वोट नहीं डालता है उसे इन राजनेताओं को और इस व्यवस्था को गाली देने का कोई हक नहीं है। जब आप इस घर के हैं ही नहीं तो अच्छाई बुराई से आपका क्या मतलब।

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