06 मई 2009

छत्तीसों मुठभेड़, मरते आदिवासी

मशहूर पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी को 13 अप्रैल 2009 को गोयनका एवार्ड दिया गया. पुण्य प्रसून को जिस रिपोर्ट के लिए यह सम्मान मिला वह रिपोर्ट पाक्षिक पत्रिका प्रथम प्रवक्ता के ३१ मई २००८ के अंक में "छत्तीसों मुठभेड़, मरते आदिवासी" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. पुण्य प्रसून ने यह रिपोर्ट अपने ब्लॉग पर भी लगाई है. यहाँ उसे साभार दिया जा रहा है. आप भी पढ़े और सच्चाई से वाकिफ हों.
पुण्य प्रसून वाजपेयी
देश के मूल निवासी आदिवासी को अगर भूख के बदले पुलिस की गोली खानी पड़े; आदिवासी महिला को पुलिस-प्रशासन जब चाहे, जिसे चाहे, उठा ले और बलात्कार करे, फिर रहम आए तो जि़न्दा छोड़ दे या उसे भी मार दे; और यह सब देखते हुए किसी बच्चे की आँखों में अगर आक्रोश आ जाए तो गोली से छलनी होने के लिए उसे भी तैयार रहना पड़े; फिर भी कोई मामला अदालत की चौखट तक न पहुंचे, थानों में दर्ज न हो—तो क्या यह भरोसा जताया जा सकता है कि हिन्दुस्तान की जमीं पर यह संभव नहीं है? जी! दिल्ली से एक हज़ार किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके का सच यही है। लेकिन राज्य की नज़र में ये इलाके आतंक पैदा करते हैं, संसदीय राजनीति को ठेंगा दिखाते हुए विकास की गति रोकना चाहते हैं। हिंसक कार्रवाइयों से पुलिस प्रशासन को निशाना बनाते हैं। सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाकर व्यवस्था को खारिज कर विकल्प की बात करते हैं। इस नक्सली हिंसा को आदिवासी मदद करते हैं तो उन्हें राज्य कैसे बर्दाश्त कर सकता है? लेकिन राज्य या नक्सली हिंसा की थ्योरी से हटकर इन इलाकों में पुरखों से रहते आए आदिवासियों को लेकर सरकार या पुलिस प्रशासन का नज़रिया आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आदिवासियों को नक्सली करार देकर जिस तरह की पहल करता है, वह रोंगटे खड़े कर देता है।
ठीक एक साल पहले छत्तीसगढ़ के सरगुजा जि़ले की पुलिस ने आदिवासी महिला लेधा को सीमा के नाम से गिरफ्तार किया। पुलिस ने आरोप लगाया कि मार्च 2006 में बम विस्फोट के ज़रिए जिन तीन केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की मौत हुई उसके पीछे सीमा थी। अप्रैल 2006 में जिस व$क्त सीमा को गिरफ्तार किया गया, वह गर्भवती थी। सीमा का पति रमेश नागेशिया माओवादियों से जुड़ा था। कोर्ट ने सीमा को डेढ़ साल की सज़ा सुनाई। सीमा ने जेल में बच्ïचे को जन्म दिया, जो काफी कमज़ोर था। अदालत ने इस दौरान पुलिस के कमज़ोर सबूत और हालात देखते हुए सीमा को पूरे मामले से बरी कर दिया, यानी मुकदमा ही खत्म कर दिया।
सीमा बतौर लेधा नक्सली होने के आरोप से मुक्त हो गई। लेकिन पुलिस ने लेधा पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह अपने पति रमेश नागेशिया पर आत्मसमर्पण करने के लिए दबाव बनाए। पुलिस ने नौकरी और पैसा देने का लोभ भी दिया। लेधा ने भी अपने पति को समझाया और कमज़ोर बेटे का वास्ता दिया कि आत्मसमर्पण करने से जीवन पटरी पर लौट सकता है। आखिरकार रमेश आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार हो गया।
28 मई 2006 को सरगुजा के सिविलडाह गाँव में आत्मसमर्पण की जगह ग्राम पंचायत के सचिव का घर तय हुआ। सरगुजा के एसपी सीआरपी कलौरी लेधा को लेकर सिविलडाह गाँव पहुँचे। कुसुमी इलाके से अतिरिक्त फौज भी उनके साथ गई। इंतज़ार कर रहे नरेश को पुलिस ने पहुँचते ही भरपूर मारा। इतनी देर तक कि बदन नीला-काला पड़ गया। फिर एकाएक लेधा के सामने ही आर्मड् फोर्स के असिस्टेंट प्लाटून कमांडर ने नरेश की कनपटी पर रिवाल्वर लगा कर गोली चला दी। नरेश की मौके पर ही मौत हो गई। गोद में बच्ïचे को लेकर ज़मीन पर बैठी लेधा चिल्ला भी नहीं पाई। वह डर से काँपने लगी। लेधा को पुलिस शंकरगढ़ थाने ले गई, जहाँ उसे डराया-धमकाया गया कि कुछ भी देखा हुआ, किसी से कहा तो उसका हश्र भी नरेश की तरह होगा। लेधा खामोश रही।
लेकिन तीन महीने बाद ही दशहरे के दिन पुलिस लेधा और उसके बूढ़े बाप को गाँव के घर से उठाकर थाने ले गई, जहाँ एसपी कलौरी की मौजूदगी में और बाप के ही सामने लेधा को नंगा कर बलात्कार किया गया। फिर अगले दस दिनों तक लेधा को लॉकअप में सामूहिक तौर पर हवस का शिकार बनाया जाता रहा। इस पूरे दौर में लेधा के बाप को तो अलग कमरे में रखा गया, मगर लेधा का कमज़ोर और न बोल सकने वाला बेटा रंजीत रोते हुए सूनी आँखों से बेबस-सा सब कुछ देखता रहा। लेधा बावजूद इन सबके, मरी नहीं। वह जि़ंदा है और समूचा मामला लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भी जा पहुँची। जनवरी 2007 में बिलासपुर हाईकोर्ट ने मामला दर्ज भी कर लिया। पहली सुनवाई में सरकार की तरफ से कहा गया कि लेधा झूठ बोल रही है।
दूसरी सुनवाई का इंतज़ार लेधा, उसके माँ-बाप और गाँववालों को है कि शायद अदालत कोई फैसला उनके हक में यह कहते हुए दे दे कि अब कोई पुलिसवाला किसी गाँववाले को नक्सली के नाम पर गोली नहीं मारेगा, इज़्ज़त नहीं लूटेगा। लेधा या गाँववालों को सिर्फ इतनी राहत इसलिए चाहिए, क्योंकि इस पूरे इलाके का यह पहला मामला है जो अदालत की चौखट तक पहुँचा है। लेधा जैसी कई आदिवासी महिलाओं की बीते एक साल में लेधा से भी बुरी गत बनाई गई। लेधा तो जि़ंदा है, कइयों को मार दिया गया। बीते एक साल के दौरान थाने में बलात्कार के बाद हत्या के छह मामले आए। पेद्दाकोरमा गाँव की मोडियम सुक्की और कुरसम लक्के, मूकावेल्ली गाँव की वेडिंजे मल्ली और वेडिंजे नग्गी, कोटलू गाँव की बोग्गाम सोमवारी और एटेपाड गाँव की मडकाम सन्नी को पहले हवस का शिकार बनाया फिर मौत दे दी गई। मडकाम सन्नी और वेडिंजे नग्गी तो गर्भवती थीं। ये सभी मामले थाने में दर्ज भी हुए और मिटा भी दिए गए। मगर यह सच इतना सीमित भी नहीं है। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना किसी एक गाँव की नहीं है, बल्कि दर्जन भर ऐसे गाँव हैं। कोण्डम गाँव की माडवी बुधरी, सोमली और मुन्नी, फूलगट्टï गाँव की कुरसा संतो और कडती मुन्नी, कर्रेबोधली गाँव की मोडियम सीमो और बोग्गम संपो, पल्लेवाया गाँव की ओयम बाली, कर्रेमरका गाँव की तल्लम जमली और कडती जयमती, जांगला गाँव की कोरसा बुटकी, कमलू जय्यू और कोरसा मुन्नी, कर्रे पोन्दुम गाँव की रुकनी, माडवी कोपे और माडवी पार्वती समेत तेइस महिलाओं के साथ अलग-अलग थाना क्षेत्रों में बलात्कार हुआ। इनमें से दो महिलाएँ गर्भवती थीं। दोनों के बच्ïचे मरे पैदा हुए। नीलम गाँव की बोग्गम गूगे तो अब कभी भी माँ नहीं बन पाएगी।
पूरी रिपोर्ट पढें पुण्य प्रसून वाजपेयी

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