11 मई 2009

नए जातीय समीकरणों के उभार का चुनाव

शाहनवाज आलम

हालांकि इस मुदद्ा विहीन चुनाव में पूर्वांचल के एक हिस्से के ‘कर्मठ एवं सुयोग्य’ दंगलबाजों की किस्मत तो सोलह अप्रैल को हुए प्रथम चरण के मतदान के बाद ईवीएम मशीनों में बंद हो गई। लेकिन मतदाताओं ने जिस नए और अब तक के पारंपरिक रुझानों से इतर वोटिंग की उससे जाति केंद्रित राजनीति में नए समीकरणों के उभार के रास्ते खुल गए हैं। इस लिहाज से देखें तो मुद्दा विहीन और नीरस दिखने के बावजूद यह चुनाव कई मायनों में भविष्य की राजनीति में आने वाले बदलावों का गवाह बनने जा रहा है। मतदाताओं के वोटिंग व्यवहार में आए इस बदलाव का नुकसान सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ सकता है। जिसके अब तक के जिताऊ मुस्लिम यादव समीकरण में दूसरे दलों खास कर बसपा ने मजबूत सेंधमारी की है। जिसके चलते उसके जनाधार का एक बड़ा और बुनियादी यादव हिस्सा हाथी पर दांव लगाता दिखा। तो वहीं उलेमा काउंसिल और पीस पार्टी आफ इण्डिया के उभार के चलते उसकी साइकिल का दूसरा पहिया, मुसलमानों का भी एक तबका उससे दूर हुआ है। कहीं-कहीं तो परिसीमन ने जैसे बलिया में यादव मतदाताओं को सपा छोड़ बसपा में जाने पर मजबूर कर दिया है। क्योंकि यहां अब तक गाजीपुर सीट का हिस्सा रहे भूमिहार बहुल जहूराबाद और मुहम्मदाबाद विधानसभा सीटें अब बलिया सदर सीट में आ गई हैं। इस बदलाव के चलते भाजपा जिसकी यहां कोई हैसियत नहीं थी, भूमिहार मतों में अच्छी पकड़ के चलते अपने प्रत्याशी मनोज सिंहा के भरोसे मुख्य लड़ाई में है और भविष्य में भी रहेगी। जबकि दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र, वर्तमान सांसद नीरज शेखर के सपा के बैनर से दूसरी बार चुनाव लड़ने के चलते उनके भविष्य में भी सपा का क्षत्रप बने रहना तय है। ऐसे में अब तक सामाजिक न्याय के नारे के चलते सपा के पीछे खड़े यादवों के एक हिस्से को बसपा की तरफ रुख करते देखना आश्चर्यजनक नहीं है। बसपा ने तो इसी रणनीति के तहत इस बार और 2004 के चुनाव में भी क्रमशः संग्राम यादव और कपिल देव यादव को टिकट देकर यादवों को हाथी की सवारी का न्योता दे दिया था। 2004 में तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समर्थन में मुलायम के दो बार सभा करने के बावजूद बसपा के प्रत्याशी कपिल देव यादव को यादवों का काफी वोट मिला था। इस दृष्टि से देखें तो इस सीट से सपा के जीतने की संभावना के बावजूद उसका आधारभूत जातिय समीकरण ढह चुका है। नए जातीय समीकरणों के बनने-बिगड़ने की दृष्टि से गाजीपुर की स्थिति भी बलिया जैसी है। यानी यहां भी नुकसान में सपा ही है। जहां उसके प्रत्याशी राधा मोहन सिंह के मुख्य लड़ाई में होने के बावजूद उसके वर्तमान सांसद अफजाल अंसारी के बसपा से चुनाव लड़ने के चलते इस बार मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा अपने पारंपरिक सवारी साइकिल के कैरियर पर नहीं बैठा। यह टेªंड आगे भी जारी रह सकता है क्योंकि मुख्तार और अफजाल निकट भविष्य में हाथी से उतरते नहीं दिखते। दरअसल मायावती ने बाहुबली अंसारी बंधुओं को बसपा से चुनाव लड़ाकर एक तीर से दो निशाना साधने की कोशिश की है। अव्वल तो ये कि मुख्तार की जैसी आपराधिक छवि है उससे भाजपा को उभार का मौका मिले। जिसके परिणाम स्वरुप जो नया सेक्युलर और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा उसमें सेक्युलर पाले से सपा को खदेड़ कर वो खुद काबिज हो जाए। दूसरा अगर ऐसा हुआ तो सपा खुद-ब-खुद तीसरे प्लेयर की भूमिका में पहुंच जाएगी। बसपा की इस रणनीति का असर हालांकि अभी बड़े दायरे में तो नहीं दिखा। लेकिन बनारस से मुख्तार के लड़ने के चलते वहां अंदरुनी कलह से जूझती हाशिए पर खड़ी भाजपा और उसके प्रत्याशी मुरली मनोहर जोशी बाहरी होने और वहां से वर्तमान कांग्रेसी सांसद राजेश मिश्र के मैदान में होने के बावजूद मुख्य लड़ाई में आ गए। जिसका असर आस-पास के सीटों मसलन आजमगढ़ में भी दिखा। जहां भजपा का प्रचार करने पहुंचे अरुण जेटली से लेकर योगी आदित्यनाथ तक ने मुद्दा बनाने की कोशिश की। एक सभा में योगी को मुलाहिजा फरमाएं-आजमगढं पहले ही आतंकगढ़ बन चुका है, मऊ से आतंकियों ने आडवाणी जी को ईमेल से मारने की धमकी दी और अब बसपा बनारस जैसी पवित्र नगरी से मुख्तार जैसों को लड़ाकर उसको पाकिस्तान बना देना चाहती है----। जिसका असर साफ-साफ दिखा जहां सपा तीसरे स्थान के लिए चुनाव लड़ी। जबकि एक दौर था जब ‘माई’ के मजबूत समीकरण पर धर्मनिरपेक्षता का झण्डा उठाए मुलायम अपने हर चुनावी अभियान की शुरुवात यहीं से करते थे। बहरहाल, इस चुनाव में वोटिंग व्यवहार में सबसे महत्वपूर्ण तब्दीली मुस्लिम मतदाताओं में दिखी। जो बहुत हद तक इस वजह से भी हुआ कि भाजपा के दूर-दूर तक दिल्ली में काबिज होने की संभावना नहीं है। बाटला हाउस कांड और आतंकी घटनाओं में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के मुद्दे पर बने उलेमा काउंसिल और ‘मजबूर नहीं मजबूत’ बनने के नारे के साथ हालिया गठित पीस पार्टी आॅफ इंडिया के प्रति जिस उत्साह के साथ पोलिंग बूथों पर लोग मुखर दिखे वो कथित सेक्युलर दलों के लिए खतरे की घंटी है। आजमगढ़ के तकिया मुहल्ले में मिले तीस वर्षीय इम्दाद अहमद के बकौल ‘भाजपा और सांप्रदायिकता को रोकने का ठेका सिर्फ मुसलमान ही क्यों ले।’ ऐसा ही तर्क उलेमा काउंसिल के झंडे का साफा बांधे एक अन्य बूथ पर युवा इरशाद अली देते हुए पूछते हैं ‘आज सपा-बसपा और भाजपा में क्या फर्क रह गया है, किसी की भी निजाम हो मारे हम ही जाते हैं। ऐसे में अपनी पार्टी होना जरुरी है।’ मुस्लिम मतदाताओं के मिजाज में आए इस तब्दीली का असर आजमगढ़ के साथ ही लालगंज और घोसी में भी दिखा। घोसी में तो पीस पार्टी आफ इंडिया के प्रत्याशी कैलाश यादव के चलते सपा को मुस्लिम मतों का काफी नुकसान हुआ है। दरअसल उलेमा काउंसिल के मुकाबले बकौल पीस पार्टी के वरिष्ठ नेता हनीफ चैधरी, उन्होंने भावनात्मक मुद्दों को उठाने के बजाय घर-घर जाकर मतदाता बनने से वंचित रह गए लोगों को मतदाता बनवाने जैसे बुनियादी काम पर ज्यादा जोर दिया जिसका दूरगामी असर होना तय है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि उलेमा काउंसिल या पीस पार्टी के समर्थकों में ज्यादातर युवा हैं। जबकि बुजुर्ग वोटर अभी भी सपा-बसपा या कहीं-कहीं जैसे घोसी में कांग्रेस और कम्युनिस्टों के साथ हैं और मुस्लिम केंद्रित पहचान की राजनीति के उभार से भाजपा के पुर्नोदय से सहमे हैं। कहीं-कहीं यह बहस तो पीढ़ियों के द्वंद के रुप में भी उभर आती है। जैसे आजमगढ़ के मुबारकपुर तिराहे के चायखाने पर चुनाव से एक दिन पूर्व जब दोनों पक्षों से बात-चीत में बहस तीखी हुयी तो उलेमा काउंसिल और उसके विरोधी नारा लगाते हुए दो हिस्सों में बंट गए। जो दरअसल पीढ़ियों की खेमा बंदी थी। एक ओर जहां अपनी आंखे खोलते ही बाबरी ध्वंस, गुजरात नरसंहार और बाटला हाउस जैसे विचलित कर देने वाली घटनाओं के साक्षी रहे युवा थे तो दूसरी ओर सत्तार कुरैशी, ओवैस अहमद और मतीन चाचा जैसे झुर्रीदार चेहरे पर उगी अनुभव की सफेद दाढ़ियों वाली टोली थी जो अपनी दूरदर्शिता के बावजूद दूसरे खेमे के उतावले लेकिन बहुत हद तक सही सवालों का जवाब नहीं दे पा रही थी। बहरहाल उलेमा काउंसिल की इस भावनात्मक और पहचान केंद्रित राजनीतिक उभार को मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद जाति व्यवस्था से ठीक उसी तरह चुनौती मिल रही है जैसा भाजपा को हिंदू समाज के पिछडे़ और दलित उभार से मिला। दरअसल उलेमा काउंसिल दस प्रतिशत आबादी वाले सवर्ण अशराफ जातियों के नेतृत्व में उभरी है जिसके चलते उसे पिछडे़ तबकों का समर्थन बहुत कम मिला। पिछड़े मुसलमानों के बीच सक्रिय पसमांदा महाज के नेता खुर्शीद अंसारी कहते हैं ‘ये बात सही है कि मुसलमानों के साथ ज्यादती हो रही है लेकिन इसके बहाने अशराफ फिर से हमें पैदल सैनिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं।’

1 टिप्पणी:

आनंद प्रधान ने कहा…

Bahut achi report hai...bhavishya me bhi aisi reports ki ummid rahegi...

अपना समय