17 मई 2009

जार्ज के संघर्षपूर्ण सफर का त्रासदीपूर्ण अंत !


बुलंद आवाज, सिर पर घने और बेतरतीब बाल, शरीर पर खादी का लिबास, आंखों पर मोटी फ्रेम का चश्मा
, पैरों में चप्पलें और हाथों में कागजों व फाइलों का पुलिंदा! इन सबको मिलाकर बनती है जॉर्ज फर्नांडिस की मुकम्मल तस्वीर। अपनी नौजवानी से लेकर आज तक समाजवाद का झंडा बुलंद करते रहने वाले इस वयोवृद्ध नेता ने जिस धमाकेदार अंदाज में अपनी संसदीय राजनीति की पारी शुरू की थी उसका अंत इतना त्रासदीपूर्ण होगा, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।

अपने से वरिष्ठ और समकालीन नेताओं के बीच 'जॉर्ज' और कनिष्ठों के बीच 'जॉर्ज साहब' के नाम मशहूर भारतीय राजनीति का यह सदाबहार 'एंग्री यंगमैन' पार्टी में अलग-थलग पड़ने के बाद भी चुनाव लड़ने पर तो अड़ गया, लेकिन इस बार जीत से वह दूर रह गया। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी यह हार उनके घटनापूर्ण रोमांचक राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में 'संकटमोचक' की भूमिका का बखूबी निर्वाह करने वाले जॉर्ज खुद इस बार अपने संकट से पार नहीं पा सके।

वर्ष 1967 में हुए आम चुनाव में ट्रेड यूनियन के नेता के रूप में उन्हे जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी(संसोपा) ने कांग्रेस के कद्दावर नेता सदाशिव कानोजीराव पाटिल उर्फ एसके पाटिल के खिलाफ बंबई से लोकसभा के चुनाव में उतारा तो सबने यही कहा था कि पाटिल के सामने ज\र्ज के राजनीतिक सफर का यहीं कत्लेआम हो जाएगा, लेकिन वह लंबी रेस का घोड़ा साबित हुए। पाटिल को हराकर उन्होंने न सिर्फ सभी को चौंकाया, बल्कि पाटिल की राजनीतिक पारी का भी अंत कर दिया और अपनी लड़ाकू राजनीति के दम पर वह बंबई के बेताज बादशाह हो गए। उनकी एक आवाज पर बंबई का जनजीवन ठप्प होने लगा।

इसके बाद जॉर्ज ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके आह्वान पर सन् 1974 में हुई देशव्यापी रेल हड़ताल ने देश के मजदूर आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय ही रच दिया। उस हड़ताल से न सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद बल्कि उनकी सरकार भी बुरी तरह थर्रा गई थी। उस हड़ताल के बाद ही बिहार से शुरू हुआ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ऐतिहासिक छात्र आंदोलन जिसने इंदिरा गांधी की सरकार की चूलें हिला दी थी। उस आंदोलन को दबाने के लिए ही इंदिरा गांधी ने सन् 1975 में आपातकाल लगाया।

'लाठी, गोली, सेंट्रल जेल, जालिमों को अंतिम खेल' का नारा हमेशा अपनी जुबां पर रखने वाले जॉर्ज ने आपातकाल के दौरान अपनी ही तरह के उग्र अंदाज में जब व्यवस्था के खिलाफ बगावत की तो उनके खिलाफ वारंट जारी हुआ तो वह साथियों सहित भूमिगत हो गए। पुलिस उन्हे तो लंबे समय तक गिरफ्तार नहीं कर पाई लेकिन उनके भाई लॉरेस फर्नांडिस को जरूर गिरफ्तार कर लिया। वर्ष 1976 के जून महीने में आखिरकार बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मामले में पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया।

आपातकाल हटने के बाद जॉर्ज ने जेल में रहते हुए मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा और जीते। केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी और जॉर्ज अनिच्छापूर्वक जयप्रकाश नारायण ओर आचार्य कृपलानी के दबाव में उस सरकार में शरीक हुए। उन्हे उद्योग मंत्री बनाया गया। उद्योग मंत्री बनते ही जॉर्ज ने सबसे पहला काम 'कोका कोला' को देश से बाहर निकालने का काम किया।

इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में वह रेल मंत्री और कश्मीर मामलों के मंत्री रहे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में दूसरी और तीसरी बार जब एनडीए की सरकार बनी तो उन्हे रक्षा मंत्री बनाया गया। वाजपेयी सरकार के दौरान बतौर एनडीए के संयोजक वह हमेशा ही संकटमोचक की भूमिका में रहे। 24 दलों के गठबंधन जब भी कोई घटक रूठता था तो उसे मनाने का काम जार्ज के ही जिम्मे होता था।

पर किसको पता था कि एक दिन अपने ही लोग जॉर्ज से इस कदर बेगाने हो जाएंगे कि उन्हे लोकसभा के टिकट के लिए अपने बनाए और तैयार किए हुए नेताओं का मोहताज होना पड़ेगा। जॉर्ज चाहते थे कि इस बार भी वह जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट पर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़े लेकिन पार्टी के नई पीढ़ी के नेतृत्व ने उनको उनकी उम्र और बीमारी का हवाला देकर टिकट नहीं दिया। कभी नहीं हार मानने वाले जॉर्ज को ऐसे में फिर बगावत का रास्ता अपनाना पड़ा। उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से ही मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा। बिहार की राजनीति का चरित्र जिस तरह जाति और समुदाय में पगा हुआ है उसमें जॉर्ज को यह चुनाव हारना ही था और हारे भी।

यह विडंबना ही है कि जिस मुजफ्फरपुर से उन्होंने जेल में रहते हुए चुनाव जीतकर इतिहास रचा था, उसी मुजफ्फरपुर से उनके राजनीतिक सफर का त्रासदीपूर्ण अंत हुआ।

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