15 मई 2009

नेपाल का यह हाल


आनंद स्वरूप वर्मा


प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ के इस्तीफे से नेपाल की राजनीति में जो अनिश्चय की स्थिति पैदा हो गयी है, वह अभी भी बरकरार है. नेपाली कांग्रेस, नेकपा, एमाले और मधेशी जन अधिकार फोरम नई सरकार के गठन के लिए प्रयासरत हैं पर इसमें कई अड़चनें हैं.

नेपाली कांग्रेस एमाले के नेतृत्व में सरकार के गठन के लिए तैयार है लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए एमाले के वरिष्ठ नेता माधव कुमार नेपाल की दावेदारी को लेकर तीनों पार्टियों में बहुत सारे लोग असहमत हैं. माधव नेपाल संविधान सभा के चुनाव में दो-दो स्थानों से माओवादी उम्मीदवार के हाथों पराजित हो चुके हैं. उन्हें पिछले दरवाजे से संविधान सभा की सदस्यता दी गयी है.

प्रचंड को इस्तीफा देने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि सरकारी आदेशों की लगातार अवहेलना करने वाले सेनाध्यक्ष जनरल रुक्मांगद कटवाल को हटाने में वह असमर्थ थे. पिछले कुछ महीनों से कटवाल लगातार रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री के आदेशों की अवहेलना कर रहे थे और बार बार चेतावनी दिये जाने के बावजूद उनके आचरण में कोई सुधार दिखायी नहीं दे रहा था.

इतना ही नहीं कटवाल को केंद्र में रखकर वे सभी ताकतें एकजुट होने लगी थीं जो नहीं चाहती थीं कि नेपाल की सामाजिक संरचना में कोई बदलाव हो. ये वही ताकतें थीं जो राजतंत्र और सामंतवादी व्यवस्था के तहत सदियों से विशेषाधिकार का लाभ उठा रही थीं और जिन्हें हमेशा एक भय सता रहा था कि अगर माओवादी सत्ता में बने रहे और उन्हें उनकी इच्छा के अनुरूप संविधान बनाने में सफलता मिली तो वे अपने विशेषाधिकारों से वंचित हो जाएंगी.

बेशक, नेपाल में राजतंत्र समाप्त हो गया और राजा ज्ञानेंद्र ने नारायण हिति महल खाली कर दिया लेकिन राजतंत्र का निराकार स्वरूप आज भी विभिन्न पार्टियों, संस्थाओं और समूहों में किसी न किसी रूप में मौजूद है. यही वजह है कि कटवाल के मुद्दे पर इन पार्टियों में भी एकमत नहीं है.

यहां तक कि संसदवादी कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी पार्टी नेकपा, एमाले में भी माधव नेपाल और के.पी. ओली अगर कटवाल को हटाये जाने के खिलाफ हैं तो इसी पार्टी के उपाध्यक्ष बामदेव गौतम कटवाल को एक पल के लिए भी सेनाध्यक्ष पद पर नहीं देखना चाहते. राष्ट्रपति रामबरन यादव ने प्रधानमंत्री के आदेशों को पलटते हुए कटवाल को उनके पद पर बहाल कर प्रचंड के सामने एक मुश्किल खड़ी कर दी. उन्हें लगा कि देश में दो सत्ता केंद्र स्थापित हो चुके हैं.

कटवाल प्रसंग ने माओवादी विरोधी ताकतों को गोलबंद होने का मौका दिया. इस काम में उन्हें परोक्ष रूप से अमरीका का और प्रत्यक्ष तौर पर भारत का समर्थन मिला. नेपाल स्थित भारतीय राजदूत राकेश सूद प्रचंड पर लगातार यह दबाव डालते रहे कि कटवाल को न हटाया जाय.

सबसे बुरी बात यह हुई कि राकेश सूद के दबाव डालने की खबरें लगातार नेपाली मीडिया में जगह पाती रहीं और इस प्रकार नेपाली जनता के अंदर भारत के प्रति कटुता में और भी इजाफा हुआ.

पिछले महीने 26 अप्रैल को ही राकेश सूद ने प्रचंड से भेंट की और कहा कि कटवाल को न हटाया जाय. इससे पहले 23 अप्रैल को सूद ने 24 घंटे में तीन बार प्रचंड से भेंट की. बातचीत में प्रचंड के साथ बाबूराम भट्टराई भी थे. नेपाल के एक अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार भट्टराई ने कहा कि सूद को जो कुछ कहना था उन्होंने कह दिया लेकिन हम वही करेंगे जो हम चाहते हैं. सूद से हमने स्पष्ट तौर पर बता दिया कि हम आपकी इच्छा से अपने देश की राजनीति नहीं चलायेंगे.

राष्ट्रपति के कदम को न केवल प्रचंड ने बल्कि एमाले की केंद्रीय समिति ने भी ‘असंवैधनिक’ कहा. प्रचंड ने कहा कि राष्ट्रपति को इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वह निर्वाचित सरकार के फैसले को पलट दे. एमाले के नेता बामदेव गौतम ने इसकी तुलना उसी मानसिकता से की, जिससे राजा ज्ञानेंद्र काम करते रहे हैं.

नेपाल में जो अजीबोगरीब स्थिति है, उसमें दो सेनाओं का अस्तित्व है- एक पुरानी शाही नेपाली सेना और दूसरी माओवादियों की जनमुक्ति सेना. 2006 में माओवादियों और सरकार के बीच जो ‘व्यापक शांति समझौता’ हुआ उसमें दो प्रमुख बातें थीं- संविधान सभा का चुनाव और दोनों सेनाओं का एकीकरण.

इस बात को ध्यान में रखें तो सेना के एकीकरण के मुद्दे पर कटवाल की राय का कोई अर्थ नहीं है- यह सरकार द्वारा लिया गया फैसला है जिसे उन्हें लागू करना ही होगा.

प्रचंड के इस्तीफे से वह शांति प्रक्रिया पटरी से उतरती नजर आ रही है, जिसकी शुरुआत नवंबर 2005 में सात पार्टियों और माओवादियों के बीच 12 सूत्री सहमति के साथ हुई थी. माओवादियों के वरिष्ठ नेता और वित्तमंत्री बाबूराम भट्टराई ने साफ शब्दों में मौजूदा संकट के लिए भारत के नौकरशाहों को जिम्मेदार ठहराया है.

प्रचंड ने भी अपने भाषण में ‘विदेशी शक्तियों’ को जिम्मेदार ठहराया है और उनका इशारा भारत की ही तरफ है. एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ लीलामणि पोखरेल ने तो साफ शब्दों में भारत पर आरोप लगाया कि उसने राष्ट्रपति रामबरन यादव से कहा कि कटवाल की बर्खास्तगी रोकी जाय.

नेपाल एक बार फिर गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है. यह संकट गृह युद्ध का रूप भी ले सकता है. माओवादियों ने तय किया है कि जब तक कटवाल को सेनाध्यक्ष पद से हटाया नहीं जाता और राष्ट्रपति अपने किये के लिए खेद नहीं व्यक्त करते, वे संसद से सड़क तक आंदोलन जारी रखेंगे. इस समूचे प्रसंग ने एक बार फिर पड़ोसी देशों के प्रति भारत की विदेश नीति के दिवालियेपन को उजागर किया है.

साभार raviwar.com

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